गुप्तोत्तर काल में भारतीय समाज
(Indian Society in the Post-Gupta Period)
परिचय (Introduction)
गुप्तोत्तर काल में भारतीय समाज में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। भारतीय इतिहास में हर्ष की मृत्यु के बाद से लेकर राजपूत वंशों के शासन तक (650-1200 ई.) का काल सामान्यतः पूर्व मध्यकाल माना जाता है। इसका प्रथम चरण (650-1000 ई.) को आर्थिक दृष्टि से पतन का काल कहा जाता है। इस काल में व्यापार और वाणिज्य का पतन हुआ। रोम साम्राज्य के पतन हो जाने के कारण पश्चिमी देशों के साथ भारत का व्यापार बन्द हो गया। इस्लाम के उदय के कारण भी भारत का स्थल मार्ग से होने वाला व्यापार प्रभावित हुआ।
इस समय नगर और नगरीय जीवन में भी पतन हुआ। नगरों के पतन के कारण व्यापारी ग्रामों की ओर आकर्षित हुए। भारत में इस समय अनेक आर्थिक और प्रशासनिक ईकाइयाँ संगठित हो गयीं जो अपने आप में स्वतंत्र थीं। व्यापार-वाणिज्य के पतन के कारण व्यापारी और कारीगर एक ही स्थान पर रहने के लिये मजबूर हुए तथा उनका एक स्थान से दूसरे स्थान में आना-जाना प्रायः बन्द हो गया।
अतः इस काल की अर्थव्यवस्था अवरुद्ध हो गयी और एक ऐसे समाज का उदय हुआ जिसमें ग्रामीण क्षेत्र आर्थिक दृष्टि से धीरे-धीरे आत्मनिर्भर होते गए।
इन ग्रामीण क्षेत्रों को अपनी जरूरत की वस्तुऐं स्वयं उत्पन्न करनी पड़ती थीं। ग्रामों में रहने वाले व्यापारी और कारीगर ग्रामीण उपभोक्ताओं के उपयोग के लिये ही वस्तुओं का निर्माण करते थे।
पूर्व मध्यकाल के द्वितीय चरण (1000-1200 ई.) में व्यापार और वाणिज्य की स्थिति में सुधार हुआ। दसवीं शताब्दी के बाद भारत का व्यापार पश्चिमी देशों के साथ पुनः तेज़ हो गया जिससे भारत की आर्थिक प्रगति को प्रोत्साहन मिला।
भारत में मुस्लिम सत्ता स्थापित हो जाने के बाद से मुसलमान व्यापारियों की गतिविधियाँ तेज़ हुई जिसके कारण उत्तरी भारत में व्यापार और वाणिज्य की भी प्रगति हुई। 12वीं शताब्दी तक देश आर्थिक दृष्टि से पुनः समृद्ध हो गया। गुप्तोत्तर काल में सामाजिक परिवर्तन निम्नलिखित है-
सामन्तवाद (Feudalism)
पूर्व मध्यकालीन भारतीय समाज में एक विशिष्ट वर्ग का उदय हुआ जिसे ‘सामन्त’ कहा गया। यद्यपि भारत में सामन्तवाद की शुरुआत शक- कुषाण काल में हुई किंतु इसका पूर्ण विकास पूर्व मध्य काल में ही हुआ। इस काल की राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों ने सामन्तवाद के विकास के लिये उपयुक्त आधार प्रदान किया।
बाहरी आक्रमणों के कारण केन्द्रीय सत्ता कमज़ोर हुई और चारों ओर राजनीतिक अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गयी। केन्द्रीय शक्ति की निर्बलता ने समाज में प्रभावशाली व्यक्तियों का एक ऐसा वर्ग तैयार किया जिनके ऊपर स्थानीय सुरक्षा का भार आ पड़ा। अरबों और तुर्कों के आक्रमणों ने शक्तिशाली राजवंशों का पतन कर दिया। परिणामस्वरूप उत्तर भारत में कई छोटे-छोटे राज्यों का उदय हो गया। इससे सामन्तवाद की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला।
सामन्तवाद के विकास में प्राचीन भारतीय धर्मविजय की अवधारणा का भी योगदान रहा। कालान्तर में शासकों की विजय का उद्देश्य अधिक से अधिक अधीन शासक तैयार कर उनसे कर प्राप्त करना था। इससे भी सामंतवाद को बढ़ावा मिला।
