तुलनात्मक राजनीतिक विश्लेषण : परंपरागत उपागम | Comparative Political Analysis : Traditional Approach in Hindi

तुलनात्मक राजनीतिक विश्लेषण : परंपरागत उपागम

परिचय

साधारणत: एक ‘उपागम’ से तात्पर्य किसी-वस्तुविशेष के अभिप्राय एवं विशेष संदर्भ में उसकी व्याख्या से है। इसका दायरा अत्यधिक विस्तृत भी हो सकता है, जैसे एक पूरे देश की राजनीति अथवा संकीर्ण भी हो सकता है, जैसे क्षेत्रीय, स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के कुछ मुद्दे।

राजनीति के अध्ययन के कई उपागम है और कभी-कभी कुछ उपागम एक-दूसरे से मिलते-जुलते भी होते है। व्यापक परिप्रेक्ष्य में इनका वर्गीकरण दो वर्गों में हो सकता है : पारंपरिक और आधुनिक। पारंपरिक उपागम विचारात्मक एवं मूल्यात्मक प्रकृति के होते हैं तथा इसके विपरीत आधुनिक उपागम आनुभविक तथा वैज्ञानिक हैं। पारंपरिक उपागमों में सम्मिलित हैं : (i) दार्शनिक, (ii) ऐतिहासिक, (iii) औपचारिक या कानूनी, (iv)समस्यागत, (v) क्षेत्र, (vi) संस्थागत उपागम।

पारंपरिक उपागम

तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन का इतिहास यूनान से प्रारम्भ होता है एवं अरस्तु को तुलनात्मक राजनीति अध्ययन के परम्परागत उपागम का जनक माना जाता है। सबसे पहले अरस्तु ने ही 158 देशों के संविधानों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करके अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पॉलिटिक्स’ की रचना की थी। यद्यपि तुलनात्मक अध्ययन के परम्परागत पद्यति के प्रमाण अरस्तु से पहले भी पाए जाते हैं, लेकिन अरस्तु ने तुलनात्मक अध्ययन को सुव्यवस्थित आधार प्रदान किया। अरस्तु के बाद सिसरो, मैकियावेली, माण्टेस्क्यू, कार्ल मार्क्स, बार्कर, हरमन फाइनर, लास्की, कार्ल जे. फ्रेंड्रिक, मुनरो आदि विचारकों ने परम्परागत अध्ययन पद्यति को विकसित किया। इन सभी विद्वानों ने संवैधानिक संस्थाओं के ढांचे पर ही बल दिया एवं इनके अध्ययन की शैली विवरणात्मक रहीं। अध्ययन की यह शाखा यूरोप तक ही सीमित होने के कारण अत्यन्त संकुचित रही तथा इसमें मुख्यतः लिखित संविधानों एवं राजनीतिक शक्ति के संस्थागत रूप पर ही ध्यान केन्द्रित किया गया। मैक्रीडिस के अनुसार, “विदेशी सरकारों का अध्ययन विस्तृत रूप से, पश्चिमी यूरोपीय लोकतंत्रों अथवा पश्चिमी यूरोप के राज्यों तथा इंग्लैण्ड से सम्बन्धित थे।” द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात प्रस्तुत राजनीतिक परिस्थितियों में राजनीतिक संस्थाओं के ढांचे एवं उनके संस्थागत व्यवहार के बारे में सामान्य निष्कर्ष प्रस्तुत करने में अध्ययन की ये शाखा असफल सिध्द हुई।

प्रमुख परम्परागत उपागम (Major Traditional Approaches)

परम्परागत उपागम में दार्शनिक, ऐतिहासिक, औपचारिक या कानूनी, समस्यागत, क्षेत्र और संस्थागत उपागम। उपागम तीनों का अध्ययन शामिल है। इनका संक्षिप्त ब्यौरा निम्न प्रकार से है :

ऐतिहासिक उपागम ऐतिहासिक उपागम (Historical Approach)

ऐतिहासिक उपागम 19वीं सदी के अंतिम दो दशको में लोकप्रिय बना। इसकी मान्यता है कि राजनीतिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं की उपयुक्त समझ के लिए यह जरूरी है कि राज्य संस्थाओं की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की स्पष्ट जानकारी हो। इसका विशेषता है कि यह राज्य तथा उसकी संस्थाओं को उनके परिवर्तन की प्रक्रिया के संदर्भ में समझने का प्रयास करता है। ऐतिहासिक उपागम के संबंध में सबसे बड़ी समस्या यह है कि विभिन्न लेखको द्वारा ऐतिहासिक घटनाओं को विभिन्न रूपों में व्याख्यायित किया गया है आलोचकों का मत है की अतीत की घटनाओं एवं अनुभवों को आवश्यकता से अधिक महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिए क्योकि इतिहास की सदैव पुनरावृति नहीँ होती।

