बादामी (वातापी) का चालुक्य वंश | Chalukya dynasty of Badami (Vatapi) in Hindi

बादामी (वातापी) का चालुक्य वंश

(Chalukya dynasty of Badami (Vatapi))

परिचय (Introduction)

बादामी (वातापी) के चालुक्य वंश का उदय आधुनिक कर्नाटक राज्य के बीजापुर जिले में स्थित बादामी (वातापी) नामक स्थान था। इस शाखा को ‘पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य’  भी कहा जाता है। छठीं शताब्दी ई. के मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक दक्षिणापथ पर बादामी (वातापी) का चालुक्य वंश का शासन रहा।

इतिहास के स्रोत (Sources of History)

बादामी के चालुक्य वंश के इतिहास का प्रमुख स्रोत अभिलेख हैं, जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुलकेशिन् द्वितीय का ऐहोल अभिलेख है। इस अभिलेख में मुख्यतः पुलकेशिन् द्वितीय की उपलब्धियों का उल्लेख किया गया है। इस अभिलेख में पुलकेशिन् द्वितीय के पूर्व का चालुक्य इतिहास और पुलकेशिन् द्वितीय के समकालीन मालवा, गुर्जर, लाट आदि के शासकों के विषय में भी जानकारी प्राप्त होती है। हर्षवर्धन के साथ पुलकेशिन् द्वितीय के युद्ध पर भी इस अभिलेख से जानकारी प्राप्त होती है।

बादामी के अभिलेख में  ‘बल्लभेश्वर’  (संभवतः पुलकेशिन् प्रथम) चालुक्य शासक का उल्लेख मिलता है, जिसने बादामी के किले का निर्माण करवाया था। इसी प्रकार महाकूट लेख में चालुक्य वंश की प्रशंसा की गयी है और चालुक्य शासकों की बल, साहस, बुद्धि, दानशीलता, कीर्तिवर्मन् प्रथम की विजयों आदि की जानकारी प्राप्त होती है। हैदराबाद अभिलेख के अनुसार पुलकेशिन् द्वितीय ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की और ‘परमेश्वर’ की उपाधि धारण की।

बादामी के चालुक्य वंश के इतिहास का अन्य महत्वपूर्ण स्रोतों में नौसारी, गढ़वाल, रायगढ़, कर्नूल, तलमंचि, पट्टडकल आदि स्थानों के ताम्रपत्र और अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इनसे चालुक्यों का कांची के पल्लवों के साथ संघर्ष और पुलकेशिन् द्वितीय के बाद के शासकों की उपलब्धियों की जानकारी प्राप्त होती है।

ईरानी इतिहासकार ताबरी के विवरण से ईरानी शासक खुसरो द्वितीय और पुलकेशिन् द्वितीय के बीच राजनयिक सम्बन्धों की जानकारी प्राप्त होती है। इसी प्रकार चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से पुलकेशिन् द्वितीय और उसके राज्य की जनता की स्थिति के बारे में पता चलता है।

उत्पत्ति (Origin)

बादामी के चालुक्य वंश की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। बादामी अभिलेख में इस वंश को हारिती पुत्र और मानव्य गोत्रीय कहा है। कालान्तर में बादामी के चालुक्य शासक अपने को चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहा है।

संभवतः बादामी के चालुक्य शासक स्वदेशी क्षत्रिय ही थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी पुलकेशिन् द्वितीय को क्षत्रिय कहा है।

डी. सी. सरकार का मत है कि बादामी के चालुक्य कन्नड़ कुल से संबंधित थे और इस वंश का संस्थापक चलुक या चल्क था।

संभवतः  राष्ट्रकूट, कदम्ब आदि के समान बादामी के चालुक्य शासक भी किसी स्थानीय कुल से संबंधित थे। वे आरम्भ में कदम्ब शासकों की अधीन थे, किंतु कालान्तर में अपनी शक्ति बढ़ाकर उन्होंने स्वतंत्र सत्ता स्थापित की।

शासक (Ruler)

पुलकेशिन् प्रथम – बादामी के स्वतंत्र चालुक्य वंश का संस्थापक पुलकेशिन् प्रथम को माना जाता है। महाकूट अभिलेख में उसके पूर्व दो शासकों जयसिंह और रणराग के नाम मिलते हैं। संभवतः ये दोनों शासक (जयसिंह और रणराग) कदम्ब शासकों की अधीनता में बादामी में शासन करते थे। पुलकेशिन् प्रथम रणराग का पुत्र था तथा पुलकेशिन् प्रथम ने लगभग 535 ई. से 566 ई. तक शासन किया।

