प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में पुरातात्विक स्रोतों का योगदान
परिचय
बीती घटनाओं के अध्ययन को इतिहास कहते हैं। इतिहास से हम अतीत की जानकारी लेकर एवं वर्तमान से तुलना करके भविष्य की योजना तैयार कर सकते हैं। प्रत्येक देश, समाज, व्यक्ति का एक इतिहास होता है। उसका इतिहास ही उसके बारे में जानकारी देता है। इसी प्रकार प्राचीन भारत का भी एक इतिहास है। जिसकी जानकारी हमें साहित्यिक व पुरातात्विक स्रोतों से प्राप्त होती है। प्रस्तुत लेख में हम पुरातात्विक स्रोतों पर चर्चा करेगें।
पुरातात्विक स्रोतों का प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान है। भौतिक अवशेषों द्वारा अतीत के अध्ययन को ‘पुरातत्व’ कहते हैं। पुरातत्व संबंधी साक्ष्य हमें कालक्रम संबंधी समस्याओं को हल करने में सहायता प्रदान करते हैं। इन स्रोतों से प्राचीन स्थलों के समय निर्धारण में मदद मिलती है। पुरातात्विक स्रोत प्रागैतिहासिक काल संबंधित जानकारियों का एकमात्र स्रोत है। यह स्रोत भारतीय सभ्यता के विकास को जानने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं और स्मारक, भवन और अन्य पुरातात्विक स्रोतों का वैज्ञानिक अध्ययन प्राचीन भारतीय समाज एवं संस्कृति को एक स्पष्ट रूप देने में सहायता प्रदान करता है।
पुरातात्विक स्रोतों में मुख्य रूप से भौतिक अवशेष, अभिलेख, सिक्के, भवन एवं स्मारक, मूर्तियां आदि आते हैं, जो कि निम्नलिखित हैं :
- भौतिक अवशेष : पाषाणकालीन मानव के संबंध में हम उत्खननों से प्राप्त हुए अवशेषों के द्वारा ही जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। पाषाण-युगीन मनुष्य के बारे में मानव द्वारा प्रयुक्त पाषाण उपकरणों और औजारों के आधार पर ही जानकारी प्राप्त की जा सकती है। उपकरणों और औजारों के निर्माण में प्रयुक्त तकनीकी दक्षता आदि के द्वारा ही मानव के विकास क्रम को समझा जा सकता है। उत्खननों से प्राप्त मृदभांडों के अवशेषों आदि से हम मानव की विकास यात्रा को समझ सकते हैं। पुरापाषाण काल का मनुष्य हस्त कुठार, पेबुल उपकरण आदि का प्रयोग कर जानवरों का शिकार करता था और अपने जीवन का निर्वाह करता था। मध्य पाषाण काल में मनुष्य सूक्ष्म पाषाण उपकरणों के अतिरिक्त ज्यामितीय रेखाओं से युक्त मृदभांडों आदि का प्रयोग अपने जीवन निर्वाह के लिए करने लगा। इसी प्रकार नवपाषाण काल के अवशेषों और उपकरणों के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि इस काल में मनुष्य ने पशुपालन और कृषि करना आरंभ कर दिया जिससे उसकी शिकार पर निर्भरता कम हो गई, इससे मानव का जीवन पहले की अपेक्षा में अधिक व्यवस्थित हो गया।
