शीतयुद्ध : विकास एवं विस्तार के चरण | Cold War: Development and Phases in Hindi

शीतयुद्ध : विकास एवं विस्तार के चरण

परिचय

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् दो महाशक्तियों के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका एवं सोवियत संघ का प्रादुर्भाव हुआ। इस विश्वयुद्ध के पश्चात् अमरीका की यह मान्यता बन गई कि सोवियत संघ पश्चिमी राष्ट्रों के लिए वास्तविक सुरक्षा का खतरा है। सोवियत संघ की साम्यवादी व्यवस्था पश्चिमी व्यवस्था के लिए एक चुनौती है एवं अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए साम्यवाद पर अंकुश लगाया जाना अनिवार्य था। किंतु इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु युद्ध का सहारा नहीं लिया जा सकता था। अतः महाशक्तियों ने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए राजनीतिक प्रचार का मार्ग अपनाया जिससे दोनों में ‘शीतयुद्ध’ का आधुनिक रूप से शुभारंभ हुआ। इसके विकासक्रम को निम्नलिखित चरणों में विश्लेषित किया जा सकता है –

शीतयुद्ध : विकास एवं विस्तार के चरण

1. शीतयुद्ध के विस्तार का पहला चरण (1917-1945)

सन् 1917 की बोल्शेविक क्रांति के पश्चात् राज्य शक्ति का नवीन स्वरूप एवं सामाजिक-आर्थिक विकास का वैकल्पिक स्वरूप सामने आया। 1917 में विश्व का पहला साम्यवादी राज्य अस्तित्व में आया तथा कार्ल मार्क्स के विचारों को यथार्थ रूप मिला। प्रारंभ में रूस में साम्यवाद की स्थापना का पूंजीवादी राज्यों द्वारा मान्यता नहीं दी गई। अब तक अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘शीतयुद्ध’  शब्द का प्रयोग नहीं हुआ था, लेकिन दो वैचारिक पक्ष अवश्य प्रकट होने लगे थे। एक तरफ अकेला सोवियत संघ था तथा दूसरी तरफ अपने मित्रों सहित ब्रिटेन था। इस समयावधि में शीतयुद्ध अपने उग्र स्वरूप में इसलिए प्रकट नहीं हुआ, क्योंकि रूस एक कमज़ोर राष्ट्र था तथा दूसरी तरफ पूंजीवादी राज्य ब्रिटेन व अमरीका अत्यंत शक्तिशाली राष्ट्र थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान दोनों पक्षों की हिटलर के खिलाफ़ दोस्ती एक मजबूरी थी। ब्रिटेन में मजदूर दल की सरकार के स्थापित होने के बाद ही ब्रिटेन द्वारा सन् 1924 में रूस की साम्यवादी सरकार को मान्यता दी गई तथा अमेरिका ने नवम्बर 1933 में रूसी साम्यवादी सरकार को मान्यता प्रदान की।

फ्लेमिंग के अनुसार इस कालखंड में शीतयुद्ध को जन्म देने वाली प्रमुख घटनाएं निम्नलिखित हैं:

  • अप्रैल 1942 – जून 1944 : दूसरे मोर्चे का स्थगन;
  • 29 मार्च, 1944 – फरवरी 1945 : सोवियत सेनाओं द्वारा पूर्वी यूरोप पर नियंत्रण;
  • मार्च 1945 : इटली में जर्मन आत्म-समर्पण समझौतों पर सोवियत संघ से मतभेद;
  • 6 अगस्त, 1945 : पहला अमरीकी अणु बम का प्रयोग (हिरोशिमा),
  • 18 अगस्त, 1945 : बर्नेज बेविन की पूर्वी यूरोप में स्वतंत्र मतदान कराने के कूटनीतिक प्रयत्न का शुभारंभ, इत्यादि।

2. शीतयुद्ध के विस्तार का दूसरा चरण (1946-1953)

इस कालखंड में शीतयुद्ध का वास्तविक रूप उभरा। इस समय अमरीका तथा सोवियत संघ के मतभेद खुलकर सामने आने लगे थे। इस काल में शीतयुद्ध को बढ़ावा देने वाली कई घटनाएं प्रमुख थीं, जो निम्नलिखित है :