पुलकेशिन् प्रथम ने वातापी में एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया और उसे अपनी राजधानी बनायी। उसने वातापी के आस-पास क्षेत्र को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। ऐहोल अभिलेख से उसके वातापी के ऊपर अधिकार करने और अश्वमेध यज्ञ करने की जानकारी प्राप्त होती है।

पुलकेशिन् प्रथम ने सत्याश्रय और रणविक्रम आदि उपाधियाँ धारण कीं। महाकूट अभिलेख में उसकी तुलना विष्णु से करते हुए उसे वृद्धों की राय मानने वाला और ब्राह्मणों का आदर करने वाला शासक कहा गया है।

कीर्त्तिवर्मन् प्रथम पुलकेशिन् प्रथम के दो पुत्र थे – कीर्त्तिवर्मन् प्रथम और मंगलेश। पुलकेशिन् प्रथम की मृत्यु के बाद कीर्त्तिवर्मन् प्रथम शासक बना और उसने लगभग 567 ई. से 597-98 ई. तक शासन किया।

उसके पुत्र पुलकेशिन् द्वितीय के ऐहोल अभिलेख के अनुसार उसने कोंकण के मौर्य, बनवासी के कदम्ब और वल्लरी-कर्नूल क्षेत्र के नलवंशी शासकों को पराजित कर उनके राज्यों को जीत लिया था।

मंगलेश के महाकूट अभिलेख में कीर्त्तिवर्मन् प्रथम को पाण्ड्य, चोलिय, वैजयन्ती, बंग, अंग, कलिंग, मगध, मद्रक, केरल, गंग, मूषक, आदि शासकों का विजेता कहा गया है।

उसके विस्तृत साम्राज्य में आधुनिक महाराष्ट्र, कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश के भूभाग शामिल थे। उसने सत्याश्रय, पृथ्वीवल्लभ आदि उपाधियाँ ग्रहण की। उसे ‘वातापी का प्रथम निर्माता’ भी कहा गया है।

मंगलेश – कीर्तिवर्मन प्रथम की मृत्यु के समय उसका पुत्र पुलकेशिन द्वितीय अल्पवयस्क था। अतः उसके छोटे भाई मंगलेश ने पुलकेशिन द्वितीय के संरक्षक के रूप में शासन किया। मंगलेश ने 597-98 ई. से 610 ई. तक शासन किया।

इसके दो अभिलेख प्राप्त होते है- ‘नेनूर दानपत्र’ और ‘महाकूट स्तम्भ लेख’। इन दोनों अभिलेखों से पता चलता है कि उसने उत्तर भारत में सर्वप्रथम – गुजरात, खानदेश और मालवा के कलचुरि शासक बुद्धराज को युद्ध में पराजित किया।

मंगलेश की दूसरी प्रमुख सफलता- कोंकाण प्रदेश की थी। कीर्तिवर्मन प्रथम की मृत्यु के पश्चात् कोंकण प्रदेश के गवर्नर स्वामिराज ने विद्रोह कर दिया था। मंगलेश की सेना ने नावों का एक पुल पार कर रेवती द्वीप (गोवा) पर आक्रमण किया और सफलतापूर्वक स्वामिराज के विद्रोह का दमन किया तथा ध्रुवराज को गवर्नर नियुक्त किया। अतः मंगलेश महान विजेता और साम्राज्य निर्माता था।

मंगलेश वैष्णव धर्म का मतानुयायी होने के कारण उसे ‘परमभागवत’ कहा गया है। उसने कीर्तिवर्मन प्रथम द्वारा आरम्भ किये गये वातापी के ‘महाविष्णु ग्रह’ नामक गुहा मन्दिर का निर्माण किया। उसने श्रीपृथ्वीवल्लभ, रणविक्रान्त और उरूरणविक्रान्त आदि उपाधियाँ धारण की।

मंगलेश के शासन के अन्तिम चरण में उसमें और उसके भतीजे पुलकेशिन द्वितीय के मध्य उत्तराधिकार के लिए संघर्ष हुआ, जिसमें मंगलेश मारा गया तथा पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का शासक बना। इसकी जानकारी पुलकेशिन द्वितीय के ‘ऐहोल अभिलेख’ से प्राप्त होती है।

