नेहरूः धर्मनिरपेक्षता
परिचय
जवाहरलाल नेहरू एक स्वतंत्रता सेनानी एवं राजनीतिक नेता होने के साथ-साथ एक कुशल वक्ता और उच्च कोटि के लेखक भी थे। उन्हें स्वतंत्र भारत की विदेश नीति में गुट-निरपेक्षता की नीति का निर्माता एवं समाज के समाजवादी ढाँचे का प्रतिपादक कहा जाता है। इसके अतिरिक्त स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों में अटूट आस्था स्थापित करने में जवाहरलाल नेहरू का सबसे बड़ा योगदान रहा है। वे राजतंत्र, कुलीनतंत्र और अधिनायकवाद आदि सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं के कटु आलोचक थे।
जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर, 1889 को इलाहाबाद में हुआ। वे देश के प्रसिद्ध वकील मोतीलाल नेहरू के इकलौते बेटे थे। पिता मोतीलाल के व्यक्तित्व का प्रभाव नेहरू के आचरण तथा विचारों पर बाल्यकाल में ही पड़ा। पंद्रह वर्ष की आयु तक उनकी शिक्षा घर पर ही हुई। इस दौरान नेहरू के निजी शिक्षक ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। उन्होंने पूरी रुचि से उपनिषद्, गीता तथा बौद्ध साहित्य का भी अध्ययन किया। गांधी के साथ संपर्क के कारण उनकी रुचि धर्म के नैतिक पक्ष की ओर अधिक बढ़ी। सन् 1905 में उन्हें इंग्लैंड के प्रसिद्ध ‘हैरो स्कूल’ में भर्ती करवाया गया। वहां पढ़ाई के दौरान उनकी रुचि अंतर्राष्ट्रीय मामलों तथा राजनीति में उत्पन्न हुई।
सन् 1907 में उन्होंने कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में प्रवेश लिया और अध्ययन के लिए विज्ञान का विषय चुना। परंतु साहित्य, राजनीति, अर्थशास्त्र तथा इतिहास में उनकी बहुत रुचि थी। उन्होंने 1910 में केम्ब्रिज को छोड़कर कानून का अध्ययन करने के लिए इनर टेम्पल (Inner Temple) में प्रवेश लिया। 1912 में उन्होंने बैरिस्टर की परीक्षा पास की और शीघ्र ही स्वदेश लौट आए। उन्होंने संयुक्त प्रांत के उच्च न्यायालय में काम करना शुरू किया। कुछ समय के पश्चात् उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में प्रवेश किया और विदेशों में रहने वाले भारतीयों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार के बारे में चल रहे आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। सन् 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के समय वे महात्मा गाँधी के संपर्क में आए और कई दृष्टिकोण संबंधी समस्त मतभेदों के चलते भी महात्मा गाँधी और उनके बीच आपसी संबंध निरंतर बढ़ते चले गए।
नेहरू गाँधी की सत्याग्रह सभा से प्रभावित हुए जो कि 1919 में अंग्रेजी सरकार के रौलट एक्ट तथा दूसरे दमनकारी कानूनों के प्रति चलाई गई थी। गाँधी ने 1921 में असहयोग आंदोलन चलाया और नेहरू ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। इसके लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया और तीन महीनों के पश्चात् उन्हें छोड़ दिया गया। वे दूसरी बार 1923 तक लखनऊ जेल में रहे। इसके पश्चात् मार्च 1926 में नेहरू यूरोप चले गए। उनकी एक वर्ष तथा नौ महीनों की यह यात्रा उनके राजनीतिक चिंतन में एक नया परिवर्तन लेकर आई। वे वहाँ पर बहुत से समाजवादियों के संपर्क में आए, जिस कारण से समाजवाद के प्रति उनके आकर्षण में तीव्रता आई। 1927 में वे रूस चले गए। भारत में वापस लौटने के पश्चात् नेहरू ने ट्रेड यूनियन आंदोलन के साथ संबंध स्थापित किए तथा वहाँ पर उन्हें ट्रेड यूनियन कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। 1929 में उन्हें अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षता से सम्मानित किया गया। गाँधी ने नमक कानून तोड़ने के लिए अहिंसावादी ढंग से सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया था। इस आंदोलन में भाग लेने के कारण नेहरू को अप्रैल 1930 में गिरफ्तार किया गया और उन्हें जनवरी 1931 तक जेल में रखा गया। लेकिन नए भूमि – सुधार संबंधी आंदोलन में भाग लेने के कारण वे दिसंबर 1931 से लेकर अगस्त 1933 तक जेल में रहे। इसी समय उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना विश्व इतिहास की झलक (Glimpses of World History) लिखी। इस पुस्तक में हमें उनके ऊपर मार्क्स का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