  • चर्चिल का फुल्टन भाषण: 5 मार्च, 1946 को फुल्टन स्थान पर ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल द्वारा दिये गए भाषण ने शीतयुद्ध का शुभारंभ कर दिया। उन्होंने कहा कि, “हमें तानाशाही के एक स्वरूप की जगह पर उसके दूसरे स्वरूप की स्थापना को रोकना चाहिए।” उनका सुझाव था कि साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लिए हर संभव तथा नैतिक-अनैतिक उपायों को अपनाया जाना चाहिए। इसके पश्चात् संपूर्ण अमरीका में सोवियत विरोधी भावना का ज्वालामुखी फूट पड़ा।
  • ट्रूमैन सिद्धांत: ट्रूमैन सिद्धांत एक अमेरिकी विदेश नीति थी जिसका उद्देश्य साम्यवाद के विरूध्द और यूरोप का पुनरूथान था। पहली बार 12 मार्च, 1947 को राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन ने इसकी घोषणा की थी, इसी बीच यूनान एवं टर्की को साम्यवादियों के खेमें में जाने से रोकने के लिए एवं गृहयुद्ध का दमन करने के लिए इन देशों को वित्तीय सहायता देने की नीति को उचित ठहराते हुए तर्क दिया गया कि साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लिए संयुक्त राज्य अमरीका को कहीं भी हस्तक्षेप करने का अधिकार है।
  • मार्शल योजना : द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप में साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए अमरीकी विदेश सचिव जॉर्ज मार्शल ने 1948 में एक योजना को लागू किया। आधिकारिक तौर पर इसे ‘यूरोपियन रिकवरी प्रोग्राम’ तथा अनौपचारिक रूप से ‘मार्शल प्लान’ और ‘डॉलर कूटनीति’ भी कहा गया। इसे ट्रूमैन सिद्धांत का आर्थिक प्रतिपक्ष कहा गया क्योंकि ट्रूमैन सिद्धांत मुख्यत: एक राजनीतिक योजना थी। लेकिन संयुक्त राज्य अमरीका ने घोषणा की थी कि इस योजना का लक्ष्य केवल युद्ध द्वारा तबाह हुए यूरोप का पुनर्निर्माण करना है, यद्यपि यह साम्यवादियों के बढ़ते प्रभाव से यूरोप को सुरक्षित करने का प्रमुख प्रयास था।
  • कॉमकन (COMECON) : सोवियत संघ ने मार्शल योजना के विरूद्ध कॉमकन (Council for Mutual Economic Assistance) की स्थापना की। इसके अंतर्गत यह निर्धारित किया गया कि रूस, पोलैंड, बुल्गारिया, हंगरी, रोमानिया और चेकोस्लोवाकिया ही आपस में व्यापारिक संबंध कायम रखेंगे। 5 अक्टूबर, 1947 को ‘कम्युनिस्ट इन्फॉर्मेशन ब्यूरो’ (Cominform) नामक संस्था का गठन किया गया। यूगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड में इस संस्था का मुख्यालय स्थापित किया गया। फ्रांस एवं इटली के साम्यवादी दल भी इस संस्था में शामिल हुए।
  • बर्लिन की नाकेबंदी : 1948 में सोवियत संघ ने बर्लिन की नाकेबंदी कर दी। पश्चिमी राष्ट्रों ने सोवियत संघ को दोषी माना। इस घटनाक्रम से दोनों ही पक्षों को अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने का अवसर मिला। इससे पश्चिमी जर्मनी के बीच समस्त रेल, सड़क तथा जलीय यातायात बंद कर दिया गया। बर्लिन शेष विश्व से कट गया। सोवियत संघ इस नाकेबंदी से पश्चिम बर्लिन के लोगों को अपनी तरफ आने के लिए मजबूर कर देना चाहता था लेकिन पश्चिम के राष्ट्रों ने लगभग एक वर्ष तक मूलभूत आवश्यकता की सभी वस्तुएँ हवाई मार्ग द्वारा पश्चिम बर्लिन में उपलब्ध करवाई। विवशत: सोवियत संघ को बर्लिन की नाकेबंदी की हट छोड़नी पड़ी।
  • जर्मनी का विभाजन : 1948 में जर्जर जर्मनी ‘शीतयुद्ध’ का प्रमुख केन्द्र बना। ब्रिटेन, फ्रांस तथा अमरीका ने अपने अधीनस्थ जर्मनी के तीनों पश्चिमी हिस्सों को एकीकृत कर दिया। जिससे 21 सितम्बर, 1949 को ‘संघीय जर्मन गणराज्य’ जिसे ‘पश्चिमी जर्मनी’ भी कहते थे, का प्रादुर्भाव हुआ। पश्चमी राष्ट्रों के इस कार्य के जबाव में 7 अक्टूबर, 1949 में सोवियत अधिकार क्षेत्र वाले जर्मन क्षेत्र में ‘जर्मन लोकतन्त्रात्मक गणराज्य’ जिसको ‘पूर्वी जर्मनी’ भी कहते थे, की स्थापना हुई। अब जर्मनी पूर्वी जर्मनी तथा पश्चिमी जर्मनी में विखंडित हो गया था। इस घटना ने शीतयुद्ध को तीव्र कर दिया।
  • नाटो की स्थापना : सन् 1949 में अमेरिका ने अपने मित्र राष्ट्रों के सहयोग से ‘उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन :नाटो’ (NATO) जैसे सैन्य गठबंधन का निर्माण किया। इसका उद्देश्य उत्तरी अटलांटिक क्षेत्र में शांति बनाए रखने हेतु किसी भी बाह्य खतरे से से निपटना था। इससे अमेरिका एवं सोवियत संघ के मध्य मतभेद और अधिक गहरे होते गए। इसके संस्थापक सदस्य राष्ट्रों में, अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड, बेल्जियम एवं नार्वे शामिल थे। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद भी नाटो अस्तित्त्व में है।
  • चीनी साम्यवादी क्रांति : अक्तूबर 1949 में चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना होने से अमेरिका का विरोध अधिक तीव्र हो गया। उसने संयुक्त राष्ट्र संघ में साम्यवादी चीन की सदस्यता को चुनौती दी। इससे सोवियत संघ तथा अमेरिका के मध्य शीतयुद्ध का माहौल और विकसित हुआ।
  • कोरिया संकट : सन् 1950 में कोरिया संकट ने भी अमेरिका तथा सोवियत संघ के मध्य शीतयुद्ध में वृद्धि की। इस युद्ध में उत्तरी कोरिया को सोवियत संघ और दक्षिणी कोरिया को अमेरिका एवं अन्य पश्चिमी राष्ट्रों का समर्थन व सहयोग हासिल था, परन्तु किसी भी पक्ष को इस युद्ध में निर्णयात्मक विजय प्राप्त न हो सकी और जून 1953 को कोरिया में युद्ध-विराम हो गया, लेकिन दोनों गुटों के मध्य शीतयुद्ध जारी रहा।
  • जापान के साथ मित्र देशों की शांति संधि : कोरिया युद्ध के दौरान अमेरिका ने सन् 1951 में अपने मित्र राष्ट्रों के साथ मिलकर जापान से शांति संधि की और संधि को कार्यरूप देने के लिए सान फ्रांसिस्को नगर में एक सम्मेलन आयोजित करने का फैसला किया, सोवियत संघ ने इसका कड़ा विरोध किया। अमेरिका ने इसी वर्ष जापान के साथ एक प्रतिरक्षा संधि करके तनाव को और अधिक गहरा कर दिया।

