वल्लभी का मैत्रक वंश

वल्लभी का मैत्रक वंश

परिचय

गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद (लगभग 550 ई.) भारतीय राजनीति में विकेंद्रीकरण और क्षेत्रीयता की भावना को प्रोत्साहन मिला। अनेक स्थानीय शासकों और सामन्तों ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद प्रमुख रुप से पंजाब के हूण, वल्लभी के मैत्रक, मालवा का यशोधर्मन्, कन्नौज के मौखरि, मगध और मालवा के उत्तरगुप्त आदि छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ।

मैत्रक वंश की उत्पत्ति 

मैत्रक वंश की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। यद्यपि कुछ विद्वान् उनका सम्बन्ध हूणों से जोड़ते हैं जो पहले सूर्य की पूजा करते थे। भारत में आकर उन्होंने ब्राह्मण और बौद्ध धर्मों को अपना लिया। किंतु इस विषय पर निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।

मैत्रक शासक

वल्लभी में मैत्रक वंश की स्थापना ‘भट्टार्क’ ने की, जो पूर्व में गुप्तों का एक सैनिक पदाधिकारी था।

मैत्रक वंश के आरंभिक दो शासक भट्टार्क और उसका पुत्र धरसेन प्रथम ने अपने को ‘सेनापति’ कहा। किंतु धरसेन प्रथम के उत्तराधिकारियों ने अपने को  ‘महाराज’ या ‘महासामन्त महाराज’ कहा।

मैत्रक वंश का तीसरा राजा द्रोणसिंह था। राजा द्रोणसिंह गुप्त शासक बुद्धगुप्त द्वारा ‘महाराज’ के पद पर प्रतिष्ठित किया गया।

द्रोणसिंह के बाद उसका छोटा भाई ध्रुवसेन प्रथम ‘महाराज’ बना। इन दोनों ने भूमि दान में दिये थे। ध्रुवसेन प्रथम ने अपने को ‘परमभट्टारकपादानुध्यात’ कहा है जिससे पता चलता है कि ध्रुवसेन प्रथम के समय (लगभग 545 ई.) तक वल्लभी के मैत्रक शासक गुप्तवंश की अधीनता स्वीकार करते थे।

ध्रुवसेन प्रथम के बाद महाराज धरनपट्ट और फिर गुहसेन राजा बने। गुहसेन के दान-पत्रों में ‘परमभट्टारकपादानुध्यात’ का प्रयोग नहीं हुआ है, जिससे ज्ञात होता है कि लगभग 550 ई. में मैत्रक वंश गुप्त सम्राटों की अधीनता से स्वतंत्र हो गए थे।

गुहसेन के पश्चात उसका पुत्र धरसेन द्वितीय (571-590 ई.) तथा फिर धरसेन द्वितीय का पुत्र शिलादित्य प्रथम ‘धर्मादित्य’ (606-612 ई.) मैत्रक वंश में राजा बना।  

चीनी यात्री हुएनसांग मो-ला-पो (मालवा) के राजा विक्रमादित्य का उल्लेख करता है जो एक बौद्ध था। इस विक्रमादित्य का समीकरण विद्वान मैत्रक वंशी शिलादित्य प्रथम से करते हैं। जिससे ज्ञात होता है कि इस समय तक मैत्रकों का राज्य सम्पूर्ण गुजरात, कच्छ, पश्चिमी मालवा तक विस्तृत हो गया था। इस तरह वल्लभी पश्चिमी भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य बन गया था।

हुएनसांग शिलादित्य के शासन की प्रशंसा करता है। हुएनसांग के अनुसार शिलादित्य एक योग्य और उदार शासक था। उसने एक बौद्ध मन्दिर का निर्माण करवाया था। उसके शासन में प्रतिवर्ष विशाल धार्मिक समारोह का आयोजन होता था जिसमें सभी भागों के बौद्ध विद्वान् भाग लेते थे।

शिलादित्य प्रथम के बाद खरग्रह और फिर धरसेन तृतीय शासक हुए। धरसेन तृतीय ने लगभग 623 ई. तक शासन किया। इसके बाद ध्रुवसेन द्वितीय ‘बालादित्य’ शासक बना।

ध्रुवसेन द्वितीय हर्ष का समकालीन था। उसी के काल में हुएनसांग भारत आया था। हुएनसांग के अनुसार ‘वह उतावले स्वभाव तथा संकुचित विचार’ का व्यक्ति था, किंतु बौद्ध धर्म में उसका विश्वास था। वह महाराज हर्ष का दामाद था। ध्रुवसेन द्वितीय का अन्य नाम ध्रुवभट्ट भी मिलता है। उसने हर्ष के प्रयाग तथा कन्नौज के धार्मिक समारोहों में भाग लिया था। ध्रुवसेन द्वितीय ने लगभग 629 ई. से 640-41 ई. तक शासन किया।

ध्रुवसेन द्वितीय के बाद उसका पुत्र धरसेन चतुर्थ (646-650 ई.) शासक बना। मैत्रक वंश का यह प्रथम शासक था जिसने परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, चक्रवर्त्तिन् आदि उपाधियाँ धारण की थीं। उसने गुर्जर प्रदेश (भड़ौच) पर अधिकार कर लिया था। मैत्रक वंश का अन्तिम ज्ञात शासक शिलादित्य सप्तम था जो 766 ई. में शासन कर रहा था। इस प्रकार आठवीं शती के अन्त तक वल्लभी का मैत्रक वंश स्वतन्त्र रूप से शासन करता रहा। अन्ततः अरब आक्रमणकारियों ने मैत्रक वंश के शासक की हत्या कर वल्लभी को पूर्णतया नष्ट कर दिया।

धर्म और शिक्षा

मैत्रक शासक बौद्ध धर्म में आस्था रखते थे और उन्होंने बौद्ध विहारों को दान दिया। उनके शासन काल में वल्लभी शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ एक विश्वविद्यालय था जिसकी पश्चिमी भारत में वहीं ख्याति थी जो पूर्वी भारत में नालन्दा विश्वविद्यालय की थी। सातवीं शताब्दी के चीनी यात्री इत्सिंग ने इस शिक्षा केन्द्र का उल्लेख किया है। उसके अनुसार यहाँ 100 विहार थे जिनमें 6000 भिक्षु रहते थे।

देश के विभिन्न भागों से छात्र यहाँ शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते थे। यहाँ पर अर्थशास्त्र, साहित्य, धर्म, न्याय आदि विविध विषयों की शिक्षा दी जाती थी। सातवीं शताब्दी में यहाँ के प्रमुख आचार्य स्थिरमति तथा गुणमति थे। यहाँ पर्याप्त बौद्धिक स्वतन्त्रता और धार्मिक सहिष्णुता थी। यहाँ के शिक्षित छात्र ऊँचे- ऊँचे प्रशासनिक पदों पर भी नियुक्त किये जाते थे। इस विश्वविद्यालय का विनाश वल्लभी राज्य के साथ ही अरब आक्रमणकारियों द्वारा कर दिया गया। वल्लभी व्यापार और वाणिज्य का भी प्रमुख केन्द्र था।

“मुफ्त शिक्षा सबका अधिकार आओ सब मिलकर करें इस सपने को साकार”

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