जनवरी 1936 में वे दूसरी बार कांग्रेस के प्रधान चुने गए। 1937 में वे फिर से कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए। अंग्रेज़ी सरकार ने भारतीयों को खुश करने के लिए प्रांतों में उन्हें स्वायत्तता प्रदान करने के लिए भारत सरकार अधिनियम 1935 पास किया। नेहरू ने इसका विरोध करते हुए, इस कानून को ‘दासता तथा दमन का राजपत्र’ कहा। कांग्रेस ने 1937 का प्रांतीय चुनाव लड़ने का निश्चय किया। चुनाव के दिनों में नेहरू ने देशभर में विस्तृत यात्रा की और अपनी चुनाव यात्रा को ‘भारत तथा उसके लोगों की खोज यात्रा’ कहा और इस प्रकार से उनकी महान रचना दि डिस्कवरी ऑफ इंडिया (The Discovery of India) की नींव रखी गई। 1940 के पश्चात् की घटनाओं ने नाटकीय रूप धारण कर लिया। अंग्रेज़ी सरकार कांग्रेस को संतुष्ट करने में असफल रही और कांग्रेस द्वारा व्यक्तिगत सत्याग्रह को शुरू किया गया। नेहरू को गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन्हें चार वर्ष की सख्त कैद की सजा दी गई, उन्हें दिसंबर 1941 तक ही जेल में रखा गया। जनवरी 1942 के अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में आपसी मतभेदों के बावजूद भी गाँधी ने नेहरू को अपना उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा की। अगस्त 1942 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने प्रसिद्ध ‘भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पास किया और उसके तुरंत पश्चात् नेहरू को जून 1945 में गिरफ्तार कर लिया गया। इस लंबे कारावास के दौरान ही नेहरू ने अपनी रचना दि डिस्कवरी ऑफ इंडिया को पूरा किया।
जून 1945 में नेहरू की रिहाई के पश्चात् भारत अपने संपूर्ण स्वतंत्रता लक्ष्य की ओर तेज़ी से बढ़ने लगा। फरवरी, 1946 में भारतीय समस्या का समाधान करने के लिए एक मंत्रिमंडलीय मिशन भारत आया, पर यह भारतीय समस्या का समाधान करने में असफल रहा। नेहरू को अगस्त, 1946 में फिर कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। अगस्त 1946 में लार्ड वेवल ने नेहरू को अंतरिम सरकार का निर्माण करने का निमंत्रण दिया। नेहरू देश के विभाजन तक अंतरिम सरकार के मुखिया के रूप में काम करते रहे। मार्च, 1947 में लार्ड माउन्टबेटन को भारत का गर्वनर-जनरल बनाकर भेजा गया। उसने देश को ‘भारत’ तथा ‘पाकिस्तान’ दो राष्ट्रों में विभाजित करने का प्रस्ताव रखा। नेहरू ने बहुत दुखी होकर इस योजना को स्वीकार कर लिया। 15 अगस्त, 1947 को नेहरू ने स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री का पद संभाला और वे अपनी मृत्यु तक इस पद पर बने रहे। प्रधानमंत्री बनने के पश्चात् नेहरू ने बड़े साहस से आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक समस्याओं को सुलझाया। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में, उन्होंने गुट-निरपेक्षता का मार्ग तैयार किया। इससे अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में न केवल भारत का सम्मान बढ़ा, बल्कि इससे नेहरू के विश्व-शांति के सिद्धांत को भी बढ़ावा मिला। 27 मई, 1964 को वह प्रकाश स्तंभ बुझ गया। अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम का उनका व्यापक ज्ञान, उनकी दूरदर्शिता एवं समाजवादी विचारों के प्रति उनका आकर्षण, इन सभी ने सम्मिलित रूप से भारत के निर्माण में अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