किंतु, ऐतिहासिक उपागम के महत्त्व को झुठलाया नहीं जा सकता क्योंकि इसके अंतर्गत राजनीतिक संस्थाओं, उनकी उत्पत्ति तथा विकास के संबंध में जानकारी प्राप्त करने में यह उपागम महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जी. एच. सेबाइन, मैकलेनिन, ए.जे. कार्लाइल, कैटलिन, डॅनिंग तथा अनेक विचारकों ने इस उपागम के महत्त्व को समझा एवं अपनाया है। ऐतिहासिक उपागम इस प्रकार प्लेटो तथा अरस्तू से लेकर आधुनिक काल में लास्वैल, रॉल्स, नोजिक आदि महत्त्वपूर्ण विचारकों द्वारा अपनाया गया।

औपचारिक अथवा कानूनी/वैधानिक उपागम (FormalLegal Approach)

यह उपागम राज्य के कानूनी एवं न्यायिक पक्षों के अध्ययन पर बल देता है। इस उपागम के अन्तर्गत संविधानों, सरकारों, तथा उनकी संरचनाओ का तुलनामक अध्ययन किया जाता है। इसके अतिरिक्त  इसमें लोक-प्रशासन एवं नौकरशाही का भी अध्ययन किया जाता है। जो राजनीतिक सिद्धांतकार इस उपागम में विश्वास रखते हैं, वे राज्य को प्रभावी तथा समतापूर्ण कानूनी व्यवस्था के सरंक्षण एवं लागू करने पर बल देते हैं। अतः यह उपाग़म राज्य को मुख्य रूप से एक ऐसा संगठन मानता है जो कानून के निर्माण और उसको लागू करने का साधन है।

जीन बोदां और हाब्स, जिन्होंने प्रभुसत्ता की अवधारणा को प्रतिपादित किया इस उपागम के प्रारंभिक समर्थक थे। दोनों विचारको का मत था कि संप्रभु सर्वोच्च कानून निर्माता ही नहीं है, बल्कि उसका आदेश ही कानून है। बेन्थम, ऑस्टिन, विल्सन एवं डायसी जैसे विद्वानों की रचनाएं इसी श्रेणी में आती हैं।

इस उपागम की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि इसमें औपचारिक संस्थाओ, कानूनों एवं संविधानो पर आवश्यकता से अधिक बल दिया जाता है एवं अन्य सामाजिक-आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक कारको को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है। जैसे ब्रिटेन में सैध्दांतिक रूप से संसद सर्वोच्च है, किन्तु व्यवहारिक रूप में ऐसा नहीं है। प्राय: कानून लोगों के जीवन के केवल एक ही पक्ष पर बल देता है। इस प्रकार राजनीतिक मानव के समस्त व्यवहार को यह प्रतिबिंबित नहीं करता।

समस्यागत उपागम (Problem Approach)

तुलनात्मक उपागम के परम्परागत उपागम के अंतर्गत सैकड़ो समस्याओं को उठाया गया एवं उनके अंतर्संबंध के अंतर पर जोर दिया गया। जैसे ‘लोकतंत्र और आर्थिक नियोजन में संबंध’, ‘प्रशासकीय निकायों का विकास’ आदि इनके मुख्य विषय थे। इस उपागम के अध्ययन में औपचारिक संस्थाओं तथा संरचनाओं पर बल देते हुए सुधार एवं पुनर्गठन का समर्थन किया गया। कुछ लेखकों ने औपचारिक संस्थाओं में सुधार भी दिए जैसे कि लार्ड सभा का पुनर्गठन, लोकतान्त्रिक      व्यवस्थाओं में लोकतंत्र विरोधी दलों के विकास को रोकने हेतु उपाय ढूँढना इत्यादि।

इस उपागम के आलोचकों का मत है की मनुष्यों के व्यवहार और राजनीतिक संस्थाओं एवं अन्य सामाजिक–आर्थिक कारकों को देखे बिना संस्थागत समस्या को समझना कठिन है।