सामन्तवाद को विकसित करने में आर्थिक कारकों का भी महत्वपूर्ण स्थान था। इस समय राजनीतिक अव्यवस्था के कारण व्यापार और वाणिज्य का पतन हुआ जिससे अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर निर्भर हो गयी। बड़े भूस्वामी आर्थिक स्रोतों के केन्द्र बन गये। समाज में भूसम्पन्न कुलीन वर्ग का उदय हुआ। समाज के बहुसंख्यक शूद्र और श्रमिक रोज़गार के लिये उनकी ओर उन्मुख हुए। भूस्वामियों को अपने खेतों पर काम करने के लिये बड़ी संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता थी। आर्थिक परिवर्तन की इस प्रक्रिया ने सामंती व्यवस्था को बढ़ावा दिया।
सामन्तवाद के विकास में तत्कालीन शासकों द्वारा प्रदत्त ग्राम और भूमि अनुदानों का भी प्रमुख योगदान रहा है। शासकों द्वारा अपने कुल के व्यक्तियों और संबंधियों को विभिन्न प्रान्तों में उपराजा या राज्यपाल नियुक्त करने की प्रथा से भी सामन्तवाद को आधार प्रदान किया।
समाज में धीरे-धीरे ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती गयी जिन्हें भूमि से दूसरे के श्रम पर पर्याप्त आय प्राप्त होने लगी। राजपूत काल में सामन्तों के छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये जो अपनी शक्ति और प्रभाव बढ़ाने के लिये परस्पर संघर्ष में उलझ गये। इन्होंने व्यापार और वाणिज्य को हतोत्साहित किया तथा आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया। सामन्त और उसके अधीनस्थों के अपने-अपने क्षेत्रों में ही व्यस्त तथा मस्त रहने के कारण स्थानीयकरण की भावना का विकास हुआ और सामाजिक गतिशीलता अवरुद्ध हो गयी।
सामन्तों के रहन-सहन का समाज के कुलीन वर्ग पर प्रभाव पड़ा। सामन्त वैभव और विलास का जीवन व्यतीत करते थे। समाज के कुलीन वर्ग ने भी इसका अनुकरण किया, जिसके कारण श्रम को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा। सामन्तों के ही समान ब्राह्मण भूस्वामी भी दास- दासियों को अपनी सेवा में रखने लगे। अतः कुलीन वर्ग दूसरे के श्रम पर निर्भर हो गया।
सामन्तवाद के उदय ने वर्णव्यवस्था को भी प्रभावित किया। कालबार्न का मत है कि सामन्तवाद के विकास से जाति व्यवस्था के बन्धन शिथिल पड़ गये और समाज उच्च एवं निम्न वर्गों का अन्तर क्रमशः समाप्त हो गया क्योंकि सामन्त किसी भी जाति के हो सकते थे, परंतु यह मत आंशिक रूप से ही सही है। वस्तुतः सामन्तवाद का भारतीय जाति व्यवस्था पर प्रभाव इतना सहज नहीं था जितना कि कालबार्न ने माना है। यहाँ सामन्तवाद का विकास चातुर्वर्ण की अव्यवस्थित स्थिति में ही हुआ। प्रो. यादव के अनुसार इस काल में सामाजिक स्तरीयकरण की दो प्रवृत्तियों को साथ-साथ चलते हुए पाते हैं। जहाँ एक ओर समाज के उच्च एवं कुलीन वर्ग द्वारा वर्ण नियमों को कठोरतापूर्वक लागू करने का प्रयास किया गया, वहीं दूसरी ओर इस युग के व्यवस्थाकारों ने विभिन्न जातियों और वर्गों के मिश्रण से बने शासक और सामन्त वर्ग को वर्णव्यवस्था में समाहित कर आदर्श एवं यथार्थ के बीच समन्वय स्थापित करने का कार्य भी किया।
इस काल में सामन्तवादी प्रवृत्तियों के अलावा भूसम्पत्ति, राजाधिकार, सामरिक गुण आदि सामाजिक स्थिति और प्रतिष्ठा के प्रमुख सूचक बन गए।
वर्णव्यवस्था (caste system)
8वीं शताब्दी से भारतीय समाज पर इस्लाम धर्म का प्रभाव परिलक्षित होने लगा। इसके सामाजिक समानता के सिद्धान्त ने वर्णव्यवस्था को चुनौती दी जिसके कारण हिन्दू समाज में रूढ़िवादिता में वृद्धि हुई।