नेहरू के धर्मनिरपेक्षता संबंधी विचार
नेहरू धार्मिक सहिष्णुता के जबरदस्त समर्थक थे। वे सभी धर्मों को समान समझते थे तथा यह मानते थे कि सभी धर्मों में मानव विकास की संभावनाएं निहित हैं। धर्म के आधार पर समाज में भेदभाव के वे प्रबल आलोचक थे। उन्होंने इस देश में धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना के लिए सतत् प्रयास किया। नेहरू भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने के पक्षधर थे। उनका मत था कि भारत में अनेक धर्मों के लोग रहते हैं तो इन स्थितियों में एक धर्म को विशेष स्थान देकर अन्य धर्मों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसीलिए उन्होंने भारतीय संविधान में धर्म निरपेक्षता के संबंध में सभी प्रावधान शामिल करवाये ताकि प्रत्येक धर्म के लोगों द्वारा भारत के विकास में भूमिका अदा हो सके। वह धर्म-निरपेक्षता की प्रक्रिया को सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी ले जाना चाहते थे। वह चाहते थे कि हमारी सामाजिक संहिताएं, विवाह, उत्तराधिकार, दीवानी तथा फौजदारी न्याय आदि बहुत सी चीजों के विषयों में नियम हमारे धार्मिक विश्वासों से स्वतन्त्र रहे। उन्होंने धर्म और राज्य की शक्ति को एक दूसरे से अलग रखने की रणनीति अपनाई। धर्म को राज्य से अलग रखने की इसी अवधारणा को धर्म निरपेक्षता कहा जाता है।
धर्म-निरपेक्षता नेहरू के राजनीतिक चिन्तन का केवल एक भाग नहीं था, बल्कि यह उनके जीवन का आदर्श था। उन्होंने गहराई के साथ साम्प्रदायिकता के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चरित्र और आयामों को समझा। वे इस बात की निरंतर कोशिश करते रहे कि धर्म को आर्थिक, सामाजिक परिवर्तनों की प्रक्रिया से दूर रखा जाए तथा संकुचित धार्मिक विश्वासों को राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक नहीं बनने दिया जाए। नेहरू ने स्वयं को सदैव ही धार्मिक कट्टरपन से अलग रखा। वे कभी भी धार्मिक भावनाओं में नहीं आये। नेहरू का विश्वास था कि एकता के अभाव में देश अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित नहीं रख सकता। नेहरू ने एक दैविक राज्य की मान्यता के विपरीत धर्मनिरपेक्षता को अधिक समर्थन प्रदान किया। वह भारत की बहुधर्मिता के विचार से प्रभावित थे और वह चाहते थे कि भारत में धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्रत्येक सम्प्रदाय को समान रूप से प्राप्त हो सके।
नेहरू धर्म निरपेक्षता को संसदीय लोकतंत्र की एक शर्त के रूप में स्वीकार करते थे। उनकी यह मान्यता थी कि धर्म, भाषा, लिंग तथा अन्य सामाजिक व आर्थिक मतभेदों के बावजूद भी भारत एक राष्ट्र है। वह चाहते थे कि भारत एक ऐसा राष्ट्र राज्य बने, जिसमें सभी धर्मों के मानने वालों को न केवल समान नागरिकता प्राप्त हो बल्कि साथ ही सभी को राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक विकास के समान अवसर भी प्राप्त हों। उनके अनुसार भारत को संकीर्णता की परिधि से निकलकर सभी धर्मों के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए, जिससे राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित हो सके। वे धर्म को राष्ट्रवाद का आधार नहीं बनाना चाहते थे। जवाहरलाल नेहरू धार्मिक कट्टरता, अंधविश्वास तथा अप्रासंगिक रीति-रिवाजों के सख्त विरुद्ध थे। वह ब्रिटिश शासन की इस आधार पर भी कटु आलोचना करते थे कि उसने धर्म का प्रयोग विभिन्न धर्मों व धर्मावलम्बियों को बाँटने तथा एक दूसरे का दुश्मन बनाने के लिए व साथ ही अपने राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए भारत का साम्प्रदायिक विभाजन किया।