क्षेत्र उपागम (Area Approach)

तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन के क्षेत्र में द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् अधिकांश विद्वानों ने विकासशील देशों की राजनीति को अपने अध्ययन का विषय बनाया, क्योकि द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात अमेरिका और सोवियत संघ में मध्य शीत-युद्ध शुरू हो गया। दोनों महाशक्तियां लगातार आपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में विस्तार के प्रयास में लग गई। इसी सन्दर्भ में पश्चिमी विद्वानों ने अनेक गैर-पश्चिमी समाजो के अध्ययन पर बल दिया। इस प्रकार क्षेत्र उपागम की लोकप्रियता दिनोंदिन बढती गई। मैक्रिडिस का मत है की, सांस्कृतिक एकरूपता वाले देशों के समूह को एक क्षेत्र माना जा सकता है। इस क्षेत्र में शामिल देशों की राजनीतिक संस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है। क्षेत्रीय उपागम के आधार पर विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओ के विषय महत्त्वपूर्ण तथ्यों को हासिल किया जा सकता है। जैसे, उन परिस्थितियों को जाना जा सकता है जो किसी भी देश में लोकतंत्र को सफल बनाने में लाभदायक हो सकती है अथवा सैनिक तानाशाही किन परिस्थितियों में तथा किस प्रकार स्थापित होती है, आदि।

अन्य उपागमों की तरह क्षेत्र उपागम भी आलोचना मुक्त नहीं है। भौगोलिक निकटता देशों के मध्य या राजनीतिक व्यवस्थाओ के संदर्भ में किसी भी प्रकार ऐतिहासिक, सांस्कृतिक या जातीय समानता की परिचायक नहीं हो सकती।

संस्थागत–कार्यात्मक/ प्रकार्यात्मक उपागम (Institutional-Functional Approach)

तुलनात्मक राजनीति का यह उपागम लगभग 1930 के दशक से लोकप्रिय होना शुरू हुआ। इसके अंतर्गत विभिन्न संस्थाओं (विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका) एवं उनके द्वारा संपादित कार्यों के अध्ययन पर बल दिया जाता है। यहां संस्था का अभिप्राय, व्यवहार के द्वारा स्थापित एकरूपता है। जबकि कार्यात्मक का अर्थ संस्थाओं द्वारा संपादित कार्य है। विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्पादित कार्यों पर तुलनात्मक अध्ययन केवल वर्णनात्मक होता है। हर्मन फाइनर, कार्ल फ्रेडरिक, मोरिस डूवर्जर, के.सी. ह्वीयर आदि विचारकों ने इस अध्ययन पध्दति को अपनाया है।

तुलनात्मक राजनीति को आधुनिक रूप प्रदान करने में संस्थागत-कार्यात्मक उपागम ने विशेष योगदान दिया, किन्तु फिर भी इस उपागम  कि कई आधारों पर आलोचना की गई है। आलोचकों का मत है कि यह इसका अध्ययन बहुत संकुचित है। राजनीतिक व्यवस्था की औपचारिक तथा अनौपचारिक संगठनों को क्रियाशील बनाने में मानव की भूमिका को नजरअंदाज करता है। इसके अतिरिक्त यह राजनीतिक व्यवस्था के अनौपचारिक संगठनों जैसे दबाव समूहों का विश्लेषण नहीं करता और न ही यह सामाजिक संदर्भो में संस्थाओं की क्रियाप्रणाली पर ध्यान देता है। यह भी तर्क दिया जाता है कि यह उपागम अत्यधिक संस्कृतिबद्ध है क्योंकि यह मात्र यूरोप तथा अमरीका की संस्थाओं के विश्लेषण पर ही बल देता है।

परम्परागत उपागम की विशेषताएं (Characteristics of Traditional Approach)

परम्परागत उपागम की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :

  • प्रधानतः अतुलनात्मक अध्ययन (Essentially Non-Comparative study) उपरोक्त चर्चा में हमें जाना कि अरस्तु ने 158 संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन किया था। परन्तु उन्होंने ऐसे अध्ययन तुलनात्मक विधि द्वारा नहीं किया था। यदि तुलनात्मक विधि का प्रयोग किया जाता तो 158 संविधानों की समानताओं एवं असमानताओं की चर्चा भी अवश्य कि जाती। इसी प्रकार अरस्तु के पश्चात् अन्य विचारको ने भी विभिन्न देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं तथा संस्थाओं का अध्ययन विशेषत: तुलनात्मक विधि के प्रयोग द्वारा नहीं किया था। विभिन्न देशों की संस्थाओं का अध्ययन करने का तात्पर्य तुलनात्मक अध्ययन नहीं होता। तुलनात्मक अध्ययन हेतु तुलनात्मक पद्यति का प्रयोग किया जाना आवश्यक है। इस उद्देश्य के लिए उन तथ्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता जो तथ्य अराजनीतिक होते हुए भी राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप को प्रभावित करते है। इस विचारधारा के अधिकांश विद्वानों का मुख्य उद्देश्य विभिन्न देशों के संविधान, विधायिका, कार्यपालिका का औपचारिक तथा संस्थागत विवेचन करना मात्र था।
  • प्रधानतः वर्णनात्मक अध्ययन (Essentially Descriptive study)– किसी एक रचना/अध्ययन में पाँच या इससे अधिक देशों की संवैधानिक प्रणालियों का विवरण देने से तुलनात्मक अध्ययन नहीं हो जाता। यह तो वर्णनात्मक अध्ययन ही होगा क्योंकि विश्लेषण कर्ता ने एक के पश्चात् दूसरी संवैधानिक व्यवस्थाओ का मात्र वर्णन ही किया होता है। यह वर्णन भी सरकार के विभिन्न अंगों की संवैधानिक व्यवस्था, उनके संगठन, कार्यों तथा शक्तियों से सम्बंधित होता था। इसके अंतर्गत उन सामाजिक–आर्थिक तथ्यों के प्रति कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था जो किसी सरकार की संस्थाओं के संरचनात्मक एवं कार्यात्मक पक्ष पर अत्यधिक प्रभाव डालते हैं। इसमें वैज्ञानिकता का पुष्टि नहीं है। इस उपागम के अन्तर्गत राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन ऐतिहासिक और कानूनी दृष्टिकोण से करके सामान्यीकरण के प्रयासों से बचा गया है। अतः परम्परागत उपागम का स्वरूप वर्णनात्मक ही रहा, विश्लेषणात्मक नहीं।
  • प्रधानतः सीमित अथवा संकुचित अध्ययन (Essentially Parochial study) : परम्परागत अध्ययन का विषय क्षेत्र बहुत ही सीमित तथा संकुचित रहा है, इस अध्ययन में मुख्यत: यूरोप व अमेरिका की शासन व्यवस्थाओं का ही अध्ययन एवं विश्लेषण किया गया है। इस अध्ययन में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों की शासन व्यवस्थाओं का विश्लेषण करने का प्रयास नहीं किया गया है। इस अध्ययन में अलोकतंत्रीय शासन व्यवस्थाओं के अध्ययन को भी आवश्यक नहीं समझा गया। फ्रांस, अमेरिका, इंग्लैंड, स्विट्जरलैंड की लोकतंत्रीय व्यवस्थाओं को वास्तविक लोकतंत्र मानकर अन्य प्रकार के लोकतंत्र को अलोकतंत्रीय तथा दोषपूर्ण माना गया है। इस प्रकार परम्परागत अध्ययन गैर-यूरोपियन राजनीतिक व्यवस्थाओं से दूर रहने के कारण अत्यन्त सीमित या संकुचित रहा।
  • प्रधानतः स्थिर अथवा गतिहीन अध्ययन (Essentially Static study) – परम्परागत अध्ययन राजनीतिक संस्थाओं का कानूनी दृष्टिकोण से अध्ययन करता है। यह राजनीतिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली तथा राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्वों; दबाव समूह, चुनाव, जनमत इत्यादि पर कोई ध्यान नहीं देता। वास्तव में राजनीतिक व्यवहार के गैर-राजनीतिक तत्वों का भी तुलनात्मक राजनीतिक विश्लेषण में महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए परम्परागत उपागम स्थिर एवं गतिहीन है, क्योंकि यह परिवर्तन के किसी भी रूप का विरोधी है। अतः राजनीतिक व्यवस्थाओं की गत्यात्मक शक्ति को समझने में यह उपागम प्रायः असफल ही रहा है।
  • प्रधानतः प्रबन्धात्मक अध्ययन (Essentially Monographic study) – परम्परागत उपागम विशेष रूप से किसी एक विशेष शासन पद्धति अथवा किसी विशिष्ट संस्था के अध्ययन से ही सम्बन्धित है। हैरोल्ड लास्की, जेम्स ब्राईस, ए.वी. डासयी, वुडरो विल्सन इत्यादि लेखकों की रचनाएं देश-विशेष की राजनीतिक संस्थाओं के कानूनी-औपचारिक अध्ययन तक ही सीमित है। जैसे कि डायसी ने इंग्लैण्ड की तथा विल्सन ने अमेरिका की राजनीतिक संस्थाओं का ही अध्ययन किया है, अन्य किसी देश की राजनीतिक संस्थाओं का नहीं। इसलिए परम्परागत उपागम मुख्य रूप से प्रबन्धात्मक हैं।
  • मुख्यतः आदर्शी/ मानकीय अध्ययन- (Primarily Normative study) – इस उपागम के विचारकों ने स्वयं की मान्यताओं के आधार पर विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं का वर्णन किया है तथा इन्हीं मान्यताओं की कसौटी पर राजनीतिक व्यवस्थाओ को परखा। उदाहरणस्वरूप इस दृष्टिकोण के समर्थकों ने लोकतन्त्र को उन्हीं देशों ने उपयुक्त माना है, जहाँ दो दलों का अस्तित्व हो। इसीलिए उन्होंने बहुदलीय प्रणाली वाले लोकतन्त्रीय देशों या संवैधानिक आदर्शों से पथ-भ्रष्ट शासन प्रणालियों का अध्ययन नहीं किया।
  • मुख्यतः औपचारिक-संस्थागत अध्ययन- (Primarily legalisticinstitutional study)– इस उपागम के विचारकों ने औपचारिक संस्थाओ का ही वर्णन किया एवं इन्होनें इस बात को जानने का कोई प्रयत्न नहीं किया कि संविधान द्वारा स्थापित संस्थाए व्यवहार में किस प्रकार कार्य करती है।