पुलकेशिन् द्वितीय – इसने अपने चाचा मंगलेश को युद्ध में परास्त कर वातापी के चालुक्य वंश की सत्ता प्राप्त की। पुलकेशिन् द्वितीय ने 610 ई. से 642 ई. तक शासन किया।

पुलकेशिन् द्वितीय और मंगलेश के बीच होने वाले गृहयुद्ध के कारण चालुक्य राज्य में चारों ओर अराजकता और अव्यवस्था फैल गयी, जिसका लाभ उठाकर स्थानीय सामन्तों ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया, किंतु पुलकेशिन द्वितीय ने इन सभी पर सफलता प्राप्त की और साम्राज्य में अपना नियंत्रण सुनिश्चित किया।

पुलकेशिन् द्वितीय की उपलब्धियां – पुलकेशिन् द्वितीय की उपलब्धियों की जानकारी मुख्यतः ऐहोल लेख से प्राप्त होती है। सर्वप्रथम उसने भीमरथी नदी के उत्तर में आप्पायिक को पराजित किया और उसके सहयोगी गोविन्द को अपनी ओर मिला लिया। संभवतः ये दोनों दक्षिणी महाराष्ट्र के स्थानीय शासक थे। इन दोनों को पराजित कर पुलकेशिन् द्वितीय ने राजधानी में अपनी स्थिति मजबूत कर ली। तत्पश्चात् उसने अपना विजय अभियान आरम्भ किया।

पुलकेशिन् द्वितीय ने राजधानी में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद अपना अगला अभियान कदम्बों के विरुद्ध किया।

कदम्बों के राज्य पर कीर्त्तिवर्मा के समय में ही चालक्यों का अधिकार हो गया था। संभवतः मंगलेश और पुलकेशिन् द्वितीय के बीच हुए गृहयुद्ध से चालुक्य राज्य में जो राजनैतिक अव्यवस्था फैली उसका लाभ उठाते हुए कदम्बों ने अपने को चालुक्यों की अधीनता से स्वतंत्र कर लिया। अतः पुलकेशिन् द्वितीय ने कदम्बों पर आक्रमण कर उसकी सेना ने बनवासी नगर को घेर लिया और उन्हें परास्त कर दिया। इस प्रकार कदम्ब राज्य की स्वतंत्रता का अन्त हुआ और इसे चालुक्य राज्य में मिला लिया गया। पुलकेशिन् द्वितीय ने कदम्ब राज्य को अपने सामन्तों आलुपों और सेन्द्रकों में बांट दिया।

इसके बाद पुलकेशिन् द्वितीय ने आलुपों और गंगों के विरुद्ध अभियान किया। संभवतः आलुप कदम्बों के सामन्त थे और कदम्बों की पराजय के बाद उन्होंने पुलकेशिन् द्वितीय की अधीनता स्वीकार कर ली। तत्पश्चात् पुलकेशिन् द्वितीय ने गंगनरेश दुर्वीनीत को अपनी अधीनता मानने के लिये मजबूर कर दिया। उसने अपनी पुत्री का विवाह पुलकेशिन् द्वितीय के साथ कर दिया।

आलुप और गंगों को जीतने के बाद पुलकेशिन् द्वितीय ने कोंकण प्रदेश पर आक्रमण किया। यहाँ मौर्यों का शासन था, जिन्हें पुलकेशिन द्वितीय ने पराजित किया और उनके क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया।

ऐहोल अभिलेख के अनुसार पुलकेशिन् द्वितीय ने लाट, मालव और गुर्जर प्रदेशों को भी जीत लिया था। इसके बाद पुलकेशिन् द्वितीय और हर्ष के बीच नर्मदा नदी के तट पर युद्ध हुआ, जिसमें हर्ष की पराजय हुई। इस घटना की जानकारी पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख और चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से प्राप्त होती है।

हर्ष पर विजय के पश्चात् पुलकेशिन् द्वितीय ने 99 हजार गाँवों वाले ‘त्रिमहाराष्ट्रकों’ (संभवतः महाराष्ट्र, कोंकण और कर्नाटक का क्षेत्र) पर अधिकार किया। पुलकेशिन् द्वितीय ने अपने छोटे भाई विष्णुवर्धन को ‘युवराज’ नियुक्त कर पूर्वी दक्कन का विजय अभियान शुरू किया ।