नेहरू के अनुसार, हम एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष राज्य का निर्माण कर रहे हैं जहाँ पर प्रत्येक धर्म को पूरी स्वतन्त्रता तथा समान आदरभाव प्राप्त हो तथा हर नागरिक को समान स्वतन्त्रता तथा अवसर की सुविधा प्राप्त हो सके। उनका कहना था कि भारतवासियों की निष्ठा किसी गुट, वर्ग या दल विशेष के प्रति न होकर राष्ट्र के प्रति होनी चाहिए। नेहरू का यह विश्वास था कि जब तक सभी धर्मों के नागरिक एक दूसरे के धर्म के प्रति आदर और सम्मान नहीं रखेंगे, तब तक धर्म निरपेक्षता के आदर्श को स्थापित नहीं किया जा सकेगा। हमारे लिए यह आवश्यक है कि हमें पारस्परिक सहिष्णुता और विश्वास का वातावरण बनाना ही पड़ेगा। नेहरू का मानना था कि राज्य को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के अपने नागरिकों को समान मौलिक अधिकार और समान अवसर देना चाहिए। नेहरू के लिए धर्म-निरपेक्षता सभी धर्मों के प्रति समान आदरभाव का दूसरा रूप है। नेहरू ने लोकतंत्र तथा राष्ट्रीय एकता के लिए धर्म-निरपेक्षता को आवश्यक माना। नेहरू को धर्म और ईश्वर में सही अर्थों में विश्वास था और यही कारण है कि सत्य तथा करुणा के आध्यात्मिक मूल्यों में उनकी निष्ठा जीवनभर बनी रही। नेहरू के सम्पूर्ण जीवन दर्शन में उन तत्त्वों की प्रधानता रही, जिन्हें महात्मा गाँधी ने धर्म का सार बताया था। उन्हें भारत में धार्मिक विश्वासों की गहनता और बहुलता का पूरी तरह एहसास था। नेहरू ने सदैव ही धर्म के राजनीतिक प्रयोग को रोकने की ओर प्रयत्न किए। इस प्रकार से यदि देखा जाए तो नेहरू राजनीति को धार्मिक माँगों से पृथक् करने में कामयाब रहे। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत की स्वतन्त्रता एवं विकास में समर्पित कर दिया, उसके लिए यह देश सदैव उनका ऋणी रहेगा।
विश्व समुदाय में नेहरू का योगदान
नेहरू ने अपने देश तथा सम्पूर्ण मानव समाज को एक व्यापक अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण प्रदान किया। गांधी की तरह उनके लिए राष्ट्रवाद का अर्थ केवल भारत की स्वाधीनता ही नहीं था बल्कि उसके द्वारा विश्व मानवता की सेवा करना भी था। पंडित जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रवाद के साथ-साथ अन्तरराष्ट्रीयवाद को भी मानते थे और भारतीय सभ्यता के अनुरूप वसुधैव कुटुम्बकम् में विश्वास करते थे। उनकी आस्था सत्य, अहिंसा, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व आदि में थी। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में गुटनिरपेक्ष, पंचशील, विश्वशांति, संयुक्त राष्ट्र संघ में आस्था, अन्तर्राष्ट्रीय कानून में विश्वास, साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोध, रंगभेद उन्मूलन आदि पर बल दिया। नेहरू का अन्तर्राष्ट्रीयतावादी दृष्टिकोण कोरा आदर्शवादी नहीं था। उन्होंने इसे लागू करना चाहा। उन्होंने अपने अन्तर्राष्ट्रीय विचारों को मूर्त रूप दिया। उन्होंने भारत की विदेश नीति का निर्माण, अपने मानवतावाद एवं अन्तर्राष्ट्रीयवाद के आधार पर तथा देश की घरेलू और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के सन्दर्भ में कई कार्य किए।
उन्होंने असंलग्नता के आधार पर भारत को नाटो तथा वारसा संधियों पर बने सैनिक गुटों से दूर रखा तथा गुटनिरपेक्ष विदेश नीति का प्रतिपादन किया। उनके द्वारा प्रतिपादित गुटनिरपेक्षता की नीति काफी सार्थक एवं व्यावहारिक साबित हुई। इस नीति से एशिया, अफ्रीका तथा लेटिन अमेरिका के उन देशों को आधार मिला जो लम्बी आधीनता के बाद स्वतंत्र हुए थे। इन्हें विश्व समुदाय के समक्ष अपनी पहचान रखने का एक अवसर मिल गया था। इसके अलावा गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने दोनों महाशक्तियों के बीच सन्तुलन बनाए रखा और विश्व को तृतीय विश्वयुद्ध की विभीषिका से बचा लिया। नेहरू ने शस्त्रीकरण, नव उपनिवेशवाद, आर्थिक शोषण तथा साम्राज्यवाद का विरोध किया। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में राज्यों के आचरण का एक नया मौलिक सिद्धान्त दिया जो ‘पंचशील’ के नाम से विख्यात है। इसमें ये पांच सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए थे –