संक्षेप में, इस चरण में शीतयुद्ध में काफी तीव्रता देखी गयी। इससे विश्व में अशांति का वातावरण बना।

3. शीतयुद्ध के विस्तार का तीसरा चरण (1953-1958)

ट्रूमैन-स्टालिन युग के पश्चात् 1953 में अमरीका और सोवियत संघ के नेतृत्व में परिवर्तन आया तथा यह उम्मीद दोनों पक्षों से की जाने लगी कि शीतयुद्ध की उष्णता में शीतलता आएगी। सन्1953 में हैरी एस. ट्रूमैन के स्थान पर आइजनहॉवर सत्ता में आए। दूसरी तरफ सोवियत संघ में मार्च 1953 में स्टालिन की मृत्यु हो जाने के बाद उनके स्थान पर उदारवादी व युवा नेता ख्रुश्चेव सत्ता में आए। इस काल में शीतयुद्ध केवल यूरोप तथा सुदूर पूर्व तक सीमित नहीं रहा बल्कि पश्चिमी एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया भी इसकी परिधि में आ गए। हथियारों की होड़ को बढ़ावा दिया गया तथा सैनिक अड्डों के जाल का विस्तार किया गया। इस चरण में शीतयुद्ध को बनाये रखने वाली प्रमुख घटनायें निम्नलिखित थी:

  • सोवियत संघ द्वारा आणविक परीक्षण : सोवियत संघ ने अगस्त 1953 में अपना पहला आणविक परीक्षण किया। यह बम हिरोशिमा पर गिराए गए अणुबम से हजारों गुणा अधिक ताकतवर था। इस तरह से अणुबम बनाने की क्षमता हासिल कर सोवियत संघ ने संयुक्त राज्य अमरीका की बराबरी प्राप्त कर ली, इससे अमरीका आशंकित हुआ और नि:शस्त्रीकरण को आवश्यक समझा जाने लगा।
  • हिन्द-चीन समस्या : फ्रांसीसी साम्राज्यवाद के विरूद्ध हिन्द-चीन के संघर्ष में दोनों महाशक्तियों ने अलग-अलग पक्षों का समर्थन किया। अमरीका ने इस संघर्ष में फ्रांस को सहायता दी तो सोवियत संघ ने हिन्द-चीन के लोगों का सहयोग किया। अत: हिन्द-चीन समस्या शीतयुद्ध का कारण बन गयी।
  • सीटो : वर्ष 1954 में निर्मित दक्षिण-पूर्व एशियाई संगठन’ (South East Asia Treaty Organisation: SEATO) नाटो का एशियाई संस्करण था, जिसका निर्माण शीतयुद्ध के दौरान हुआ। इसका मुख्य लक्ष्य ‘डोमिनो सिद्धांत’ (साम्यवाद के प्रसार को रोकना) को प्रभावपूर्ण तरीके से लागू करना था। इसके संस्थापकों में अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, थाइलैंड, फिलीपीन्स तथा पाकिस्तान थे।
  • सेन्टो : वर्ष 1955 में निर्मित ‘केंद्रीय संधि संगठन’ (बगदाद संधि/ Central Treaty Organisation : CENTO) नाटो का पश्चिमी एशियाई संस्करण था, जिसका लक्ष्य साम्यवाद के प्रसार को पश्चिमी एशिया में रोकना था। इसके सदस्यों में ब्रिटेन, ईरान, तुर्की और पाकिस्तान शामिल थे। अमेरिका ने पश्चिमी एशिया में सेन्टो के माध्यम से इस क्षेत्र के प्रभावशाली राष्ट्रों को साथ लाने की कोशिश की।
  • अंजुस : अंजुस (ANZUS) एशियाई प्रशांत क्षेत्र में नाटो का संस्करण था, शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड द्वारा मिलकर इसकी स्थापना की गयी। चीन में साम्यवाद स्थापित होने तथा कोरियाई संकट के पश्चात् साम्यवादी विचारधारा के विस्तार पर अंकुश लगाने के संदर्भ में इसका निर्माण हुआ।
  • वारसा पैक्ट : 14 मई, 1955 को सोवियत तथा उसके पूर्वी यूरोप के साथी आठ राष्ट्रों ने मिलकर वारसा पैक्ट का निर्माण किया। संधि के अनुसार अगर किसी सदस्य राष्ट्र पर सशस्त्र सैनिक आक्रमण होता है तो अन्य राष्ट्र उसकी सैन्य सहायता करेंगे। यह संगठन ‘नाटो’ के विरोध में अस्तित्व में आया।
  • हंगरी की समस्या : सन् 1956 में हंगरी में सोवियत हस्तक्षेप ने भी शीतयुद्ध को और अधिक भडकाया।
  • आइजनहॉवर सिद्धांत : जून 1957 में आइजनहॉवर सिद्धांत के अंतर्गत अमेरिका की कांग्रेस ने राष्ट्रपति आइजनहॉवर को मध्य-पूर्व के किसी भी देश में साम्यवादी आक्रमण का सामना करने के लिए सशस्त्र सेनाओं का प्रयोग करने का अधिकार प्रदान करके पश्चिमी एशिया को शीतयुद्ध का अखाड़ा बना दिया। इस नीति ने इस क्षेत्र में अमरीकी वर्चस्व में वृद्धि की।

