गुर्जर प्रतिहार राजवंश
(Gurjara Pratihara Dynasty)
परिचय (Introduction)
गुर्जर प्रतिहार राजवंश का प्राचीन भारतीय इतिहास में विशेष स्थान हैं। अग्निकुल के राजपूतों में सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रतिहार वंश था, जो गुर्जरों की शाखा से संबंधित होने के कारण इतिहास में गुर्जर प्रतिहार कहा जाता है। इस राजवंश ने 8वीं शताब्दी से 11वीं शताब्दी तक शासन किया। प्रतिहारकालीन स्रोत इनको ‘क्षत्रिय’ कहा हैं। ग्वालियर अभिलेख में प्रतिहार वंश को सौमित्र (लक्ष्मण) से उत्पन्न कहा गया है। लक्ष्मण, राम के प्रतिहार (द्वारपाल) थे, अत: इनकी संतान प्रतिहार कहलायी। टॉड और विन्सेन्ट स्मिथ इन्हें सिथियनों का वंशज माना है। इस वंश में अनेक प्रसिद्ध राजा हुए, जिन्होंने साम्राज्य विस्तार के साथ मुस्लिम आक्रमणकारियों से भी अपने देश की रक्षा की।
मूल निवास स्थान (Original habitat)
चीनी यात्री ह्वेनसांग ‘कु-चे-लो’ (गुर्जर) देश का उल्लेख करता है और जिसकी राजधानी ‘पि-लो-मो-लो’ (भीनमाल) में थी। वह इस वंश को क्षत्रिय बताता है। स्टेनकोनो और स्मिथ प्रतिहारों का मूल निवास स्थान भीनमाल ही माना हैं ।
गुर्जर प्रतिहार शासक (Gurjara Pratihara ruler)
नागभट्ट प्रथम (730-756 ई.) – सम्भवतः नागभट्ट प्रथम ही प्रतिहार वंश का संस्थापक था। उसके विषय में ग्वालियर अभिलेख से जानकारी मिलती है। प्रतीत होता है कि उसने अरबों को सिन्ध से आगे नहीं बढ़ने दिया। उसने अपने उत्तराधिकारी को एक शक्तिशाली साम्राज्य सौंपा, जिसमें मालवा, राजपूताना और गुजरात के कुछ भाग शामिल थे।
वत्सराज (775-800 ई.) – नागभट्ट प्रथम के बाद उसके दो भतीजे कक्कुक और देवराज शासक बने। इन शासकों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है। देवराज का पुत्र और उत्तराधिकारी वत्सराज एक शक्तिशाली एवं महत्त्वाकांक्षी शासक हुआ। वह उत्तरी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहता था। उसने भण्डी जाति को पराजित कर कन्नौज पर अधिकार किया तथा बंगाल के राजा धर्मपाल को भी पराजित किया, किन्तु राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने वत्सराज को पराजित किया।
नागभट्ट द्वितीय (800-833 ई.) – वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय शासक बना। ग्वालियर के अभिलेख से पता चलता है कि आन्ध्र, सैन्धव, विदर्भ और कलिंग के शासकों ने उसके सामने आत्मसमर्पण किया। उसने कन्नौज के चक्रायुध को पराजित किया, परन्तु वह राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय से पराजित हुआ। आर. सी. मजूमदार के अनुसार “वत्सराज और नागभट्ट द्वितीय ने एक प्रान्तीय राज्य को पहली श्रेणी की सैनिक तथा राजनीतिक शक्ति में बदल दिया।”
रामभद्र (833-836 ई.) – नागभट्ट द्वितीय के बाद उसका पुत्र रामभद्र शासक बना। उसके समय में प्रतिहारों को पालों के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा।
मिहिरभोज प्रथम (836-885 ई.) – रामभद्र का पुत्र और उत्तराधिकारी मिहिरभोज प्रथम इस वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक हुआ। वह उसकी पत्नी अप्पादेवी से उत्पन्न हुआ था। लेखों से उसके दो अन्य नाम प्रभास और आदिवराह भी मिलते हैं।
उसने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। बंगाल के शासक देवपाल ने उसे पराजित किया। राष्ट्रकूट शासक ध्रुव द्वितीय से भी वह पराजित हुआ। मिहिरभोज प्रथम का साम्राज्य काठियावाड़, पंजाब, मालवा और मध्य प्रदेश तक विस्तृत था।
महेन्द्रपाल प्रथम (885-910 ई.) – मिहिरभोज प्रथम के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम शासक बना। उसने मगध और उत्तरी बंगाल का काफी भाग विजित किया। सम्भवतः कश्मीर के शासक शंकर वर्मन ने उसके कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। कर्पूर मंजरी और काव्य मीमांसा के लेखक राजशेखर महेन्द्रपाल प्रथम के गुरु थे।
