देतांत : अर्थ एवं परिभाषा,कारण, निर्धारक तत्व, प्रभाव
परिचय
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के बदलते परिवेश में सोवियत संघ और अमेरिका के संबंधों में 1962 के क्यूबा मिसाइल संकट के पश्चात् एक नवीन मोड़ आया। क्योंकि 1960 के यू-2 विमान कांड तथा क्यूबा कांड ने विश्व को तीसरे विश्वयुद्ध के कगार पर ला खड़ा किया था। परंतु इस समय तक आते-आते दोनों ही महाशक्तियों ने यह अनुभव किया कि परमाणु हथियारों के युग में किसी भी गुट को युद्ध में विजय नहीं प्राप्त होगी। परिणामस्वरूप अमेरिका तथा सोवियत संघ के तात्कालिक नेतृत्व की कार्य-शैली एवं चिंतन में परिवर्तन हुआ और शीतयुद्ध के शत्रुतापूर्ण संबंध सहयोग व शांतिपूर्ण सह-अस्तित्त्व की दिशा में बढ़ने लगे। अमेरिका और सोवियत संघ के संबंधों में इस नए दौर को नरमी या तनाव में कमी कहा गया, जिसको देतांत या तनाव-शैथिल्य (सोवियत-अमेरिकी मैत्री एवं सहयोग : Detente) की संज्ञा दी जाती है।
देतांत का अर्थ एवं परिभाषा
देतांत फ्रेंच भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है; तनाव में शिथिलता (Relaxation of Tensions)। ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी डिक्शनरी में दो राज्यों के तनावपूर्ण संबंधों की समाप्ति को देतांत कहा गया है। इसे शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व भी कहा जा सकता है। हंस जे. मोर्गेंथाऊ के मतानुसार देतांत के पीछे प्रमुख कारण दोनों महाशक्तियों के मध्य ‘परमाणु संतुलन’ का होना था। उनके शब्दों में “देतांत शांति का जनक नहीं है, बल्कि आणविक-संतुलन ही शांति और देतांत दोनों का जनक है।” (Thus it is not detente that makes for peace, but it is the nuclear balance that makes both for detente and peace.)
अंतराष्ट्रीय संबंधों में प्रायः देतांत का प्रयोग अमेरिका और सोवियत संघ के मध्य द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् उत्त्पन्न हुए तनाव में कमी तथा उनमें बढ़ने वाले सहयोग एवं शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना के लिए किया जाता है।
देतांत के कारण (Causes of Detente)
देतांत व्यवहार के निर्धारक घटक/तत्त्व (Determinants of Detente Behaviour)
देतांत या तनाव शिथिलता की प्रक्रिया कोई आकस्मिक संयोग या घटना का प्रतिफल नहीं थी, अपितु इसके पीछे राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य, व्यक्तिगत एवं मनोवैज्ञानिक कारण रहे हैं। सोवियत संघ व अमेरिका के मध्य मैत्री एवं सहयोग (देतांत) की भावना के विकास में निम्नलिखित घटकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
- आर्थिक विकास का सवाल : क्यूबा मिसाइल संकट ने दोनों को भविष्य की झलक दिखा दी कि वे परस्पर उलझकर अपनी अर्थव्यवस्थाओं को पतन की ओर ले जा रहें हैं। सोवियत संघ ने इस विषय की गंभीरता को समझते हुए अपने आर्थिक विकास की आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति पर बल दिया।
- कच्चे माल की आवश्यकता : अमेरिका ने यह अनुभव किया कि उसके उद्योगों को गति प्रदान करने के लिए कच्चा माल सोवियत संघ से हासिल किया जा सकता है। उसकी अर्थव्यवस्था का विकास कच्चे माल पर ही आधारित है। सोवियत संघ से व्यापारिक संबंध बढ़ाने से ही कच्चा माल हासिल कर लाभ उठाया जा सकता है। इसी कारण से अमेरिका ने संघर्ष का मार्ग छोड़ने की नीति का अनुसरण किया।
- राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में बदलाव : महाशक्तियों ने यह अनुभव किया कि जन-कल्याण को बढ़ावा देने, गरीबी निवारण, नागरिकों का जीवन-स्तर सुधारने के लिए परस्पर तकनीकी सहयोग द्वारा राष्ट्रीय प्राथमिकताओं का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। संघर्ष या युद्ध की अवस्था में राष्ट्रीय हितों में वृद्धि कर पाना असंभव था। इसे तो केवल शांतिपूर्ण वातावरण में ही विकसित किया जा सकता था।
- परमाणु युद्ध का आतंक: परमाणु हथियारों की भयानकता ने दोनों महाशक्तियों को सचेत कर दिया कि ये युद्ध विनाशकारी परिणाम वाले सिद्ध होंगे तथा दोनों राष्ट्रों में जन-धन की अपार हानि हो सकती थी। इस भय और आतंक के कारण दोनों महाशक्तियां शांति की दिशा में पहल करने लग गई।
- तीसरे विश्वयुद्ध का भय : शीतयुद्ध का वातावरण कभी भी तीसरे विश्वयुद्ध में परिवर्तित हो सकता था। इस आशंका ने दोनों महाशक्तियों को शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति अपनाने के लिए मजबूर कर दिया।
- मित्र राष्ट्रों से निराशा : चीन और सोवियत संघ में भी परस्पर मतभेद सामने आने लगते हैं। सोवियत संघ ने अनुभव किया कि चीन का सामना करने हेतु पश्चिमी राष्ट्रों से मित्रता करना आवश्यक है। इसलिए सोवियत संघ ने अमेरिका विरोधी नीति का त्याग कर मैत्रीपूर्ण व्यवहारिक नीति का अनुसरण किया।
