शीतयुद्ध : उत्पत्ति और विकास,कारण | Cold War : Origin and Evolution,Causes in Hindi

शीतयुद्ध : उत्पत्ति और विकास, कारण

परिचय

शीतयुद्ध की अवधारणा का जन्म द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् सन् 1945 में हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका तथा सोवियत संघ के मध्य मित्रता का जो नया दौर शुरू हुआ था, वह युद्ध के बाद समाप्त हो गया। दोनों महाशक्तियों में पारस्परिक मतभेद एवं शत्रुता की भावना और अधिक गहरी होती गई तथा दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में जुट गए। इस प्रयास से दोनों देशों में कूटनीतिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में सहयोग के बजाय एक संघर्षपूर्ण स्थिति का जन्म हो गया। अंतर्राष्ट्रीय मंच पर दोनों शक्तियां एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लग गई। अंतर्राष्ट्रीय जगत में अपना-अपना वर्चस्व सिद्ध करने के प्रयास में दोनों महाशक्तियां विश्व के अधिकांश राज्यों को अपने-अपने पक्ष में लाने के लिए नए-नए तरीके तलाश करने लगी। इससे समूचे विश्व में अशांति का वातावरण बन गया तथा अंत में विश्व दो शक्तिशाली खेमों; पूंजीवादी खेमा और साम्यवादी खेमा में बंट गया जिसमें पहले खेमें का नेतृत्व अमेरिका और दूसरे खेमें का सोवियत संघ ने किया।

शीतयुद्ध का अर्थ (Meaning of Cold-War)

द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण यूरोप की बड़ी शक्तियाँ निर्बल हो गई और सोवियत संघ एवं संयुक्त राज्य अमेरिका दो महाशक्तियों के रूप में उभरे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान दोनों ने सहयोग किया हालांकि उनके आपसी अनुभवों, शंकाओं एवं युद्धोपरान्त स्थिति का राजनीतिक व सामरिक लाभ उठाने के लिये की गई कोशिशों ने दोनों के संबंधों को तनावपूर्ण बना दिया। संबंधों के इस तनाव का नामकरण ही शीतयुद्ध के रूप में किया गया। ‘शीतयुद्ध’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अमेरिका के एक राजनेता बर्नार्ड बारूच ने दक्षिण केरोलिना की विधानसभा के समक्ष 16 अप्रैल, 1947 को किया। वाल्टर लिपमेन ने ‘शीतयुद्ध’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखकर इस शब्द को विश्वप्रसिद्ध बनाया।

शीतयुद्ध एक प्रकार का वाक् युद्ध था जो पत्र-पत्रिकाओं,  रेडियो एवं प्रचार साधनों तक ही लड़ा गया। शीतयुद्ध सशस्त्र संघर्ष की स्थिति नहीं है वरन् ऐसी स्थिति है जिसमें प्रतिद्वंदी शांतिकालीन राजनयिक संबंध बनाये रखते हुए भी शत्रुता रखते हैं तथा शत्रु को निर्बल करने के लिये युद्ध के अतिरिक्त अन्य उपाय (साम, दाम, दंड, भेद) अपनाते रहते हैं। वास्तव में शीतयुद्ध में प्रतिद्वंदी राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक एवं अप्रत्यक्ष सैनिक उपायों का प्रयोग स्वयं का प्रभाव बढ़ाने एवं शत्रु को निर्बल करने के लिये करते हैं। यह राजनयिक युद्ध या वैचारिक युद्ध या प्रोपेगेण्डा युद्ध है। वास्तविक युद्ध न होते हुए भी इसमें युद्ध की समस्त संभावनायें मौजूद रहती हैं। आर्थिक सहायता, सैन्य हस्तक्षेप, सैन्य गठबंधन, प्रोपेगेण्डा, जोड़-तोड़, जासूसी इत्यादि सभी शत्रुतापूर्ण उपाय (सशस्त्र युद्ध के अतिरिक्त) अपनाये जाते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि शीतयुद्ध न तो वास्तविक युद्ध की ही स्थिति हैं और न ही शांति की। कुछ विद्वानों ने शीतयुद्ध को अपने ढंग से परिभाषित किया है,जो निम्नलिखित है।

जवाहरलाल नेहरू के अनुसार, “शीतयुद्ध  पुरातन शक्ति सन्तुलन की अवधारणा का नया रूप है। यह दो विचारधाराओं का संघर्ष न होकर दो भीमाकार शक्तियों का आपसी संघर्ष है।”

जॉन फॉस्टर डलेस के शब्दों में, “शीतयुद्ध  नैतिक दृष्टि से धर्म-युद्ध था, अच्छाइयों के लिए बुराइयों के विरूद्ध, सत्य के लिए गलतियों के विरूद्ध और धर्म-प्राण लोगों के लिए नास्तिकों के विरूद्ध …….. संघर्ष था।”