4. शीतयुद्ध के विस्तार का चौथा चरण (1959-1962)

इस चरण में शीतयुद्ध ‘पिघलाव’ तथा ‘गरम युद्ध’ के दो परस्पर विरोधी घटकों में झूलता रहा। इसमें जहाँ एक ओर शांतिपूर्ण-सहअस्तित्व के सिद्धांत को कुछ शुरुआती सफलताएं मिली वहीं दूसरी ओर सन् 1962 में क्यूबा संकट ने अत्यंत तनावपूर्ण स्थिति उत्पन्न कर दी। इस चरण में शीतयुद्ध को बनाये रखने वाली प्रमुख घटनायें निम्नलिखित थी:

  • कैम्प डेविड भावना : 15 सितम्बर, 1959 को सोवियत प्रधानमंत्री ख्रुश्चेव ने अमरीका की यात्रा की। इस यात्रा ने सोवियत संघ तथा अमरीका के मध्य तनाव शैथिल्य का वातावरण बनाया। इस सौहार्द को ‘कैम्प डेविड भावना’ का नाम दिया गया। यह कहा गया कि इस घटनाक्रम से प्रेरित होकर दोनों महाशक्तियां अंतर्राष्ट्रीय तनाव को कम करने का सांझा प्रयत्न करेंगे जिससे दोनों के मध्य शीतयुद्ध की बर्फ पिघलेगी तथा विश्व शांति की नींव मजबूत होगी।
  • यू-2 विमान काण्ड : 1 मई, 1960 को अमरीकी जासूसी विमान यू-2 सोवियत संघ की सीमा में जासूसी करते हुए पकड़ा गया। विमान से कई जासूसी उपकरण पकड़े गए। यह विमान सोवियत सैनिक प्रदेश पर हवा से ही विभिन्न सैन्य अड्डों की फोटो ले रहा था। विमान चालक ने जासूसी की सब बात स्वीकार कर ली। इस जासूसी कांड ने शीतयुद्ध में तूफान ला दिया।
  • पेरिस शिखर सम्मलेन: 16 मई, 1960 में पेरिस शिखर सम्मेलन में सोवियत राष्ट्रपति ख्रुश्चेव ने U-2 मामले को उठाया और अमेरिकी राष्ट्रपति को भविष्य में सोवियत संघ न आने की चेतावनी भी दी। सम्मेलन के दूसरे सत्र का भी सोवियत संघ ने बहिष्कार कर अपनी नाराजगी जाहिर कर दी। इस तरह अमेरिका और सोवियत संघ में तनाव पहले जैसा ही बना रहा।
  • कैनेडी का निर्वाचन : नवम्बर 1960 के चुनाव में अमरीकी राष्ट्रपति पद पर कैनेडी निर्वाचित हुए। ख्रुश्चेव ने कैनेडी को बधाई संदेश भेजा और यह आशा व्यक्त की कि उनके निर्वाचन से शीतयुद्ध की उग्रता में कमी आएगी। प्रत्युत्तर में कैनेडी ने भी न्यायपूर्ण और स्थायी शांति कायम करने का वादा किया। कैनेडी ने सोवियत संघ के प्रति सहयोग की नीति अपनाने पर बल दिया।
  • बर्लिन की दीवार : अगस्त 1961 में बर्लिन शहर में सोवियत संघ ने पश्चिमी शक्तियों के क्षेत्र को अलग करने के लिए दीवार निर्माण का कार्य शुरू कर दिया। इसका पश्चिमी राष्ट्रों ने कड़ा विरोध किया। दोनों महाशक्तियों की सेनाएं युद्ध के लिए लगभग तैयार ही थी। लेकिन बड़ी मुश्किल से शीतयुद्ध गर्म युद्ध में परिवर्तित होते-होते रह गया।
  • क्यूबा मिसाइल संकट : क्यूबा अमरीका के निकट एक छोटा सा द्वीप है। डॉ. फिडेल कास्त्रों के नेतृत्व में यहाँ साम्यवादी शासन व्यवस्था थी। सोवियत संघ धीरे-धीरे क्यूबा के माध्यम से अपना प्रभाव बढ़ा रहा था, जो अमरीका के लिए एक चिन्ता का विषय था। सन् 1962 के आसपास क्यूबा में सोवियत संघ ने अपने सैनिक अड्डे और मिसाइलें तैनात कर दी। इस घटना की अमेरिका के राष्ट्रपति कैनेडी ने कड़ी आलोचना की। जल्द ही अमेरिका ने क्यूबा की नाकेबंदी की घोषणा कर दी जिससे क्यूबा में सोवियत सैन्य सहायता न पहुंच सके। विवाद को बढ़ता देख सोवियत संघ ने अपने कदम पीछे हटा लिए तथा गंभीर संकट को सुलझा लिया। इस प्रकार क्यूबा संकट शीतयुद्ध का चरमोत्कर्ष कहा जा सकता था क्योंकि यह तृतीय विश्वयुद्ध का कारण बन सकता था।

