अम्बेडकर : सामाजिक न्याय | Ambedkar: Social Justice in Hindi

अम्बेडकर : सामाजिक न्याय

परिचय

डॉ. अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को महू छावनी (वर्तमान में मध्यप्रदेश के इंदौर जिले में) हुआ था। उनके पिता का नाम रामजी सकपाल था जो कि उस समय पर ब्रिटिश सेना में सूबेदार मेजर के पद पर थे। अम्बेडकर के पिता रामानंद मार्ग के अनुयायी भी थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा सन् 1900 में गवर्नमेंट हाई स्कूल सतारा में हुई, पांचवी कक्षा के दौरान उनका विवाह भीखू वालगंकर की पुत्री रमाबाई के साथ हो गया। उन्होंने मुंबई में एलफिंस्टन हाई स्कूल में प्रवेश लिया, वहाँ पर वे छात्र के रूप में संस्कृत पढ़ना चाहते थे लेकिन उनको संस्कृत पढ़ने की स्वीकृति नहीं दी गई क्योंकि वह एक अछूत जाति से थे। जिस कारण से उन्होंने संस्कृत के स्थान पर फारसी भाषा का चयन किया। बाद में उन्होंने स्वयं संस्कृत का अध्ययन किया। 14 अप्रैल, 1907 में एलफिंस्टन कॉलेज से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की उस दौरान वे पढ़ने की स्थिति में नहीं थे लेकिन कृष्णा जी अर्जुन केलुसकर के सहयोग से उन्हें महाराजा बड़ौदा से ₹25 महीने की छात्रवृत्ति प्रदान की गई। जिसके द्वारा वे अपनी शिक्षा पूरी कर सकेI सन् 1912 के दौरान अंग्रेजी और फारसी से उन्होंने बी.ए की। बड़ौदा के महाराजा ने राज्य के खर्चे पर संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में छात्रों को भेजने का निश्चय किया। जिस कारण से ही 4 जुलाई, 1913 के दौरान उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। अमेरिका में उन्होंने राजनीति विज्ञान, नीतिशास्त्र, मानवशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र जैसे विषयों का अध्ययन किया। जून, 1916 में उन्होंने अमेरिका छोड़ दिया।

सन् 1916 में वे लंदन पहुँचे, जहां पर उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स एण्ड पॉलिटिकल साइस में अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। सितंबर 1917 में महाराजा बड़ौदा के सैनिक सचिव के रूप में उनको नियुक्ति मिली। अक्टूबर, 1918 में अम्बेडकर बंबई में साइड्नहैम कॉलेज में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बने। जहाँ पर वे अपने छात्रों के बीच बहुत लोकप्रिय हुए। लेकिन कॉलेज में हो रहे जातीय भेदभाव से आहत होकर दिसंबर, 1918 में उन्होंने इस्तीफा दे दिया और वे अर्थशास्त्र व कानून की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए। अप्रैल, 1923 में वे भारत वापिस आए और बंबई के उच्च न्यायालय में उन्होंने वकालत प्रारंभ की। वहाँ पर भी उनके साथ जातीय भेदभाव जारी रहा।

उन्होंने 9 मार्च, 1924 को दलितों के उत्थान के लिए सामाजिक आंदोलन शुरू कर दिए। 20 जुलाई, 1924 को प्रबंध समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ के नाम से एक संस्था बनाई। अम्बेडकर ने उस स्वतंत्रता आंदोलन में भाग नहीं लिया, जो कांग्रेस पार्टी द्वारा संचालित हो रहा था वह वंचित वर्ग एवं आम जनता की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन कर रहे थे ताकि दलितों के लोकतांत्रिक अधिकारों को सुरक्षित किया जाए और जाति, लिंग, वर्ग या धर्म के आधार पर हो रहे शोषण एवं असमानता से लोगों को मुक्ति दिलाई जा सके। 25 दिसंबर, 1927 को महाड़ में उन्होंने एक सत्याग्रह सम्मेलन का आयोजन किया जो कि कोलाबा जिले में था। इस जनसभा में मनुस्मृति को जलाने का प्रस्ताव पास किया गया और उसी दिन मनुस्मृति को जला दिया गया। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए अपने जीवनभर में कई प्रयास किए।