- अभिलेख : पुरातात्त्विक स्रोतों में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान अभिलेखों का है। अभिलेख पत्थर एवं धातु की चादरों के अलावा स्तूपों, मंदिर की दीवारों, मुहरों, ईंटों और मूर्तियों आदि पर भी खुदे हुए प्राप्त होते हैं। इनके अध्ययन को पुरालेखशास्त्र और अभिलेख एवं दूसरे प्राचीन दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पुरालिपि शास्त्र कहते हैं। ईसा के आरंभिक शतकों से पत्थरों के स्थान पर ताम्रपत्रों का प्रयोग (अभिलेख के लिए) आरंभ हुआ, फिर भी दक्षिण भारत में पत्थर का प्रयोग इस काम के लिए होता रहा। दक्षिण भारत में मंदिरों की दीवारों पर भारी संख्या में अभिलेख खुदे मिले हैं। आरंभ में अभिलेखों में प्राकृत भाषा का प्रयोग होता था। लगभग दूसरी शताब्दी ई . से संस्कृत का भी प्रयोग होने लगा। शक नरेश रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत में लिखा गया प्रथम अभिलेख हैं। सबसे प्राचीन अभिलेख अशोक के हैं। अशोक के अभिलेख ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरमाइक, यूनानी (ग्रीक) लिपि में मिलते हैं। अभिलेखों से उन तथ्यों की पुष्टि होती है जिनका उल्लेख साहित्य में मिलता है, जैसे पतंजलि के महाभाष्य से पता चलता है कि पुष्यमित्र शुंग ने अश्वमेघ यज्ञ किए थे। इस बात की पुष्टि उसी के वंशज धनदेव के अयोध्या अभिलेख से होती है। सातवाहन राजाओं का तो पूरा इतिहास ही अभिलेखों के आधार पर लिखा गया है। एशिया माइनर में बोगजकोई नामक स्थान पर 1400 ई.पू. का एक अभिलेख (संधिपत्र) मिला है, जिसमें इन्द्र, मित्र, वरुण, नासत्य आदि वैदिक देवताओं के नाम दिए गए हैं। इससे पता चलता है कि वैदिक आर्यों के वंशज एशिया माइनर (मध्य एशिया) में भी रहते थे। पार्सिपोलिस और बेहिस्तून अभिलेखों से ज्ञात होता है कि ईरानी सम्राट दारा (डेरियस) प्रथम ने सिन्धु नदी घाटी पर अधिकार कर लिया था। पढ़े न जा सकने वाले अभिलेखों में सबसे प्राचीन अभिलेख हड़प्पा सभ्यता की मुहरों पर हैं जो लगभग 2500 ई.पू. के हैं। इसलिए हड़प्पा सभ्यता के इतिहास निर्माण के लिए अन्य पुरातात्विक स्रोतों का प्रयोग किया जाता है।
- सिक्के : सिक्कों के अध्ययन को ‘मुद्राशास्त्र’ कहते है। प्राचीन सिक्के सोना, चांदी, तांबा, कांस्य, सीसा के प्राप्त होते हैं। पकाई गई मिट्टी के बने सिक्कों के सांचे सबसे अधिक कुषाण काल के हैं। भारत के प्राचीनतम सिक्कों पर केवल चिह्न उत्कीर्ण हैं। उन पर किसी प्रकार का कोई लेख नहीं है। इन्हें ‘आहत सिक्के’ कहते है तथा इन सिक्कों पर मछली, हाथी, साँड, पेड़, अर्द्धचन्द्र आदि की आकृतियां बनी होती थीं। बाद के सिक्कों पर तिथियां, राजाओं और देवताओं के नाम अंकित होने लगे। पांचाल के मित्र, मालव, यौधेय आदि गणराज्यों का पूरा इतिहास ही उनके सिक्कों के आधार पर लिखा गया है। हिन्द-यूनानियों के इतिहास लेखन में भी सिक्कों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। सबसे पहले हिंद यूनानियों ने ही स्वर्ण मुद्राएं जारी की। सबसे अधिक शुद्ध स्वर्ण मुद्राएं कुषाणों ने और सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएं गुप्तों ने जारी की। सबसे अधिक मुद्राएं मौर्योत्तर काल की मिली हैं, जिससे तत्कालीन अर्थव्यवस्था व व्यापार की उन्नत स्थिति का पता चलता हैं। उत्तर गुप्त काल के सिक्के कम प्राप्त हुए हैं, जिससे उस समय के व्यापार के पतन का पता चलता है।