5. शीतयुद्ध के विस्तार का पांचवा चरण (1963-1979)

इस चरण को ‘तनाव शिथिलता’, ‘तनाव शैथिल्य’ या ‘देतांत’ का युग कहा जा सकता है। इस चरण में जहां एक तरफ शीतयुद्ध में शिथिलता आयी वहीं दूसरी तरफ महाशक्तियों के मध्य तकरार भी चलती रही। इस चरण की प्रमुख घटनाएं इस प्रकार हैं :

  • परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि : 25 जुलाई, 1963 को ब्रिटेन सहित महाशक्तियों ने मास्को में अणु परीक्षणों (वायुमंडल, बाह्य अन्तरिक्ष तथा समुंद्र) पर प्रतिबंध लगाने वाली एक संधि में हस्ताक्षर किए। 26 जुलाई, 1963 को अमेरिकियों के नाम कैनेडी ने अपने एक भाषण में इस संधि को शीतयुद्ध की समाप्ति की दिशा में किए जाने वाले प्रयासों के मार्ग में मील का पत्थर बताया।
  • हॉट लाइन समझौता : सन् 1963 के इस समझौते के अंतर्गत वाशिंगटन तथा क्रेमलिन में रेडियो और टेलीफोन का सीधा संपर्क स्थापित हुआ। इस संपर्क समझौते का लक्ष्य प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय संकटकाल में दोनों राष्ट्रों के मध्य सीधा संपर्क स्थापित करके गलती या आकस्मिक दुर्घटना से हो सकने वाले युद्ध को टालना था।
  • परमाणु अप्रसार संधि (NPT) : सन् 1968 को अमरीका, सोवियत संघ तथा ब्रिटेन ने मिलकर इस संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि का प्रमुख लक्ष्य परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकना था। इसके अन्तर्गत विश्व के पांच परमाणु संपन्न राष्ट्र; अमेरिका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन को परमाणु हथियार एवं उनकी तकनीक गैर-परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र को न देने पर सहमति व्यक्त की गई और यह सुनिश्चित किया गया कि इन पांच राष्ट्रों के अलावा अन्य राष्ट्रों को परमाणु हथियार बनाने से रोका जाएगा।
  • मास्कोबोन समझौता : यह समझौता जर्मन संघीय गणराज्य और पूर्व सोवियत संघ के मध्य 1970 को हुआ था। इस समझौते ने शीतयुद्ध की एक मूल जड़ को समाप्त कर दिया। इस समझौते द्वारा मास्को तथा बोन ने शक्ति प्रदर्शन का त्याग करने और वस्तुस्थिति अर्थात् यूरोप में युद्धोत्तर वास्तविक सीमाओं को स्वीकार करने का विश्वास दिलाया।
  • बर्लिन समझौता : यह समझौता अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस तथा पूर्व सोवियत संघ के मध्य अगस्त 1971 को संपन्न हुआ। इसने बर्लिन समस्या का समाधान कर दिया। इस समझौते के अनुसार पश्चिम बर्लिन के नागरिक पूर्व बर्लिन जा सकेंगे। यह समझौता शांति के मार्ग में एक महत्त्वपूर्ण पहल थी।
  • र्मनी समझौता : नवम्बर, 1972 को पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के मध्य एक संधि पर हस्ताक्षर हुए। इस संधि के फलस्वरूप इन दोनों जर्मन राज्यों के बीच द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से चली आ रही तनातनी समाप्त हो गई। दोनों जर्मन राज्यों ने एक दूसरे के अस्तित्व को स्वीकारा और 1973 में दोनों संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य बन गए।
  • यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन : जुलाई 1973 को फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग वृद्धि हेतु यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन हुआ। नवम्बर 1974 में दूसरे यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन (ब्लाडिवोस्टक में आयोजित) द्वारा शीतयुद्ध को समाप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए गए। जून 1977 में तीसरे यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन (बेलग्रेड में आयोजित) में लगभग 50 यूरोपीय राष्ट्रों ने हिस्सा लिया। सम्मेलन में पूर्व एवं पश्चिम के मध्य सुरक्षा तथा शांतिपूर्ण वातावरण स्थापित करने हेतु यूरोपीय सहयोग को और अधिक सुदृढ़ बनाने पर बल दिया गया।