सन् 1938 में कांग्रेस पार्टी ने दलितों का नाम ‘हरिजन’ रखने का बिल पेश किया। इसकी अम्बेडकर ने जमकर आलोचना इस आधार पर की कि केवल नाम बदलने से दलितों की परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला है। भारत के स्वतंत्र होने पर अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण के लिए बनाए गए संविधान निर्माण समिति के अध्यक्ष के रूप में चुना गया। 26 नवंबर, 1949 को अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत किया गया संविधान स्वीकार किया गया। 14 अक्टूबर, 1956 को अपने अनुयायियों के साथ नागपुर में हुए ऐतिहासिक उत्सव में उन्होंने बौद्ध धर्म को ग्रहण कर लिया। उन्होंने नवंबर, 1956 में काठमांडू नेपाल में हुए विश्व बौद्ध सम्मेलन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। जहां पर उन्हें ‘नव बुध’ के रूप में मान्यता मिली। सन् 6 दिसंबर, 1956 को उनकी मृत्यु हो गई। 1960 में मुंबई में स्थित दादर चौपाटी के चैत्यभूमी नामक स्थान पर जहाँ उनका शवदाह हुआ, वहाँ पर एक स्तूप खड़ा किया गया।

सामाजिक न्याय की अवधारणा

‘सामाजिक न्याय’ का पहली बार प्रयोग 1840 में सिसिली के पादरी लुईगी तापरेली डि अजेग्लियो द्वारा किया गया था एवं उसे प्रमुखता एंटोनियो रोसमिनी-सेरबाती द्वारा 1848 में दी गई। जॉन स्टूअर्ट मिल, लेसिली स्टीफीन और हेनरी सिजविक जैसे लेखकों ने वितरणात्मक न्याय से अलग किए बगैर इसे समय-समय पर सामाजिक न्याय का उल्लेख किया है। 19वीं शताब्दी के अंत तक सामाजिक न्याय शब्द को प्रमुखता मिली जब इसका प्रयोग शहरी मजदूर बन चुके विस्थापित किसानों के नए समूह ने अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए शासक वर्ग के समक्ष अपील के लिए किया। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में सामाजिक न्याय के बारे में सिद्धांत निर्माण प्रमुख विषय बन गया था। सन् 1900 में न्यूयॉर्क में सोशल जस्टिस नाम से पहली पुस्तक आई। इसके लेखक वेस्टल विलौबी टी.एच ग्रीन के आदर्शवाद से प्रभावित थे। अधिकांश समकालीन राजनीतिक दार्शनिकों के लेखन में सामाजिक न्याय पर वितरणात्मक न्याय के एक पहलू के रूप में ध्यान दिया गया था।

सामाजिक न्याय का उद्देश्य पूरे समाज का भला करना है केवल एक व्यक्ति का भला करना नहीं है बल्कि सामाजिकता के आधार पर ही सामाजिक न्याय की परिभाषा सैद्धांतिक रूप से तटस्थ है। यह सभी विचारधाराओं को मानने वाले लोगों के लिए खुली विचारधारा है चाहे वह दक्षिणपंथी हो या वामपंथी हो। सामाजिक न्याय की अवधारणा किसी भी ऐसे प्रयोग से इंकार नहीं करती है जो कि इसे व्यक्तियों के गुणों से न जोड़ती हो, सामाजिक न्याय एक सद्गुण एवं व्यक्तियों का गुण है। न्याय की तुलना में सामाजिक न्याय की अवधारणा व्यापक है। सामाजिक शब्द समाज के साथ जुड़ा हुआ है जिसमें सामाजिक मुद्दे ही एक प्रमुख समस्या है। इसमें सुधार शामिल होते हैं, इसके चलते ही सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन हो पाते हैं। कानून के माध्यम से ही समाज में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन को लाया जा सकता है। सामाजिक न्याय का उद्देश्य राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक लोकतंत्र का निर्माण करना है तथा समाज से वर्ग एवं जाति के भेदभाव को समाप्त करना है। इसमें यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि समाज को किस प्रकार से व्यवस्थित किया जाना चाहिए और सामाजिक मूल्यों और संरचनाओं को किस प्रकार से होना चाहिए।