के.पी.एस. मैनन के अनुसार, “शीतयुद्ध दो विरोधी विचारधाराओं (पूंजीवाद और साम्यवाद), दो व्यवस्थाओं (बुर्जुआ लोकतंत्र तथा जनवादी जनतंत्र), दो गुटों (नाटो और वारसा पैक्ट), दो राज्यों (संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ) तथा दो नेताओं (जॉन फ़ॉस्टर डलेस तथा जोसेफ स्टालिन) के बीच युद्ध था, जिसका प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ा।”

इस प्रकार हम कह सकते है कि शीतयुद्ध दो महाशक्तियों के मध्य एक वाक् युद्ध था जो कूटनीतिक उपायों पर आधारित था। इसमें शत्रु को अकेला करने और मित्रों की खोज करने की चतुराई भी प्रयोग की गई थी।

शीतयुद्ध : उत्पत्ति और विकास

कुछ विद्वानों का मानना है कि शीतयुद्ध की उत्पत्ति सन्1917 की बोल्शेविक क्रांति से हुई है। सोवियत खेमें के लिये यह समाजवादी देशों पर पूंजीवादी एवं साम्राज्यवादी देशों का एकपक्षीय आक्रमण था और औपचारिक तौर पर वे मार्च 1946 को चर्चिल के फुल्टन भाषण से इसका प्रारंभ मानते हैं। दूसरी ओर अमेरिका सोवियत संघ को शीतयुद्ध प्रारंभ करने का दोषी मानता हैं। इस प्रकार शीतयुद्ध की उत्पत्ति के विषयों में मतभेद होते हुए भी ज्यादात्तर विद्वान शीतयुद्ध को द्वितीय युद्ध के बाद की घटना ही मानते हैं।

1917 में बोल्शेविक क्रांति के पश्चात् यूरोप में रूस एक महाशक्ति के रूप में उभरा। द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व रूस कई अवसरों का लाभ नहीं ले पाया, जिसमें सुरक्षा व्यवस्था व निःशस्त्रीकरण हेतु यह पश्चिमी राष्ट्रों का साथ राष्ट्र संघ के बाहर व भीतर दे सकता था। अमेरिका, ब्रिटेन एवं फ्रांस द्वारा जर्मनी के प्रति अपनाई गई तुष्टिकरण की नीति की भी रूस द्वारा कई बार आलोचना की गई। हालांकि द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारंभ होने पर सोवियत संघ ने पश्चिमी देशों से सहयोग लिया परंतु तब भी परस्पर अविश्वास और संदेह की स्थिति बनी रही। अमेरिकी राष्ट्रपति रुजवेल्ट ने रूस व अमेरिका के मध्य सहयोग का हर संभव प्रयास किया परंतु आईजनहावर के राष्ट्रपति बनने के पश्चात् सहयोग की नीति को त्याग दिया गया।

शीतयुद्ध के कारण

सोवियत संघ एवं पश्चिम शक्तियों के मध्य वैचारिक मतभेद ऐतिहासिक थे। पश्चिमी शक्तियों ने बोल्शेविक क्रांति के पश्चात् रूस की साम्यवादी सरकार को तुरंत मान्यता प्रदान नहीं की। अमेरिका द्वारा सोवियत संघ को नवम्बर 1933 में मान्यता प्राप्त होने से इसे राष्ट्र संघ की सदस्यता सन्1934 में हासिल हो सकी। निःशस्त्रीकरण एवं सामूहिक सुरक्षा के सोवियत संघ के प्रयासों को भी मदद नहीं दी गई। तुष्टिकरण की नीति का प्रयोग जर्मनी को सोवियत संघ के विरुद्ध प्रतिद्वंदी शक्ति बनाने के लिये किया गया। सन् 1941 में सोवियत संघ पर नाजी जर्मनी द्वारा आक्रमण किए जाने पर यह मित्र राष्ट्रों का सहयोगी बना पर युद्ध समाप्त होते ही परस्पर अविश्वास एवं संदेह का वातावरण पुनर्जीवित हो गया। ये पारस्परिक मतभेद ही शीतयुद्ध के प्रमुख कारण थे, शीतयुद्ध की उत्पत्ति के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।