इस काल के विचारकों और लेखकों ने इस स्थिति की तुलना कलियुग से की। समाज में शुद्धता बनाये रखने के उद्देश्य से विवाह, खान-पान आदि के नियम कठोर कर दिए गए। जिससे अन्तर्जातीय विवाहों का प्रचलन बंद हो गया और सामाजिक सम्बन्ध धीरे-धीरे संकुचित हो गये। इस समय अन्तर्जातीय खान-पान पर भी प्रतिबन्ध लग गया। ब्राह्मणों के लिये अन्य वर्णों के यहाँ भोजन करना (आपातकाल को छोड़कर) निषिद्ध कर दिया गया। इस प्रकार भारतीय समाज में भेदभाव को बढ़ावा मिला।
कलिवर्ज्य का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया जिसके अन्तर्गत विदेश यात्रा करने और विदेशियों से सम्पर्क स्थापित करने पर रोक लगा दी गयी। विभिन्न जातियों और उपजातियों की उत्पत्ति के कारण सामाजिक व्यवस्था धीरे-धीरे जटिल होती गई।
यद्यपि इस समय भी समाज में ऐसे लोग थे जिन्होंने जाति प्रथा की रूढ़ियों को मान्यता देने मना कर दिया। 11वीं-12वीं शताब्दी के जैन आचार्यों, शाक्त तान्त्रिक सम्प्रदायों, चार्वाकों ने जाति प्रथा और उसके प्रतिबंधों का विरोध करते हुए कर्म के सिद्धांत का समर्थन किया। उन्होंने ब्राह्मणों की जातिगत श्रेष्ठता का विरोध किया। इस समय राजस्थान और गुजरात में जैन धर्म काफी लोकप्रिय था। यद्यपि इसमें भी कुछ रूढ़िवादिता आ गयी थी किंतु जाति सम्बन्धी इसके विचार हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक उदार थे। जैन आचार्य अमितगति (11वीं शताब्दी) ने यह प्रतिपादित किया कि जाति का निर्धारण आचरण से होता है, जन्म या वंश से नहीं। बौद्ध ग्रन्थ लटकमेलक में भी छुआछूत और जाति व्यवस्था की आलोचना की गई है। शाक्त-तान्त्रिक और सिद्ध सम्प्रदायों ने भी जाति-प्रथा का विरोध किया। इसी प्रकार का विरोध चार्वाकों द्वारा भी किया गया। दक्षिण में लिंगायत सम्प्रदाय के आचार्य वासव ने परम्परागत जाति व्यवस्था का खण्डन करते हुए सभी मनुष्यों की समानता का उपदेश दिया।
इस प्रकार पूर्व मध्यकालीन समाज में भी उदार विचारकों और सुधारकों की कमी नहीं थी। कृत्यकल्पतरु से पता चलता है कि इस समय भी सभी जातियों के लोग तीर्थयात्रा पर जाते थे और सम्मिलित रूप से एकत्र होकर पुराण का श्रवण करते थे।
पूर्व मध्यकाल में कृषि, उद्योग, व्यापार, वाणिज्य आदि की उन्नति हुई जिसके फलस्वरूप निम्नवर्ग के लोग सामाजिक दृष्टि से हीन होने के बावजूद भी आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हो गये। उन्होंने जाति प्रथा के कड़े नियमों और प्रतिबंधों को मानने से इन्कार कर दिया और हिन्दू धर्म को त्याग कर अधिकतर लोग नास्तिक धर्म को अपना लिया। इससे समाज के उच्चवर्णों को काफ़ी निराशा हुई। सामाजिक परिवेश में हुए परिवर्तन के कारण पूर्व मध्ययुग में परम्परागत वर्णों के कर्त्तव्यों को भी नये सिरे से निर्धारित किया गया। उदाहरणस्वरूप पराशर स्मृति (600-902 ई.) में कृषि को ब्राह्मण वर्ण की वृत्ति का बताया गया है। अभी तक शास्त्रकारों ने केवल आपत्तिग्रस्त ब्राह्मण के लिये कृषि का विधान किया था। इससे ज्ञात होता है कि पूर्व मध्यकाल में अधिकांश ब्राह्मणों द्वारा कृषि करना आरंभ कर दिया गया था।
इस समय अनेक पेशेवर जातियाँ अछूतों की श्रेणी में शामिल की गई। अस्पृश्यता सम्बन्धी नियमों को पूर्व मध्यकाल में विस्तृत बना दिया गया था। अछूतों में चाण्डाल प्रमुख थे जिन्हें उनके आचरण के कारण अपवित्र माना जाता था। चर्मकार और डोम भी 12वीं शताब्दी तक अछूत माने जाने लगे। हेमचन्द्र कृत देशीनाममाला से पता चलता है कि वे बाहर निकलते समय छड़ी पीटते हुए चलते थे ताकि लोग उनके सम्पर्क से बच सकें। अतः इस काल में समाज में छुआछूत की भावना का विकास हुआ।