पुलकेशिन् द्वितीय ने पूर्वी दक्कन पर विजय  अभियान में सर्वप्रथम दक्षिणी कोशल के पाण्ड्य राजा और कंलिंग के गंग शासक को पराजित किया। इसके बाद पुलकेशिन् द्वितीय ने वेंगी क्षेत्र (पिष्टपुर- आन्ध्रप्रदेश) के विष्णु कुण्डिन वंशीय शासक को कुनाल (कोल्लेर) झील के किनारे पराजित किया।

पूर्वी दक्कन पर विजय अभियान के बाद पल्लव चालुक्य संघर्ष का आरंभ हुआ। पल्लवों का शासन आन्ध्र के दक्षिण में स्थित था और तत्कालीन पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन प्रथम था। पुलकेशिन् द्वितीय ने पल्लव राज्य के उत्तरी भाग पर आक्रमण किया और पुल्ललुर तक घुस गया, किन्तु इस संघर्ष में पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन प्रथम अपनी राजधानी कांची को बचाने में सफल रहा। पल्लवों के साथ चालुक्यों का यह प्रथम संघर्ष 630 ई. में हुआ। इससे लम्बे समय तक चलने वाले पल्लव – चालुक्य संघर्ष  आरंभ हुआ।

630 ई. के ‘लोहनेर अभिलेख’ में पुलकेशिन् द्वितीय को ‘पूर्वी और पश्चिमी समुद्र का अधिपति कहा गया है। उसने पाण्ड्य, चोल और चेर राज्यों को भी अपने अधीन किया।

पल्लवों के विरूद्ध अपनी शुरुआती सफलताओं से उत्साहित होकर पुलकेशिन् द्वितीय ने पुनः कांची पर आक्रमण की योजना बनाई। पुलकेशिन् द्वितीय अपनी सेना लेकर पल्लव राज्य पर आक्रमण किया और कांची के निकट पहुँच गया। इस समय पल्लव वंश का शासक नरसिंह वर्मन प्रथम था। उसे चालुक्य शासक पुलकेशिन् द्वितीय के विरूद्ध संघर्ष में लंका के राजकुमार ‘मानवर्मन’ ने मदद की।

नरसिंह वर्मन ने पुलकेशिन् द्वितीय को क्रमशः परियल, मणिमंगल और शूरमाल के युद्धों में (तीनों ही पल्लव क्षेत्रों में स्थित) पराजित किया। नरसिंह वर्मन ने अपनी विजयों से प्रोत्साहित होकर चालुक्यों की राजधानी वातापी पर 642 ई. में आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। पुलकेशिन द्वितीय युद्ध में लड़ता हुआ मारा गया।

विक्रमादित्य प्रथम – पुलकेशिन् द्वितीय के पुत्र विक्रमादित्य प्रथम ने अपने नाना गंगनरेश दुर्विनीत की मदद से 655 ई. में अपने पैतृक राज्य पर पुनः अधिकार कर शान्ति और व्यवस्था स्थापित की। विक्रमादित्य प्रथम ने 655 ई. से 681 ई. तक शासन किया।

उसने पल्लव शासक नरसिंह वर्मन प्रथम को पराजित कर वातापी पर अधिकार कर लिया और ‘परमेश्वर’ की उपाधि ग्रहण की। विक्रमादित्य प्रथम को तीन पल्लव शासकों (नरसिंह वर्मन प्रथम, महेन्द्र वर्मन द्वितीय और परमेश्वर वर्मन प्रथम ) से संघर्ष करना पड़ा, किंतु किसी भी पक्ष को कोई विशेष लाभ प्राप्त नही हुआ। इसके बाद लगभग 50 वर्षों तक पल्लव चालुक्य संघर्ष रूका रहा। विक्रमादित्य प्रथम ने श्रीपृथ्वीवल्लभ, राजमल्ल, सत्याश्रय, परमेश्वर आदि उपाधियों धारण की।

विनयादित्य – विक्रमादित्य प्रथम के बाद उसका पुत्र विनयादित्य शासक बना। विनयादित्य ने 681 ई. से 696 ई. तक शासन किया।