सामाजिक न्याय का मूल आधार है कि समाज के वंचित शोषित एवं दलित लोगों को शोषण से मुक्ति दिलाई जाए। इसका उद्देश्य है कि मानवता द्वारा सामाजिक और आर्थिक शोषण व भेदभाव जैसे पारंपरिक बंधनों से स्वतंत्रता दिलवाई जाए। सामाजिक न्याय का यह विचार संयुक्त राष्ट्र की 1948 की घोषणा में परिकल्पित मानव अधिकारों एवं भारत के संविधान में शामिल मौलिक अधिकारों से जुड़ा हुआ है लेकिन यह उसके समान नहीं है। मौलिक अधिकार का अर्थ होता है स्वतंत्रता या समता के अधिकार, शोषण के विरूद्ध अधिकार, संवैधानिक उपायों के अधिकार से इन सभी से मानव के व्यक्तित्व को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष बनाने का प्रयास करना। यदि यह सभी समाज में सामाजिक न्याय के स्वरूप को प्रभावित करते हैं तो इन्हें नियंत्रित या सीमित किए जाने की भी आवश्यकता पड़ सकती है। सामाजिक न्याय में समता, स्वतंत्रता एवं सम्मान जुड़े हुए हैं। ये तीनों ही सामाजिक न्याय की पूर्ति के लिए अत्यंत ही आवश्यक हैं और यदि हम इनमें से एक को भी अनदेखा करेंगे तो यह सामाजिक न्याय को पूरा नहीं कर सकेगा। अम्बेडकर का मानना था कि स्वतंत्रता का सृजन करने वाली तीन अनिवार्य शर्तें इस प्रकार से हैं–

  • सामाजिक समानता
  • आर्थिक समानता
  • ज्ञान का होना

अम्बेडकर ने यह देखा कि समाज में किस प्रकार से छुआछूत बहुत ही व्यापक स्तर पर फैला हुआ था, यहां तक कि ब्रिटिश सरकार ने भी अछूतों की हालात में सुधार के लिए कोई कार्य नहीं किया था। साथ ही दलितों के राजनीतिक अधिकारों को भी नकार दिया गया था। इसके संबंध में अम्बेडकर ने कहा कि …

  • इस प्रकार से समाज का समाजीकरण किया जाए कि अछूतों को अपने निम्न सामाजिक स्तर की शिकायत न हो।
  • निम्न जाति को इस तरह से सोचने के लिए मजबूर किया जाता है कि वे निचले तबके में पैदा हुए हैं इसलिए उनकी किस्मत के साथ कुछ नहीं हो सकता।
  • निम्न जाति के लोगों को इस बात का विश्वास दिलाया जाता है कि जो कुछ उन्हें मिला है उससे अधिक बेहतर व्यवहार पर उन्हें जोर देने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है।
  • अन्य जातियों द्वारा अछूतों के साथ कम सम्मान के साथ व्यवहार किया जाता था यहाँ तक कि अछूतों को अपने उत्तम भविष्य के सपने देखने की अनुमति नहीं होती थी।