संक्षेप में, परम्परागत राजनीति का लक्ष्य मुख्यत: राजनीतिक संस्थाओं के कानूनी एवं औपचारिक अध्ययन तक ही सीमित रहा। इसमें गैर-यूरोपीय राष्ट्रों की राजनीतिक व्यवस्थाओं को कोई स्थान न मिल पाने के कारण यह उपागम अत्यंत अनुदार एवं संकुचित बन गया। गैर-राजनीतिक तत्वों की उपेक्षा करने के कारण यह गतिहीनता का शिकार हो गया एवं यह तुलनात्मक अध्ययन की परिधि से मुख्यत: बाहर ही रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् उत्पन्न राजनीतिक परिस्थितियों के संदर्भ में राजनीतिक संस्थाओं के अध्ययन व व्यवहार की व्याख्या करने में यह दृष्टिकोण असफल सिद्ध हुआ। इसी कारण परम्परागत राजनीतिक दृष्टिकोण को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा तथा एक नए एवं आधुनिक दृष्टिकोण की आवश्यकता अनुभव हुई।

परम्परागत उपागम की आलोचना (Criticisms of Traditional Approach)

परम्परागत अध्ययन संकीर्ण एवं स्थिर होने के कारण अनेक आलोचनाओं का शिकार हुआ है। राजनीतिक व्यवहार की गत्यात्मकता के अध्ययन में असफल रहने के कारण इसकी अनेक आधारों पर आलोचना की गई है, जो निम्नलिखित हैं-