- एक-दूसरे की प्रादेशिक एकता व अखण्डता का सम्मान।
- एक-दूसरे पर आक्रमण न करना।
- एक दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
- समानता और पारस्परिक लाभ तथा
- शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व तथा आर्थिक सहयोग।
विश्व के लगभग सभी राज्यों ने पंचशील के सिद्धान्तों में अपने विश्वास को प्रकट किया। विश्व शांति के लिए नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रबल समर्थन करके, कई विवादों का निपटारा शांतिमय तरीकों एवं बातचीत के माध्यम से किया। नेहरू का यह मानना था कि विश्व की समस्याओं का स्थायी समाधान ढूंढ़ने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था को सुदृढ़ किया जाना चाहिए और अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों में विश्वास करना चाहिए। उनका यह दृष्टिकोण भी शांति की दिशा में सार्थक साबित हुआ। इस प्रकार पंडित नेहरू ने वसुधैव कुटुम्बकम् की नीति का अनुसरण किया, जिसकी आज भी विश्व में अत्यंत ही आवश्यकता है।
निष्कर्ष
जवाहरलाल नेहरू एक महान नेता थे और अपने समय के बुद्धिमान राजनेता थे। स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और योजना आयोग के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय तक भारत के नव निर्माण के लिए कार्य किया। उन्होंने देश के स्वाधीनता आन्दोलन में महात्मा गांधी के नेतृत्व में काम किया और वे अपनी निश्चल देशभक्ति व उदार मानवता के कारण भारतीयों के हृदय सम्राट बन गये। स्वयं गांधी ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। उन्होंने भारतीयों को उदार राष्ट्रवाद, प्रजातांत्रिक समाजवाद और धर्म निरपेक्षता का पाठ पढ़ाया। उन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से देश के आर्थिक व सामाजिक ढांचे में परिवर्तन लाने की कोशिश की। सामाजिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्ग की उन्नति एवं सुरक्षा के लिए उन्होंने उन्हें संवैधानिक संरक्षण एंव विशेषाधिकार प्रदान किये। उन्होंने भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में स्वतन्त्र व गुट-निरपेक्षता की विदेश नीति दी ताकि विश्व शान्ति की स्थापना हो सके। नेहरू ने अपनी पुस्तकों ‘विश्व इतिहास की झलक’, ‘ भारतः एक खोज (डिस्कवरी ऑफ इंडिया) आदि जैसे महान् ग्रंथों की रचना की और इस प्रकार उन्होंने आधुनिक भारतीय सामाजिक और राजनीतिक चिंतन को अपना योगदान दिया। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में उन्होंने फासीवाद, नाजीवाद व साम्राज्यवाद का विरोध किया और विश्वबंधुत्व, आपसी सहयोग, शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता और सम्प्रभुता, असंलग्नता, निशस्त्रीकरण के शान्तिपूर्ण उपयोग का समर्थन किया। उन्होंने संपूर्ण मानव जाति को एकता के सूत्र में बांधना चाहा और वे मानव विकास के लिए सदैव ही त्याग करने को तत्पर रहे।
महत्वपूर्ण प्रश्न
- धर्म-निरपेक्षता पर नेहरू के विचारों और समकालीन भारत के लिए इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा करें।
- धर्म-निरपेक्षता पर नेहरू के विचारों का समालोचनात्मक परीक्षण करें।
- नेहरू के धर्मनिरपेक्षता संबंधी विचारों की विवेचना करें।
“मुफ्त शिक्षा सबका अधिकार आओ सब मिलकर करें इस सपने को साकार”
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