अम्बेडकर ने इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को उजागर करने और अमानवीय अन्याय से अछूतों को मुक्त कराने की शपथ ली। इस असहायपन के चलते अछूतों को हिंदू समाज में दास बना दिया था और यहाँ तक कि उन्हें उनके मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा जाता था। अम्बेडकर का कहना था कि अछूतों में मूर्खता एवं सहनशीलता के कारण ही वे लोग उच्च जाति द्वारा अन्याय को सहन कर रहे थे। उन लोगों में जागरूकता न होने के कारण ही उन्होंने अपनी स्थिति को असहायपन की बना लिया था। भारतीय समाज में न्याय को वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखा गया था, जिसके संदर्भ में अम्बेडकर का मानना था कि यह न्याय की ऐसी अवधारणा है जिसमें सामाजिक अभिक्रम के द्वारा तय की गई समता के बजाय अनुक्रम को वरीयता दी गई है। अम्बेडकर के अनुसार सामाजिक न्याय का मार्ग शिक्षा के द्वारा तय किया जा सकता है। केवल शिक्षा के द्वारा ही सामाजिक अन्याय को नष्ट किया जा सकता है। यह अत्यंत आवश्यक है कि उनके मन से हीन भावना को खत्म किया जाए ताकि उनका विकास अच्छे तरीके से हो सके और वे स्वयं को दूसरों का गुलाम/दास समझना छोड़ दें। अम्बेडकर का यह दृढ़ विश्वास था कि उच्च शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बगैर कुछ भी बेहतर तरीके से हासिल नहीं हो सकता।

अम्बेडकर का मानना था कि लोकतंत्र का उद्देश्य वास्तव में पूरे तरीके से समाज का व्यवहारिक हित होता है न कि केवल किसी विशेष वर्ग, समूह, समुदाय या जाति के हित की रक्षा करना। अम्बेडकर के सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण में शासन की शक्ति का विभाजन एवं विभिन्न विभागों के कार्य के विभाजन में ठोस विचार भी शामिल हों जिसमें अधिकारों को व्यक्ति के अंदर ही स्वाभाविक रूप से अंतर्निहित मानते हैं। उनके अनुसार कानून सिर्फ एक वैधानिक कार्य नहीं होता बल्कि यह पूरे समाज एवं राष्ट्र के पूरे जीवन को भी नियंत्रित करता है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि अम्बेडकर के सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण में राष्ट्रवाद भी शामिल है। उनका कहना है कि राष्ट्रवाद एक ऐसा सत्य है जिससे न तो बचा जा सकता है और न ही इसे नकारा जा सकता है। सामाजिक न्याय के प्रति उनका दृष्टिकोण मानवतावादी और राष्ट्रवादी था। वे न केवल विदेशी प्रभुत्व से स्वतंत्रता चाहते थे बल्कि उन लोगों के लिए आंतरिक स्वतंत्रता भी चाहते थे जो इससे वंचित रह गए थे।

अम्बेडकर का मानना था कि केवल भाईचारे द्वारा ही अराजकता को रोका जा सकता है। केवल व्यक्तिवाद द्वारा अराजकता उत्पन्न होती है। इस कारण से ही अम्बेडकर सामाजिक न्याय के मुख्य घटक स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे को मानते हैं। भारतीय समाज की व्यवस्था व समस्याओं के बारे में अम्बेडकर पूरी तरह से अवगत थे इसलिए उन्होंने सामाजिक न्याय की अवधारणा में निम्नलिखित चीजों को शामिल किया है-

  • सभी व्यक्तियों को एकता और समानता प्राप्त हो।
  • पुरुषों एवं महिलाओं को समान मूल्य मिलें।
  • कमज़ोर और निचले तबके को सम्मान प्राप्त हो।
  • मानव अधिकारों पर बल दिया जाए।
  • सभी लोगों के प्रति उदारता, प्रेम, सहानुभूति, सहिष्णुता का भाव हो।
  • जातिगत भेदभाव का उन्मूलन हो।
  • सभी मामलों में मानवीय व्यवहार किया जाए।
  • सभी को शिक्षा और संपत्ति का अधिकार प्राप्त हो।
  • सभी नागरिकों की गरिमा की ओर ध्यान दिया जाए।