उसके अभिलेखों में उसे पल्लव, कलभ्र, केरल, चोल, पाण्ड्य आदि राज्यों पर विजय का श्रेय दिया गया है। रायगढ़ अभिलेख के अनुसार उसने कावेर, पारसीक और सिंहल आदि द्वीपों के शासकों से कर प्राप्त किया। यह भी कहा गया है कि उसने उत्तरी भारत अभियान किया और वहाँ के शासक से पालिध्वज (राज्य पताका) प्राप्त किया। किंतु ये सारे तथ्य कल्पित लगते है। उसने सम्भवत: मालवा के शासक वज्रट को पराजित किया था। विनयादित्य ने परमेश्वर, भट्टारक, सत्याश्रय, युद्धमल्ल, महाराजाधिराज आदि उपाधि धारण की।

विजयादित्य – विनयादित्य के बाद उसका पुत्र विजयादित्य शासक बना। विजयादित्य ने 696 ई. से 733 ई. तक शासन किया। वह अपने पिता के समय से ही कई युद्धों मे भाग ले चुका था। उसके रायगढ़ लेख के अनुसार उसने अपने पिता को गंगा यमुना की मूर्तियों, पालिध्वज, ढक्का, पंचमहाशब्द, पद्मरागमणि आदि भेंट में दिये। 730-31 ई. के उच्छल प्रस्तर लेख से पता चलता है कि उसने पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय के नेतृत्व में कांची के पल्लव से पुनः संघर्ष छेड़ा और पल्लव नरेश परमेश्वरमर्वन द्वितीय को पराजित कर कांची पर अधिकार कर लिया।

विजयादित्य ने पट्टडकल में विशाल शिव मंन्दिर का निर्माण करवाया। उसके समय कर्नाटक क्षेत्र में जैन धर्म की उन्नति हुई। विजयादित्य ने श्रीपृथ्वीवल्लभ, भट्टारक, महाराजाधिराज, सत्याश्रय, परमेश्वर, समस्त भुवनाश्रय, परमभट्टारक आदि उपाधियाँ धारण की।

विक्रमादित्य द्वितीय – विजयादित्य के बाद उसका पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय शासक बना। विक्रमादित्य द्वितीय ने 733 ई. से 747 ई. तक शासन किया। इसके शासन काल के प्रथम वर्ष में अरबों  का दक्षिण पर आक्रमण हुआ। इसकी जानकारी लाट प्रदेश में विक्रमादित्य के सामन्त व भतीजे पुलकेशिन के नौसारी दानपत्र (739 ई.) से मिलती है। अरबों ने नौसारी पर अधिकार किया किंतु पुलकेशिन ने उनको गुर्जर क्षेत्र से बाहर खदेड़ दिया और उनके कुछ प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया। इससे प्रसन्न होकर विक्रमादित्य द्वितीय ने उसे ‘अवनिजनाश्रय’ (पृथ्वी के लोगों का शरण दाता) की उपाधि प्रदान की।

अरबों के आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना करने के बाद उसका कांची के पल्लवों के साथ संघर्ष आरंभ हुआ। नरवण, केन्दुर और पट्टडकल के लेखों में विक्रमादित्य द्वितीय के समय हुए पल्लव चालुक्य संघर्ष की जानकारी मिलती हैं। विक्रमादित्य द्वितीय ने पल्लव शासक नन्दिवर्मन द्वितीय को पराजित किया। उसने कांची में प्रवेश किया और उसको क्षति न पहुँचाते हुए दीन दुखियों व ब्राह्मणों को दान दिया और ‘कांचीकोण्ड’ (कांची विजेता) की उपाधि धारण की।

विक्रमादित्य द्वितीय के शासन काल के अन्तिम वर्षो में उसके पुत्र कीर्तिवर्मन द्वितीय के नेतृत्व में पुनः पल्लवों के विरूद्ध अभियान किया गया और विजय प्राप्त की। इस प्रकार विक्रमादित्य द्वितीय ने कुल तीन बार (एक बार पिता के साथ, दो बार स्वयं के शासन काल में ) पल्लवों को पराजित किया। इसकी रानी ‘लोकमहादेवी’ के पट्टडकल लेख में उसके द्वारा कांची को तीन बार पराजित करने का उल्लेख मिलता है।