महीपाल (लगभग 912-944 ई.) – महेन्द्रपाल प्रथम के पुत्र व उत्तराधिकारी भोज द्वितीय को उसके सौतेले भाई महीपाल ने सिंहासन से उतार दिया एवं स्वयं राजा बना। उसे राष्ट्रकूटों का सामना करना पड़ा। अपनी असफलताओं के होते हुए भी महीपाल शक्तिशाली सामन्तों की सहायता से अपने वंश की शक्ति पुनः स्थापित करने में सफल हुआ।
महेन्द्रपाल द्वितीय और प्रतिहार साम्राज्य का पतन
महीपाल के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल द्वितीय शासक बना, जिसने 945-48 ई. तक शासन किया। आर. डी. बनर्जी का मत है कि राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय के आक्रमण के फलस्वरूप प्रतिहार साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया।
महेन्द्रपाल द्वितीय का एक लेख दक्षिणी राजपूताने के प्रतापगढ़ नामक स्थान से मिलता हैं, जिसमें दशपुर (मन्दसोर) में स्थित एक ग्राम को दान में दिये जाने का उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि महेन्द्रपाल द्वितीय के समय तक प्रतिहारों का मालवा क्षेत्र पर अधिकार था। वहाँ उसका सामन्त चाहमान वंशी इन्द्रराज शासन करता था। इसके बाद 960 ई. तक प्रतिहार वंश में चार शासक हुए – देवपाल (948-49 ई.), विनायकपाल द्वितीय (953-54 ई.), महीपाल द्वितीय (955 ई.) और विजयपाल (960 ई.)। इन शासकों के समय में प्रतिहार साम्राज्य की निरन्तर अवनति होती रही। देवपाल के समय में चन्देलों ने कालंजर का दुर्ग प्रतिहारों से छीन लिया।
खजुराहों लेख में चन्देल यशोवर्मन् को ‘गुर्जरों के लिये जलती हुई अग्नि के समान’ कहा गया है। इससे यह पता चलता है कि अब चन्देल और दूसरे सामन्त भी प्रतिहार शासकों के समक्ष चुनौती प्रस्तुत कर रहे थे। विजयपाल के समय तक प्रतिहार साम्राज्य कई भागों में बँट गया और प्रत्येक भाग में स्वतन्त्र राजवंश शासन करने लगे। इनमें मालवा के परमार, कन्नौज के गहड़वाल, जेजाक-भुक्ति (बुन्देलखण्ड) के चन्देल, ग्वालियर के कच्छपघात, मध्य भारत के कलचुरिचेदि, गुजरात के चौलुक्य, शाकम्भरी के चाहमान, दक्षिणी राजपूताना के गुहिलोत प्रमुख हैं। 10वीं शताब्दी के मध्य में प्रतिहार साम्राज्य पूर्णतया छिन्न-भिन्न हो गया। अब यह कन्नौज के आसपास ही सीमित रहा गया।
विजयपाल के बाद उसका पुत्र राज्यपाल शासक बना, जिसने 1018 ई. तक कन्नौज पर शासन किया। उसने महमूद गजनवीं के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया और कन्नौज पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। महमूद गजनवीं ने कन्नौज को खूब लूटा। राज्यपाल की इस कायरता पर तत्कालीन भारतीय शासक अत्यन्त नाराज़ हुए। चन्देल शासक विद्याधर ने राजाओं का एक संघ तैयार कर उसे दण्डित करने का निश्चय किया ।
दूबकुण्ड अभिलेख से पता चलता है कि विद्याधर के सामन्त कछवाहा वंशी अर्जुन ने राज्यपाल पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी। राज्यपाल के बाद त्रिलोचनपाल (1019-1030 ई.) और यशपाल (1030-1036 ई.) गुर्जर प्रतिहार शासक बने। संभवतः यशपाल गुर्जर प्रतिहार वंश का अंतिम शासक था।
अतः महिपाल के बाद गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का जो विघटन शुरू हुआ, 11वीं शताब्दी में हुए गजनी आक्रमण ने उन्हें भारत के मानचित्र से ओझल कर दिया। कन्नौज में उसके स्थान पर गहड़वाल वंश की स्थापना हुई।
निष्कर्ष (Conclusion)
अतः उत्तर भारत के इतिहास में गुर्जर प्रतिहारों के शासन का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। हर्ष की मृत्यु के बाद गुर्जर प्रतिहारों ने उत्तर भारत में एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की। उन्होंने अरब आक्रमणकारियों से सफलतापूर्वक देश की रक्षा की। मुसलमान लेखक भी उनकी शक्ति एवं समृद्धि की प्रशंसा करते हैं।
संदर्भ सूची
- थापर, रोमिला (2016). पूर्वकालीन भारत, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय : दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
- शर्मा, प्रो. कृष्णगोपाल व जैन, डॉ. हुकुम चंद, (2019).भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (भाग-1), राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर
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