अम्बेडकर का सामाजिक दृष्टिकोण उनके शब्दों से उजागर होता है। अम्बेडकर भारतीय समाज की दयनीय स्थिति और महिलाओं की स्थिति से पूरी तरह से अवगत थे। उन्होंने विशेष रूप से महिलाओं के उत्थान की भी कोशिश की। भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय की अवधारणा शामिल है। इस भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में अम्बेडकर ने सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्था का जो सपना देखा था उसे साकार करने का उन्होंने प्रयास किया। भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय पूर्ण रूप से परिभाषित तो नहीं है। यह एक संबंधित अवधारणा है जो समय और परिस्थितियों के साथ निर्मित की गई है यह सामाजिक न्याय भारतीय संविधान में प्रस्तावना, राज्य के नीति निर्देशक तत्वों द्वारा स्पष्ट रूप से दी गई है। अम्बेडकर के अनुसार केवल सामाजिक न्याय समाज के सभी लोगों की सामाजिक सामंजस्य सामाजिक स्थिति और देशभक्ति की भावना का नेतृत्व कर सकता है। अम्बेडकर ने सामाजिक न्याय के सिद्धांत के संदर्भ में निम्नलिखित बात की हैं :

  • कानूनी शिक्षा

अम्बेडकर ने कानूनी शिक्षा में सामाजिक न्याय की आवश्यकता पर बल दिया है और इस कानूनी पेशे में हाशिए के समूह की भागीदारी और स्वयं के प्रतिनिधित्व की आवश्यकता पर अधिक बल दिया है।

  • भू-स्वामित्व

संविधान सभा में बहस के दौरान संपत्ति के उन्मूलन और मध्यस्थों को ज़म्मीदारी प्रणाली से हटाने के सवाल पर अम्बेडकर ने कहा कि भूमि संपत्ति विशेष रूप से मौलिक अधिकार नहीं है और भूमि पर अधिकार की बात को सामाजिक न्याय के सिद्धांतों से विनियमित किया जाना चाहिए।

  • धर्म

अम्बेडकर का कहना था कि हिंदू धर्म की धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि आप इसके आदर्श स्वरूप को वास्तविक रूप देने के लिए आगे नहीं जा सकते क्योंकि वास्तविक स्थिति बदतर है। हिंदू सामाजिक प्रणाली को यदि देखा जाए और इसे सामाजिक उपयोगिता या सामाजिक न्याय के बिंदु से जांचा जाए तो यह एक ऐसा धर्म है जिसका उद्देश्य स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा स्थापित करना नहीं है ऐसा लगता है कि इसमें उच्च वर्ग का जन्म उत्तम जीवन जीने एवं राज करने के लिए हुआ है और दूसरों का जन्म किसी और कार्य के लिए नहीं बल्कि उनकी सेवा करने के लिए हुआ है।

  • वंचितों के लिए राजनीतिक संस्था

भारतीय समाज में सामाजिक अन्याय को दूर करने के लिए अछूतों के बीच राजनीतिक जागरूकता की आवश्यकता पर जोर देना अत्यंत ही आवश्यक है। अम्बेडकर का मानना है कि केवल राजनीतिक शक्ति से अन्याय को समाप्त किया जा सकता है। कानून बनाने की प्रक्रिया में आत्मनिर्भरता की आवश्यकता अत्यंत ही जरूरी है ताकि अस्पृश्यता के नुकसान को देखते हुए अनुसूचित जातियों के लिए अलग निर्वाचन की आवश्यकता की जाए और अनुसूचित जाति अपने स्वयं के प्रतिनिधि के माध्यम से अपने राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग दृढ़तापूर्वक कर सके।

इस तरह से अम्बेडकर के विचारों का उद्देश्य वंचितों के लिए अधिक समतापूर्ण एवं सम्मानजनक संदर्भ में सामाजिक न्याय को सुरक्षित करना था क्योंकि उनके अनुसार दलितों के कल्याण के लिए केवल राजनीतिक न्याय काफी नहीं था। उन्होंने राजनीतिक न्याय को पूरा करने के लिए पूर्व शर्त के तौर पर सामाजिक-आर्थिक न्याय पर विचार किया। उनका दृष्टिकोण सामाजिक जीवन में स्त्री एवं पुरुषों के समान अधिकार, सामाजिक प्रगति, व्यक्ति का सम्मान एवं प्रत्येक क्षेत्र में शांति व सुरक्षा के बेहतर मानदंड की उम्मीद करता है।