विजयों के अलावा निर्माण कार्यो में विक्रमादित्य द्वितीय की रूचि थी। उसकी दो महारानियां थी – लोक महादेवी और त्रैलोक्य महादेवी। ये दोनों सगी बहन और हैहय (कलचुरि) वंश कन्याएं थी।

महारानी लोक महादेवी ने पट्टडकल में लोकेश्वर शिव मन्दिर का निर्माण करवाया, जिसे ‘विरूपाक्ष मन्दिर’ भी कहा जाता है। रानी त्रैलोक्य महादेवी ने त्रैलोकेश्वर शिव मन्दिर का निर्माण करवाया। विक्रमादित्य द्वितीय ने परमेश्वर, वल्लभ दुर्जय, श्रीपृथ्वीवल्लभ आदि उपाधियाँ धारण कीं।

कीर्तिवर्मन द्वितीय – विक्रमादित्य द्वितीय के बाद उसका पुत्र कीर्तिवर्मन द्वितीय शासक बना। कीर्तिवर्मन द्वितीय ने लगभग 747 ई. से 757 ई. तक शासन किया। अपने पिता के समय में ही वह पल्लवों के विरूद्ध संघर्ष में विजय प्राप्त की, जिससे प्रसन्न होकर विक्रमादित्य द्वितीय ने इसे युवराज नियुक्त किया था।

कीर्तिवर्मन द्वितीय वातापी के चालुक्य वंश का अंतिम शासक था। चालुक्य वंश की अवनति के बीज पुलकेशिन द्वितीय के सुदूर दक्षिण के अनावश्यक अभियानों के साथ पड़ गये थे। उसके बाद चालुक्य-पल्लव वंश संघर्षो का एक ऐसा दौर लगभग 100 वर्षों तक चला, जो चालुक्य शक्ति को भीतर से कमज़ोर करता चला गया। समय – समय पर हुए उत्तराधिकार संघर्षो ने भी इनकी शक्ति को नष्ट किया। कीर्तिवर्मन द्वितीय के समय राष्ट्रकूट वंश के दन्तिदुर्ग ने मालव, कोशल, श्रीशैल और कलिंग शासकों को जीतकर अपनी शक्ति का विस्तार किया। दन्तिदुर्ग ने पल्लव शासक नन्दिवर्मन द्वितीय के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर उसे अपनी ओर मिला दिया। तत्पश्चात् उसने कीर्तिवर्मन द्वितीय पर आक्रमण कर उसे पराजित किया और उत्तरी महाराष्ट्र, गुजरात के क्षेत्रों को चालुक्यों से छीन लिया। दन्तिदुर्ग के उत्तराधिकारी कृष्ण प्रथम ने अन्तिम रूप से चालुक्य शासन का अन्त किया और कीर्तिवर्मन द्वितीय उससे युद्ध करते हुए मारा गया।

प्रशासन (Administration)

बादामी (वातापी) के चालुक्य वंश के शासन प्रबंध का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था। राजा का पद आनुवंशिक होता था।

युद्ध के अवसर पर राजा स्वयं सेना का संचालन करता था। सामान्यतः राजा के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र ही राजसिंहासन का उत्तराधिकारी होता था, किन्तु उसके अवयस्क होने की स्थिति में राजा का भाई शासन का भार ग्रहण करता था। कीत्तिवर्मन् प्रथम के भाई मंगलेश ने इसी प्रकार राजसिंहासन प्राप्त किया।

चालुक्य लेखों में किसी मन्त्रिपरिषद का उल्लेख नहीं मिलता। प्रशासन में राजपरिवार के सदस्य ही मुख्यतः शामिल थे। राजा अपने परिवार के विभिन्न सदस्यों को उनकी योग्यतानुसार प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करता था। इससे राजा को परिवार के सदस्यों का समर्थन मिल जाता था। राजा के आदेश प्रायः मौखिक होते थे, जिन्हें सचिव लिपिबद्ध कर संबंधित अधिकारियों या व्यक्तियों के पास भेज देते थे। चालुक्य लेखों में महासान्धिविग्रहिक, विषयपति, ग्रामकूट, महत्तराधिकारिन् आदि केन्द्रीय अधिकारियों के नाम प्राप्त होते हैं।