  • सोवियत संघ और अमेरिका के वैचारिक मतभेद : द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से ही इन दोनों महाशक्तियों के बीच के वैचारिक मतभेद सामने लगे थे। सोवियत संघ समाजवाद को बढ़ावा देना चाहता था, जबकि अमेरिका पूंजीवाद को। सोवियत संघ ने समाजवादी आंदोलनों को विस्तार देने की जो रणनीति अपनाई उसने अमेरिका के मन में अविश्वास एवं शंका को जन्म दिया। सोवियत संघ ने अपनी इस कार्यनीति को न्यायपूर्ण तथा आवश्यक बताया। इससे पूंजीवादी राष्ट्रों को गहरा आघात पहुंचा तथा अनेक पूंजीवादी राष्ट्र अमेरिका के समर्थन में हो गए और सोवियत संघ की समाजवादी नीतियों की आलोचना करने लगे।
  • द्वितीय मोर्चे संबंधी विवाद : सोवियत संघ ने जर्मन सेनाओं की घुसपैठ को देखते हुए जर्मनी के पश्चिम की तरफ एक और मोर्चा खोलने की योजना बनाई ताकि सोवियत संघ पर दबाव कम हो सके किंतु पश्चिमी राष्ट्रों द्वारा दूसरा मोर्चा खोलने में हुई देर से सोवियत संघ के मन में पश्चिमी शक्तियों के विरुद्ध नफरत की भावना पैदा हो गई ।
  • सोवियत संघ द्वारा याल्टा एवं बाल्कन समझौते का पालन न किया जाना- याल्टा एवं बाल्कन समझौते के अनुसार सोवियत संघ कार्य न कर सका। सन् 1945 के याल्टा समझौते में मध्य व पूर्वी यूरोप पर सोवियत संघ की सैनिक शक्ति को मान्यता दी गई थी। युद्ध विराम होते ही यहाँ स्वतंत्र निर्वाचन द्वारा लोकतांत्रिक संस्थाओं को बहाल करने का निर्णय लिया गया था किंतु सोवियत संघ ने ऐसा न कर पोलैंड में साम्यवादी सरकार स्थापित कर दी। इसी प्रकार बल्गारिया, रोमानिया, हंगरी सहित संपूर्ण पूर्वी यूरोप में (चेकोस्लोवाकिया को छोड़कर) जनवादी जनतंत्र स्थापित किया गया। सोवियत संघ ने ग्रीस में भी साम्यवादी गुरिल्ला भेजे जिससे पश्चिमी शक्तियों ने सचेत होकर स्वयं सोवियत संघ के प्रसार एवं प्रभाव को रोकना प्रारंभ कर दिया।
  • ईरान में सोवियत हस्तक्षेप : सोवियत संघ तथा पश्चिमी शक्तियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ही जर्मनी के आत्मसमर्पण के बाद 6 महीने के अन्दर ही ईरान से अपनी सेनाएं वापिस बुलाने का समझौता किया था। ब्रिटेन व अमेरिका द्वारा सेनायें हटाये जाने के बाद भी सोवियत संघ ने ऐसा नहीं किया। उसने ईरान को तेल स्त्रोतों के उपयोग के लिये 25 वर्षीय संधि करने पर विवश किया व संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव के बाद ही ईरान से हटा।
  • तुर्की में सोवियत हस्तक्षेप : द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् सोवियत संघ ने तुर्की पर अपना दबाव डालना शुरू कर दिया। उसने तुर्की पर कुछ भू-प्रदेश तथा वास्फोरस में एक सैनिक अड्डा बनाने के लिए दबाव डाला। अमेरिका और अन्य पश्चिमी राष्ट्र इसके खिलाफ थे। इस दौरान अमेरिका ने ‘ट्रूमैन सिद्धांत’ का प्रतिपादन करके तुर्की को हर सम्भव मदद देने की कोशिश की जिससे वहां पर साम्यवादी प्रभाव को कम किया जा सके। इन परस्पर विरोधी कार्यवाहियों ने शीतयुद्ध को विस्तार प्रदान किया।
  • यूनान में साम्यवाद का प्रसार : सन् 1944 के समझौते के अंतर्गत यूनान पर ब्रिटेन का अधिकार स्वीकारा गया था। वहीं द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् ब्रिटेन ने अपनी आर्थिक दुर्बलता के कारण वहां से अपने सैनिक ठिकाने हटा लिये। सोवियत संघ ने यूनान में गृहयुद्ध छिड़ने पर वहां के साम्यवादियों को सहायता देना शुरू कर दिया। पश्चिमी शक्तियां परम्परागत सरकार का समर्थन करने के लिए आगे आई। अमेरिका ने ‘मार्शल योजना’ और ‘ट्रूमैन सिद्धांत’ के तहत यूनान में अपनी पूरी ताकत लगा दी। इससे साम्यवादी कार्यक्रम को यूनान में गहरा धक्का लगा तथा सोवियत संघ का सपना मिट्टी में मिल गया।