- स्थायी शांति का विचार : दोनों महाशक्तियां लम्बे समय से परस्पर तनाव को बढ़ा रही थी। इस संघर्षपूर्ण तनाव के कारण न तो उनके राष्ट्रीय हितों में वृद्धि संभव थी और न ही स्थायी शांति की स्थापना की कल्पना की जा सकती थी। स्थायी शांति के बगैर आर्थिक विकास संभव नहीं था। अत: दोनों महाशक्तियां परस्पर संघर्षपूर्ण नीति के स्थान पर सहयोग का रास्ता अपनाने हेतु सहमत हो गई।
- निर्गुट राष्ट्रों की भूमिका : गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने महाशक्तियों को शीतयुद्ध से बाहर निकलने के लिए प्रेरित किया। दोनों महाशक्तियों के गुट में शामिल राष्ट्र एक-एक करके गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सदस्य बनने लग गए। परिणामस्वरूप दोनों गुटों को विश्व राजनीति में अपनी पकड़ ढीली होती नजर आई। अत: वे अपने संघर्ष की काल्पनिक दुनिया छोड़कर यथार्थ दुनिया में कदम रखने को तैयार हो गए। उन्होंने गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों की भूमिका की सराहना की। परिणामस्वरूप दोनों महाशक्तियों में व्याप्त तनाव कम होने लगे।
- द्विध्रुवीकरण के स्थान पर बहुकेंद्रवाद का उदय : सन् 1963 के बाद ब्रिटेन, फ्रांस तथा चीन परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बन गए। भारत, जापान, जर्मनी जैसी शक्तियां भी आर्थिक तथा राजनीतिक शक्ति के केंद्र के रूप में उभरने लगे। सन् 1975 में भारत ने भी परमाणु शक्ति प्राप्त करके, महाशक्तियों को अपने वजूद का अहसास करा दिया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति अब द्विध्रुवीकरण (Bipolarity) के स्थान पर बहुकेंद्रवाद (Poly- Centrism) में परिवर्तित होने लगा। इससे विश्व राजनीति का दो गुटों में विभाजन का विचार विखंडित होने लगा। परिणामस्वरूप दोनों गुटों ने संघर्ष का मार्ग त्याग कर अपने आपको अंतर्राष्ट्रीय विश्व में नई भूमिका निभाने हेतु तैयार किया।
इस प्रकार दोनों महाशक्तियों के मध्य व्याप्त शीतयुद्ध धीरे-धीरे देतांत की दिशा में मुड़ने लगा तथा नवीन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का वातावरण निर्मित हो गया जिसमें भय व तनाव की जगह शांति व मैत्रीपूर्ण नीति को प्राथमिकता दी गई।
देतांत के प्रयास (Efforts for Detente)
पिछले आर्टिकल में चर्चा हो चुकी है….
देतांत का अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर प्रभाव
महाशक्तियों के मध्य देतांत व्यवहार के कारण तनावपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय वातावरण में कमी आई। अंतर्राष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा की संभावनाओं में वृद्धि हुई; द्विध्रुवीकरण बहुकेन्द्रवाद में परिवर्तित हो गया; किसी गुट से संबद्ध राष्ट्रों को अपने राष्ट्रीय हितों का अनुसरण करने का मौका मिला; मिसाइलों व परमाणु हथियारों को नियंत्रित एवं उन्हें सीमित करने में सहायता मिली; परस्पर विरोधी खेमों के राष्ट्रों में संपर्क बढ़ाने, मेल-मिलाप करने एवं राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, तकनीकी आदि क्षेत्रों में सहयोग करने की संभावनाओं का विकास हुआ। अतः सोवियत संघ और अमेरिका के मध्य सहयोग तथा मैत्रीपूर्ण संबंधों का अंतर्राष्ट्रीय संबंधो पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ा :
- देतांत से महाशक्तियों के मध्य सहयोग तथा मैत्रीपूर्ण संबंधों का विकास हुआ।
- इससे विखंडित यूरोप का एकीकरण हुआ तथा सांस्कृतिक एवं व्यापारिक आदान-प्रदान में वृद्धि हुई।
- इससे परमाणु हथियारों पर नियंत्रण के प्रयास तेज हो गए।
- इससे आतंक का संतुलन समाप्त हो गया तथा तीसरे विश्वयुद्ध के भय से आज़ादी मिल गई।
- इससे गुटबंदी को गहरा आघात पहुंचा। दोनों गुटों में सम्मिलित राष्ट्र भी स्वतंत्रता हेतु प्रयास करने लगे।
- इससे संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका में बढ़ोतरी हुई।
- इसने गुट निरपेक्षता को अप्रासांगिक बना उसके अस्तित्त्व पर सवाल खड़ा कर दिया।
निष्कर्ष
इस प्रकार हम कह सकते है की देतांत के कारण शीतयुद्ध के स्थान पर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना का विकास हुआ। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति से शत्रुतापूर्ण एवं संघर्षपूर्ण वातावरण का अंत हुआ। रचनात्मक पुनर्निर्माण एवं सहयोग के नवीन युग का प्रादुर्भाव हुआ। देतांत की उभरती हुई प्रवृत्तियों के फलस्वरूप तीसरे विश्वयुद्ध के संभावित कारणों का अंत होने लगा तथा महाशक्तियों की जनता शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए आशांवित हुई। नि:शस्त्रीकरण के क्षेत्र में सहयोग की वृद्धि हुई तथा परमाणु युद्ध की आशंका कम होने लगी।
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