चालुक्य काल में सामन्तवाद का भी अस्तित्व था। चालुक्य शासकों ने विजित प्रान्तों में अपने अधीन सामन्तों को शासन करने का अधिकार दिया था। बाण, गंग, आलुप, सिन्द, सेन्द्रक, तेलगु, चोड आदि चालुक्यों के सामन्त थे। वे समय – समय पर राजा को कर देते थे और युद्धों के समय अपनी सेना लेकर राजा की सेवा में उपस्थित होते थे। सामन्त अपने क्षेत्रों में स्वतंत्रतापूर्वक शासन करते थे।

प्रायः सामन्त अपने नाम के आगे ‘तत्पादपद्मोपजीवी’ विरुद लगाते थे। उनकी अलग राजधानी होती थी जहाँ वे अपने दरबार लगाते थे। इनके अपने अलग मन्त्री और अन्य अधिकारी होते थे। नगर को ‘पट्टण’ या ‘पुर’ कहते थे।

राज परिवार के सदस्यों को विभिन्न भागों में राज्यपाल बनाया जाता था। ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी। ग्राम के अधिकारी को ‘गामुंड’ कहते थे। उसकी नियुक्ति केन्द्र द्वारा होती थी।

चालुक्य लेखों में महाजन नामक अधिकार का भी उल्लेख मिलता है जो ग्राम शासन में सहायता करते थे और गाँवों के प्रशासक तथा सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों पर नियंत्रण करते थे।

चालुक्य लेखों से तत्कालीन कर प्रणाली की भी जानकारी मिलती है। लक्ष्मेश्वर लेख में भूमि और आवास या घर कर की जानकारी मिलती है। जिनके पास अपने घर नहीं थे उन्हें भी अपनी स्थिति के अनुसार कर देने पड़ता था। पुलकेशिन् द्वितीय के हैदराबाद दानपत्र में उपरिकर (अधिभार), निधि, उपनिधि (निक्षेप), विलप्त (लगान का बन्दोबस्त) आदि की जानकारी प्राप्त होती है। दण्डाय जुर्माने के रूप से प्राप्त होने वाली आय को कहा जाता था।

धर्म (Religion)

चालुक्य शासक ब्राह्मण धर्मानुयायी थे और उनके कुल देवता विष्णु थे। इसके अलावा वे शिव की भी पूजा करते थे। वाराह इनका परिवारिक चिह्न था। चालुक्य शासकों के अधिकांश लेख विष्णु के वाराह अवतार की आराधना से आरम्भ होते हैं। बादामी के कुछ रिलीफ चित्रों में शेष- शय्या पर लक्ष्मी के साथ शयन करते हुए नरसिंह आदि रूपों में विष्णु का अंकन मिलता है। कुछ चालुक्य शासकों ने ‘परमभागवत’ की भी उपाधि धारण की। भगवान विष्णु और शिव के साथ अन्य पौराणिक देवी-देवताओं की पूजा का भी प्रचलन था। वैदिक यज्ञों का भी अनुष्ठान होता था और ब्राह्मणों को दान दिये जाते थे।

चालुक्य शासक ब्राह्मण धर्मानुयायी होने पर भी धार्मिक रूप से उदार थे। उनकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने दक्षिणापथ में जैन और बौद्ध धर्मों के विकास को प्रोत्साहन दिया। चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि चालुक्य राज्य में बौद्ध मठों की संख्या 100 से अधिक थी, जिनमें पाँच हजार भिक्षु निवास करते थे। इसी प्रकार चालुक्य लेखों से भी पता चलता है कि चालुक्य शासकों ने जैन साधुओं और शिक्षकों को दान दिये।

साहित्य (Literature)

चालुक्य शासकों के काल में साहित्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण प्रगति हुई। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने चालुक्य राज्य के लोगों को ‘विद्या का व्यसनी’ कहा है।

चालुक्य शासकों ने संस्कृत को अधिकारिक भाषा बनाकर उसे संरक्षण प्रदान किया। महाकूट और ऐहोल के अभिलेख क्रमशः अलंकृत गद्य एवं पद्य के विकसित होने के प्रमाण हैं। चालुक्य लेखों में संस्कृत भाषा के साथ कन्नड़ भाषा का भी प्रयोग देखने को मिलता है।

पुलकेशिन् द्वितीय के सामन्त गंगराज दुर्वीनीत ने ‘शब्दावतार’ नामक व्याकरण ग्रन्थ की रचना की और किरातार्जुनीय के पन्द्रहवें सर्ग पर टीका लिखा।