6.  शीतयुद्ध के विस्तार का छठा/अंतिम चरण (1980-1989)

शीतयुद्ध के इस अंतिम चरण में महाशक्तियों के मध्य सहयोग के साथ-साथ प्रतिद्वंदिता भी चलती रही। इसे ‘दूसरा शीतयुद्ध’ (Second Cold War) या ‘नव/नया शीतयुद्ध’ (New Cold War) के नाम से भी जाना जाता है। नए घटनाक्रमों से देतांत का अंत हो गया और पुराने तनाव फिर से बढ़ने लगे। इस चरण की प्रमुख घटनाएं इस प्रकार हैं :

  • शस्त्रीकरण : राष्ट्रपति रीगन ने सत्ता में आते ही अस्त्र शस्त्र उद्योग को बढ़ावा देना, मित्र राष्ट्रों का पुन: शस्त्रीकरण करना, शस्त्रों की होड़ को तेज करना और सोवियत संघ के प्रति कठोर नीति अपनाने की रणनीति अपनाई।
  • अफगानिस्तान संकट : सन् 1979 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया, इससे शीतयुद्ध में वृद्धि हुई। अमेरिका तथा सोवियत संघ में पारस्परिक प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई। देतांत अफगानिस्तान संकट के जन्म लेते ही नए प्रकार के शीतयुद्ध में परिवर्तित हो गया। इस संकट को देतांत की अंतिम शवयात्रा कहा जाता है।
  • कोरिया विमान दुर्घटना : सितम्बर, 1983 को दक्षिण कोरिया के यात्री विमान (269 यात्री सवार) को जासूसी विमान समझकर सोवियत संघ द्वारा ध्वस्त कर दिया गया। इस घटना की अमरीका में सबसे उग्र प्रतिक्रिया हुई, परिणामस्वरूप महाशक्तियों के बीच शीतयुद्ध में तीव्रता आई। अमेरिका ने इस घटना को विश्व के विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचो पर उठाया।
  • स्टार वार परियोजना : 23 मार्च, 1983 को अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन ने ‘स्टार वार परियोजना’ (अन्तरिक्ष युद्ध) को मंजूरी दी। इससे नवीन अस्त्र-शस्त्रों की होड़ लग गई। स्टार वार परियोजना के विरुद्ध सोवियत संघ ने भी जवाबी कार्यवाही प्रारंभ कर दी।

निष्कर्ष

इस प्रकार उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत से लेकर सोवियत संघ के विखंडन तक के काल को ‘शीतयुद्ध का युग’ कहा गया है। इस पूरे शीतयुद्ध के दौरान न समस्याएं सामान थीं न काल। इस प्रकार शीतयुद्ध का ढाँचा व आयाम विभिन्न प्रकार के रहे, जिनके प्रभाव बहुआयामी थे। शीतयुद्ध ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में जिस भय, अविश्वास, शंका, तनाव तथा शक्ति संघर्ष के वातावरण को जन्म दिया था उसका सोवियत संघ के विखंडन के साथ ही अंत हो गया था। आज शीतयुद्ध  की भीषणता अतीत की विषयवस्तु बन चुकी है।

 

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