निष्कर्ष

अम्बेडकर के जीवन काल में अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाएं हुई थी, जिसके चलते इन सभी का प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर पड़ा। जिसके चलते ही वे दलितों एवं भारतीय समाज के वंचित वर्ग के एक प्रभावशाली नेता के रूप में उभरे। अम्बेडकर जिन चीजों से ज्यादा प्रभावित हुए थे, वे उनके साथ होने वाले अमानवीय परिस्थितियां थी जिन्होंने उन्हें सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक मामलों में समानता के अधिकार से वंचित ही किया। जाति के नाम पर जीवनभर ही उनके साथ बुरा व्यवहार किया गया। अपने बचपन के प्रारंभिक समय से ही उन्हें सामान्य व्यवहार का सामना करना पड़ाl वे कबीर पंथ के सामाजिक एकता के सिद्धांत से अत्यंत ही प्रभावित थे जिस कारण से सामाजिक एवं पारिवारिक वातावरण के अंतर ने उनके जीवन पर एक अद्भुत गहरा प्रभाव डाला।

बौद्ध धर्म के आध्यात्मिक समानता के सिद्धांतों ने उन पर गहरा प्रभाव डाला। उन्होंने सामाजिक सुधारकों के साहित्य एवं कार्यों को भी समझने का प्रयास किया, जिनमें महात्मा बुद्ध, संत कबीर, महात्मा ज्योतिबा फूले, स्वामी दयानंद सरस्वती, एम.जी रानाडे, महात्मा गांधी, महाराजा सायाजीराव गायकवाड, छत्रपति शाहूजी महाराज प्रमुख थे। अम्बेडकर महात्मा ज्योतिबा फुले से बहुत ही प्रभावित थे जिन्होंने इस बात पर अधिक बल दिया था कि जन्म से ही सभी मनुष्य समान होते हैं और भारत के लिए विदेशी शासन से स्वतंत्रता की तुलना में सामाजिक लोकतंत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। अम्बेडकर ने अपने जीवन में महिलाओं एवं अछूतों के प्रति भेदभाव के खिलाफ संघर्ष किया। भारतीय संविधान में उनके आदर्श, दर्शन, सामाजिक न्याय हेतु किए गए संघर्ष सदैव निहित रहेंगे। इस प्रकार से उनका मुख्य उद्देश्य महिलाओं और कमजोर वर्गों का उत्थान तथा उन्हें समाज की मुख्यधारा में जोड़ना था।

महत्वपूर्ण प्रश्न

  1. अम्बेडकर के सामाजिक न्याय पर विचारों की विवेचना कीजिए।
  2. ‘जाति प्रथा के विनाश’ पर अम्बेडकर के विचारों का परीक्षण कीजिए।
  3. ‘जाति प्रथा के विनाश’ के आलोक में भारत में जाति व्यवस्था पर अम्बेडकर के विचारों का विश्लेषण कीजिए।
  4. अम्बेडकर के अनुसार, सामाजिक न्याय का क्या महत्व है?
  5. पिछड़े वर्गों से संबंधित सामाजिक न्याय के बारे में अम्बेडकर के विचारों की चर्चा करें।
  6. अम्बेडकर के लिए न्याय- स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का दूसरा नाम है, विवेचना करें।

संदर्भ सूची

  • त्यागी, रूचि (सं) (2015). ‘आधुनिक भारत का राजनितिक चिंतन: एक विमर्श’, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय: दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली.
  • नागर, डॉ. पुरुषोतम (2019). आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनितिक चिंतन, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर.
  • गौतम, बलवान (सं) (2013).‘तुलनात्मक राजनितिक सिध्दांत के संदर्भ’, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय: दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली.
  • School of open learning University of Delhi, ‘Indian Political Thought-II: Paper-XIV’, New Delhi: University of Delhi.

“मुफ्त शिक्षा सबका अधिकार आओ सब मिलकर करें इस सपने को साकार”

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