इस काल के विद्वान उदयदेव जैन मतानुयायी और व्याकरणाचार्य थे। उनका ग्रन्थ ‘जैनेन्द्र – व्याकरण’ था। विजयादित्य के एक अभिलेख से पता चलता है कि चालुक्यों की राजधानी बादामी में चौदह विद्याओं में पारंगत हजारों ब्राह्मण निवास करते थे।

कला और स्थापत्य (Art and Architecture)

चालुक्य काल में कला और स्थापत्य के क्षेत्र में भी प्रगति हुई। इस समय जैनों और बौद्धों के अनुकरण पर हिन्दू देवताओं के लिये पहाड़ों – गुफाओं को काटकर मन्दिर बनवाये गये। चालुक्य मन्दिरों के उत्कृष्ट नमूने बादामी, ऐहोल और पत्तडकल से प्राप्त होते हैं। बादामी में पाषाण को काटकर चार स्तम्भयुक्त मण्डप बनाये गये हैं। इनमें से तीन हिन्दू और एक जैन धर्म से संबन्धित है। प्रत्येक में स्तम्भ- युक्त बरामदा, मेहराब – युक्त हाल और एक छोटा वर्गाकार गर्भगृह हैं।

ऐहोल को ‘मन्दिरों का नगर’ कहा गया है तथा यहाँ कम से कम 70 मन्दिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं, जिनका निर्माण 450-600 ई. के बीच हुआ। इसी समय उत्तरी भारत में गुप्त मन्दिरों का निर्माण हुआ और नागर शैली का प्रभाव दक्षिण में पहुँचा। यही कारण है कि ऐहोल के मन्दिरों में नागर और द्रविड़ शैलियों का मिश्रण मिलता है।

इसी प्रकार पत्तडकल से दस मन्दिर प्राप्त होते हैं, जिनमें 4 नागर शैली और 6 द्रविड़ शैली में बने हैं। नागर शैली में बना ‘पापनाथ का मन्दिर’ और द्रविड़ शैली में बने ‘संगमेश्वर मन्दिर’ और ‘विरूपाक्ष मन्दिर’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।

चालुक्य काल में वास्तुकला के साथ मूर्तिकला का भी विकास हुआ। मूर्तियों पर गुप्त और पल्लव शैली का प्रभाव दिखाई देता है। अधिकांश मूर्तियों का निर्माण मन्दिरों को सजाने के लिए किया गया।

गुफा स्तम्भों और छतों पर बड़ी संख्या में मूर्तियाँ चित्रित की गई, जिनमें पौराणिक कथायें अंकित हैं। बादामी की गुफा संख्या -1 में नटराज शिव की 16 भिन्न – भिन्न मुद्राओं में मूर्ति उकेरी गयी है। इस काल की अर्धनारीश्वर, महिषमर्दिनी, हरिहर आदि की मूर्तियाँ भी मिली है, जो चालुक्य काल की मूर्तिकला की उत्कृष्टता को प्रदर्शित करती है।

निष्कर्ष  (Conclusion)

अतः बादामी चालुक्यों ने लगभग दो शताब्दियों तक दक्षिणापथ पर शासन किया। चालुक्य प्रशासन में राज परिवार के सदस्यों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। चालुक्य काल में साहित्य, धर्म और कला के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण उन्नति हुई। चालुक्य शासक ब्राह्मण धर्मानुयायी होने पर भी धार्मिक रूप से उदार थे। उनकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने दक्षिणापथ में जैन और बौद्ध धर्मों के विकास को प्रोत्साहन दिया। चालुक्य काल में वास्तुकला में नागर और द्रविड़ शैलियों का मिश्रण मिलता है।

संदर्भ सूची

  • झा, द्विजेन्द्रनारायण व श्रीमाली, कृष्णमोहन, (सं.) (1984). प्राचीन भारत का इतिहास, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय : दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
  • थापर, रोमिला (2016). पूर्वकालीन भारत, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय : दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
  • शर्मा, प्रो. कृष्णगोपाल व जैन, डॉ. हुकुम चंद, (2019).भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (भाग-1), राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर

“मुफ्त शिक्षा सबका अधिकार आओ सब मिलकर करें इस सपने को साकार”

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