नये वर्गों का उदय (Rise of new classes)
इस समय भूमि अनुदानों की अधिकता के कारण हुए भूमि और शक्ति के असमान वितरण से समाज में नये वर्गों का उदय हुआ जिनके लिये वर्ण व्यवस्था में स्थान खोजने का प्रयास पूर्व मध्यकाल के व्यवस्थाकारों ने किया।
सामन्त भी अपनी स्थिति के अनुसार कई वर्गों में विभक्त थे, जिसका उल्लेख ‘अपराजितपृच्छा’ (12वीं शताब्दी) में मिलता हैं।
संभवतः सामन्त श्रेणियों में क्षत्रिय के अलावा अन्य वर्ण के भूस्वामी भी शामिल थे। व्यापारियों और कारीगरों को भी इस समय सामन्ती उपाधियाँ जैसे- ठाकुर, राउत, रणक, नायक आदि प्रदान की गयी, जिनसे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ गयी। ये केवल क्षत्रिय वर्ण तक ही सीमित नहीं थीं अपितु अन्य जाति के भूस्वामियों, सैनिक और प्रशासनिक अधिकारियों को भी प्रदान की जाती थीं।
पूर्व मध्यकाल में बढ़ते हुए भूमि-अनुदानों से सम्बन्धित कागज पत्रों को सुरक्षित रखने के लिये लिपिकों के एक विशिष्ट वर्ग का उदय हुआ जिसे ‘कायस्थ’ कहा गया।
पहले उच्चवर्णों के शिक्षित लोग जनता की राजस्व और प्रशासनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नियुक्त किये जाते थे। कायस्थ वर्ग परम्परागत लिपिकों या लेखकों का था। अभिलेखीय और साहित्यिक प्रमाणों से पता चलता है कि आठवीं शती तक कायस्थ शब्द का प्रयोग राजकीय उपाधि या पद के लिये किया जाता था। 9वीं शताब्दी से लेखों में विभिन्न कायस्थ कुलों- माथुर, गौड़, श्रीवास्तव आदि का उल्लेख मिलता है। कायस्थों के इन कुलों ने जाति का रूप धारण कर लिया तथा उनकी अलग जाति बन गयी।
कायस्थों द्वारा उच्च प्रशासनिक पद प्राप्त कर लिये जाने के कारण ब्राह्मणों का एकाधिकार समाप्त हो गया और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा को भी ठेस पहुँची। चूँकि भूमिदान सम्बन्धी अभिलेख कायस्थ पदाधिकारी ही सुरक्षित रखते थे तथा ये अधिकार ब्राह्मणों से ही सम्बन्धित थे, अतः सम्भव है उन्होंने ब्राह्मणों को परेशान किया हो। इस प्रकार ब्राह्मण कायस्थों के प्रतिद्वंद्वी बन गये और उन्होंने उन्हें ‘शूद्र’ घोषित कर दिया।
उत्तर भारत में ग्राम शासन के पदाधिकारी महत्तर भी इस समय एक विशिष्ट वर्ग के रूप में उभरे। इसी की प्रतिनिधि जातियाँ वर्तमान के समाज की मल्होत्रा, महतो, मेहता, महथा आदि हैं।
निष्कर्ष (Conclusion)
अतः पूर्व मध्यकाल में भारतीय समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था को महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ा। समाज में उत्पन्न नये वर्ग, जातियों और उप जातियों ने सामाजिक संगठन को प्रभावित किया। विभिन्न वर्णों और जातियों के लोग अपने-अपने कर्त्तव्य कर्मों के प्रति उदासीन हो गये। कुलीन वर्गों में सुख और वैभव की चाह अधिक हो गयी। सामंतवाद का विस्तार हुआ और समाज में ऊंच-नीच और छुआछूत की भावना पहले की अपेक्षा अधिक प्रबल हो गई। इस्लाम के प्रहार ने हिन्दू समाज को संकीर्ण और अन्तर्मुखी बना दिया।
“मुफ्त शिक्षा सबका अधिकार आओ सब मिलकर करें इस सपने को साकार”
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