  • तुष्टिकरण की नीति : द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पश्चिमी शक्तियों ने धुरी राष्ट्रों (जापान, जर्मनी व इटली) के आक्रमणों के विरुद्ध मित्र राष्ट्रों (सोवियत संघ, फ्रांस, ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका) की सहायता करने की जगह तुष्टिकरण की नीति अपनाई। उन्होंने जानबूझकर अपने मित्र राष्ट्रों की सहायता नहीं की तथा उन्हें धुरी राष्ट्रों के हाथों पराजित होने देने के लिए छोड़ दिया। इससे युद्ध पूर्व किए गए संधियों एवं समझौतों के प्रति उनके मन में अविश्वास की भावना पैदा होना स्वाभाविक था।
  • संयुक्त राज्य अमेरिकी परमाणु कार्यक्रम : द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपना परमाणु कार्यक्रम गुप्त तरीके से विकसित किया तथा सोवियत संघ की इच्छा जाने बिना ही उसने जापान के दो शहरों पर परमाणु बम गिरा दिए। अमेरिका का युद्ध में सहयोगी होने के बावजूद सोवियत संघ को अमेरिकी परमाणु परियोजना के बारे में कुछ नहीं बताये जाने को सोवियत संघ ने विश्वासघात माना।
  • परस्पर विरोधी प्रचार : सोवियत संघ द्वारा अमेरिका में किए जा रहे साम्यवादी क्रियाकलापों एवं जासूसी के कार्यों के कारण अमेरिका ने सोवियत संघ के प्रति कड़ा दृष्टिकोण अपना लिया। ‘मार्शल योजना’ तथा ‘ट्रूमैन सिद्धांत’ इसका स्पष्ट उदाहरण है। इस प्रचार अभियान ने परस्पर वैमनस्य एवं शंका की भावना को जन्म दिया जो आगे चलकर शीतयुद्ध के रूप में दुनिया के सामने आया।
  • लैंड-लीज समझौते का समापन : सोवियत संघ अमेरिका से लैंड-लीज एक्ट के अंतर्गत आर्थिक सहायता प्राप्त कर रहा था, किंतु जर्मनी द्वारा समर्पण करने के तुरंत बाद ही यह सहायता बंद कर दी गई जिससे सोवियत संघ का नाराज होना स्वाभाविक था।
  • बर्लिन विवाद : सोवियत संघ ने लंदन प्रोटोकॉल (जून, 1948) का उल्लंघन करते हुए बर्लिन की नाकेबंदी कर दी। पश्चिमी राष्ट्रों ने सोवियत संघ को दोषी माना। सोवियत संघ अपना दोष स्वीकार करने को तैयार नहीं था। इससे मामला सुरक्षा परिषद में पहुँचा और दोनों महाशक्तियों के मध्य शीतयुद्ध का संघर्ष बढ़ता गया।
  • सोवियत संघ द्वारा वीटो पावर का बारबार प्रयोग : द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई। इस संघ में पांच देशों को वीटो पावर हासिल हुई। सोवियत संघ ने लगातार अपनी इस शक्ति का प्रयोग करके पश्चिमी राष्ट्रों के प्रत्येक प्रस्ताव को निरस्त करने की नीति अपना ली। इससे अमेरिका और पश्चिमी राष्ट्र सोवियत संघ की आलोचना करने लगे, जिसके फलस्वरूप उनसे परस्पर तनाव का माहौल पैदा हो गया।
  • संकीर्ण राष्ट्रवाद पर आधारित राष्ट्रीय हित : द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् अमेरिका और सोवियत संघ अपने-अपने स्वार्थो की सिद्धि में लग गए। वे निरंतर परस्पर हितों की अनदेखी करते रहे। इससे ‘शक्ति राजनीति’ का जन्म हुआ। अब प्रत्येक राष्ट्र एक दूसरे का शत्रु बन गया। दोनों महाशक्तियां अपना-अपना वर्चस्व बढ़ाने के निरंतर प्रयास में अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष का अखाड़ा बन गई। उनके निजी हितों की पूर्ति की कामना ने धीरे-धीरे पूरे विश्व में तनावपूर्ण वातावरण पैदा कर दिया।

निष्कर्ष

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शीतयुद्ध वास्तविक युद्ध नहीं था अपितु युद्ध का वातावरण था, जिसमें प्रत्येक महाशक्ति स्वयं को शक्तिशाली तथा दूसरे को शक्तिहीन बनाने के उग्र व नरम कूटनीतिक दाव-पेचों को अपनाती रहती थी। शीतयुद्ध को बढ़ावा देने वाली कार्यवाहियां दोनों ओर से हुईं। दोनों खेमों ने आपस में शांतिकालीन कूटनीतिक संबंध कायम रखते हुए भी एक दूसरे के प्रति शत्रुभाव रखते थे तथा सशस्त्र युद्ध के अलावा अन्य सभी उपायों से एक-दूसरे को शक्तिहीन बनाने की कोशिश करते रहते थे।

“मुफ्त शिक्षा सबका अधिकार आओ सब मिलकर करें इस सपने को साकार”

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