  • तुलनात्मक राजनीति के परम्परागत उपागम का संबंध लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं तक ही सीमित रहा तथा इसमें गैर-लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की उपेक्षा की गई। इस दृष्टिकोण द्वारा केवल पाश्चात्य राजनीतिक व्यवस्थाओं के प्रजातन्त्रीय स्वरूप का ही अध्ययन किया गया। भारत, जापान जैसे देशो का अध्ययन करने में यह असफल रहा। केवल कुछ चुनिन्दा शासन व्यवस्थाओ पर आधारित होने के कारण इस अध्ययन पद्धति को तुलनात्मक नहीं कहा जा सकता।
  • इस उपागम का अध्ययन केन्द्र यूरोपीय देशों विशेषकर इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा अमेरिका जैसे देशों तक ही सीमित रहा। इसमें एशिया, अफ्रीका एवं लेटिन अमेरिका के देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन नहीं किया गया। जिस कारण इसे आलोचनाओं का सामना करना पड़ा।
  • तुलनात्मक राजनीति अध्ययन में राजनीतिक व्यवहार के अनौपचारिक एवं गैर-राजनीतिक तत्त्वों की उपेक्षा करने के कारण इस दृष्टिकोण पर संकुचित होने का आरोप है। इस अध्ययन का मुख्य बल संस्थाओं, कानूनों, विधियों, राजनीतिक विचारों एवं विचारधारा पर ही रहा तथा उनके कार्य, अन्तःक्रिया, व्यवहार एवं उपलब्धियों की नजरंदाज़ किया गया है।
  • परम्परागत उपागम का संबंध राजनीतिक संस्थाओं के नाममात्र ही तुलनात्मक अध्ययन से रहा। इसका स्वरूप वर्णात्मक अधिक था और विश्लेषणात्मक कम। इसमें शासन की संस्थाओं का वर्णन तो किया गया तथा उनमें समानान्तर तत्वों की खोज भी की गई, लेकिन तुलना के संदर्भ में राजनीतिक शक्ति के संगठन एवं प्रयोग की उपेक्षा की गई।
  • परम्परागत उपागम में राजनीतिक व्यवस्थाओं का सैद्धान्तिक अध्ययन किया गया एवं उनके व्यवहारिक पहलू की उपेक्षा की गई। इस परम्परा में राजनीतिक संस्थाओं का कानूनी एवं औपचारिक दृष्टिकोण के आधार पर अध्ययन किया गया। इस दृष्टिकोण में राजनीतिक व्यवहार की पूर्णत: उपेक्षा किये जाने के कारण इसे अधूरा उपागम भी कहा जाता है।
  • इस उपागम द्वारा राजनीतिक संस्थाओं में समानताएं एवं असमानताएं तो तलाश कर ली गई, लेकिन उनके कारणों को जानने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया। आलोचकों का मत है कि परम्परागत अध्ययन द्वारा तथ्यों का संकलन तो कर लिया गया, लेकिन उनके सत्यापन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
  • परम्परागत उपागम के विद्वानों द्वारा अंत: अनुशासनात्मक पद्यति की उपेक्षा कि गई है और इस कारण यह अध्ययन एवं इसके निष्कर्ष कई बार सही नहीं निकले। इसने समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और मानवशास्त्र के क्षेत्र में हो रहे नवीन खोजों, पद्धतियों को नजरअंदाज किया। परिणामस्वरूप यह उपागम वैज्ञानिक पद्धति का विकास करने में असफल रहा।

निष्कर्ष

उपरोक्त आलोचनाओ के आधार पर कहा जा सकता है कि तुलनात्मक राजनीति का परम्परागत उपागम वर्तमान जटिल राजनीतिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करने में असफल रहा। आज राजनीतिक व्यवस्थाओं के अध्ययन के संदर्भ में राज्य की प्रकृति, कार्यों एवं महत्व में हुए परिवर्तनों ने परम्परागत उपागम को अपर्याप्त बना दिया है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र एवं प्रकृति आए बदलाव ने परम्परागत उपागम को अप्रासंगिक बना दिया है। आज आधुनिक उपागम ने तुलनात्मक राजनीति को वैज्ञानिक आधार प्रदान कर दिया है तथा यह स्वतन्त्र अनुशासन के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है।

इस प्रकार हम कह सकते है कि परम्परागत उपागम अनेक दोषों से परिपूर्ण है, किन्तु फिर भी उसे निरर्थक एवं महत्वहीन नहीं माना जा सकता। इस उपागम ने लम्बे समय तक राजनीतिक संस्थाओं का कानूनी-औपचारिक अध्ययन करके राजनीति के अध्ययन को महत्वपूर्ण दिशा प्रदान कि है। आज जिन नवीन तुलनात्मक अध्ययन के उपागमों का उद्भव हुआ है, वह परम्परागत उपागम द्वारा संकलित तथ्यों के अध्ययन पर ही आधारित है। वर्तमान में राजनीति विज्ञान का जो व्यापक स्वरूप आज हमारे सामने हैं, उसकी जड़ें परम्परागत अध्ययन में है। निसंदेह वर्तमान युग में जटिल राजनीतिक व्यवस्थाओं की प्रकृति के अध्ययन हेतु यह दृष्टिकोण अधिक उपयोगी नहीं रहा है, लेकिन फिर भी इसे पूर्णतया अप्रासंगिक नहीं माना जा सकता।

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