- भवन एवं स्मारक : प्राचीन काल में मंदिरों और महलों की शैली से वास्तुकला के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है। इसके साथ ही इनसे तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक व्यवस्था की जानकारी मिलती है। मंदिरों में उत्तर भारत की कला शैली को ‘नागर’, दक्षिण भारत की कला शैली को ‘द्रविड़’ तथा दक्षिणापथ की कला शैली को ‘वेसर’ शैली कहा जाता है। वेसर शैली में नागर और द्रविड़ शैलियों का मिश्रण है।
- मूर्तियां : मूर्तियां धार्मिक आस्थाओं, कला के विकास आदि का प्रतीक होती हैं। कुषाण की मूर्तिकला में विदेशी प्रभाव अधिक है। गुप्तकाल की मूर्तिकला में अन्तरात्मा और मुखाकृति में सामंजस्यता दिखाई पड़ती है तथा गुप्तोत्तर काल की इस कला में सांकेतिकता अधिक है। इसी प्रकार बोधगया, सांची, अमरावती,भरहुत आदि की मूर्तिकला तत्कालीन समाज का चित्रण प्रस्तुत करती है।
- चित्रकला : चित्रकला से हमें तत्कालीन समाज की जानकारी प्राप्त होती है। उदाहरणस्वरूप अजंता की चित्रकला में ‘माता और शिशु’ तथा ‘मरणासन्न राजकुमारी’ जैसे चित्रों में शाश्वत भावों की अभिव्यक्ति की गई है। इन चित्रों से गुप्त काल की कलात्मक उन्नति की जानकारी मिलती है।
निष्कर्ष
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि पुरातात्विक साक्ष्य हमारे इतिहास निर्माण में बहुत सहायक है। यह साक्ष्य उन कालखंडों की घटनाओं पर भी जानकारी प्रदान करते हैं, जिनके विषय में हमें साहित्यिक साक्ष्यों से कोई जानकारी नहीं मिलती है। पुरातात्विक साक्ष्यों की मदद से हम प्राचीन भारत के इतिहास को पहले की अपेक्षा अधिक तर्कपूर्ण ढंग से जान सकते हैं, क्योंकि पुरातात्विक साक्ष्य से हम लेखकों के स्वयं के दृष्टिकोण व रूचि की काल्पनिक अभिव्यक्ति को अलग कर सकते हैं। उदाहरणस्वरूप चीनी यात्रियों ने भारत का वर्णन बौद्ध दृष्टिकोण से किया है, जबकि पुरातात्विक स्रोत की ये सीमाएं नहीं हैं। ये ज्यादा सटीक जानकारी प्रदान करते हैं। अनेक संदिग्ध ऐतिहासिक विचारों का इन पुरातात्विक स्रोतों की मदद से खण्डन हुआ है। प्राचीन भारतीय इतिहास में जहां पर ऐतिहासिक साहित्य का अभाव रहा है, वहीं पर हमें पुरातात्विक अवशेषों की सहायता लेनी पड़ती है। अतः प्रागैतिहासिक भारतीय इतिहास के पुननिर्माण में इतिहासकारों को पूर्णतः पुरातात्विक सामग्री पर निर्भर रहना पड़ता है। पुरातत्व शास्त्री पुरातात्विक साधनों की मदद से प्राचीन इतिहास की एक विश्वसनीय तस्वीर पेश करने में कामयाब हुए हैं।
संदर्भ सूची
- झा, द्विजेन्द्रनारायण व श्रीमाली, कृष्णमोहन, (सं.) (1984). प्राचीन भारत का इतिहास, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय : दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
- थापर, रोमिला (2016). पूर्वकालीन भारत, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय : दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
- शर्मा, प्रो. कृष्णगोपाल व जैन, डॉ. हुकुम चंद, (2019).भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (भाग-1), राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर
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