पाल राजवंश | Pala Dynasty in Hindi

पाल राजवंश

(Pala Dynasty)

 

परिचय (Introduction)

शशांक की मृत्यु (लगभग 637 ई.) के बाद लगभग एक शताब्दी तक बंगाल में अराजकता और अव्यवस्था का वातावरण रहा। 8वीं शताब्दी ई. के मध्य अव्यवस्था और अशान्ति से परेशान होकर बंगाल की जनता ने गोपाल को अपना शासक चुना। गोपाल ने जिस राजवंश की स्थापना की उसे ‘पालवंश’ कहा गया। इस वंश ने बंगाल में लगभग 400 वर्षों तक शासन किया।

इतिहास के साधन (Sources of History)

पाल वंश के इतिहास की जानकारी पुरातात्विक, साहित्यिक स्रोतों से प्राप्त होती है। पाल वंश के प्रमुख अभिलेख हैं – धर्मपाल का खालीमपुर लेख, देवपाल का मुंगेर लेख, नारायणपाल का भागलपुर ताम्रपत्राभिलेख तथा बादल स्तम्भ लेख, महीपाल प्रथम का बानगढ़ एवं नालन्दा और मुजफ्फरपुर लेख आदि है। इन अभिलेखों से पाल वंश की उत्पत्ति और उपलब्धियों की जानकारी प्राप्त होती है। समकालीन गुर्जर प्रतिहार और राष्ट्रकूट लेखों से भी पाल वंश की जानकारी प्राप्त होती है।

इस काल के ग्रन्थों में सन्ध्याकर नन्दी कृत ‘रामचरित’ प्रमुख है, जिससे इस वंश के शासक रामपाल की उपलब्धियों की जानकारी प्राप्त होती है।

पाल वंश की उत्पत्ति (Origin of Pala Dynasty)

पाल वंश की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। कमौली अभिलेख में इस वंश के शासक विग्रहपाल तृतीय को ‘सूर्यवंशी’ कहा गया है। हरिभद्र कृत ‘अष्टसहस्त्रकाप्रज्ञापारमिता’ के आधार पर पं. हरप्रसाद शास्त्री पालों को ‘खड्गवंशीय’ मानते है। तिब्बती विद्वान तारानाथ और सन्ध्याकर नन्दी कृत ‘रामचरित’ में पाल वंश को क्षत्रिय कहा है।

मूल निवास स्थान  (Original habitat)

तारानाथ के अनुसार पालवंश का मूल निवास स्थान बंगाल था। रामचरित के अनुसार पाल मूलत: वरेन्द्री (उत्तरी बंगाल) के थे। अतः पालों का मूल निवास स्थान बंगाल था।

पाल शासक  (Pala ruler)

गोपाल यह पाल वंश का संस्थापक था। धर्मपाल के खलीमपुर अभिलेख के अनुसार ‘मत्स्यन्याय’ (अराजकता की स्थिति) से छुटकारा पाने के लिए प्रकृतियों (सामान्य जनता) ने गोपाल को शासक के पद पर चयन किया। तारानाथ भी इस कथन की पुष्टि की है। गोपाल ने लगभग 750 ई. से 770 ई. तक शासन किया। इसके पिता ‘वप्यट’ और पितामह ‘दयितविष्णु’ थे।

गोपाल ने बंगाल में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित की और अपने शासन के अन्त तक सम्पूर्ण बंगाल पर अपना शासन स्थापित कर लिया। देवपाल के मुंगेर लेख के अनुसार गोपाल ने समुद्रतट तक की पृथ्वी की विजय की थी, किन्तु यह विवरण आलंकारिक लगता है।

गोपाल बौद्ध धर्मावलम्बी था। उसने ‘ओदन्तपुरी विहार’ (तारानाथ के अनुसार) और नालन्दा में एक विहार की स्थापना की।

धर्मपाल गोपाल के बाद उसका पुत्र धर्मपाल पाल वंश का शासक बना। धर्मपाल ने 770 ई. से 810 ई. तक शासन किया।

इस समय उत्तर भारत का राजनैतिक वातावरण अशांत था। राजपूताना और मालवा में गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना हो चुकी थी और इस वंश का शासक वत्सराज पूर्व की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा था। दक्षिण में राष्ट्रकूट शक्तिशाली थे और उनकी दृष्टि कन्नौज पर गड़ी हुई थी। धर्मपाल को इन दोनों शक्तियों के साथ संघर्ष करना पड़ा। सर्वप्रथम उसका प्रतिहार शासक वत्सराज से युद्ध हुआ जिसमें उसकी पराजय हुई। इसकी जानकारी राधनपुर लेख से मिलती है।

परन्तु वत्सराज को राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने पराजित किया और वत्सराज डरकर राजपूताना के रेगिस्तान की ओर भाग गया। ध्रुव ने धर्मपाल को भी पराजित किया और फिर दक्षिण लौट गया।

इसके बाद धर्मपाल ने शीघ्र ही अपनी शक्ति संगठित कर सम्पूर्ण उत्तर भारत की सत्ता प्राप्त कर ली। सर्वप्रथम धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण कर वहाँ वत्सराज द्वारा मनोनीत शासक इन्द्रायुध को पराजित किया और वहाँ चक्रायुध को अपना अधीनस्थ शासक बनाया। तत्पश्चात उसने कन्नौज में एक बड़ा दरबार का आयोजन किया जिसमें भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन, अवन्ति, गन्धार और कीर के शासकों ने भाग लिया। इसकी जानकारी खालीमपुर तथा भागलपुर के लेखों से मिलती है।

इस प्रकार उसका साम्राज्य सम्पूर्ण बंगाल और बिहार में विस्तृत हो गया तथा कन्नौज का राज्य उसके नियन्त्रण में आ गया। तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के अनुसार धर्मपाल का साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से लेकर दिल्ली तक तथा जालंधर से लेकर विन्ध्यपर्वत तक विस्तृत था। 11वीं सदी के गुजराती कवि सोड्ढल ने धर्मपाल को ‘उत्तरापथस्वामी’ की उपाधि से सम्बोधित किया है।

संभवतः धर्मपाल जीवनपर्यन्त अपने साम्राज्य को स्थाई नहीं रख सका और प्रतिहारों ने धर्मपाल की सत्ता को पुनः चुनौती दी। वत्सराज के पुत्र और उत्तराधिकारी नागभट्ट द्वितीय ने अपनी शक्ति संगठित की। उसने कन्नौज पर आक्रमण कर वहाँ अपना अधिकार कर लिया तथा चक्रायुध को भगा दिया।

तत्पश्चात् मुंगेर के समीप एक युद्ध में उसने धर्मपाल को भी पराजित किया। किन्तु नागभट्ट भी अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सका। राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय ने उस पर आक्रमण कर उसे पराजित किया। धर्मपाल और चक्रायुध ने भी गोविन्द की अधीनता मान ली। गोविन्द तृतीय के वापस लौटने के बाद धर्मपाल ने पुनः अपनी खोई हुई शक्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। अन्त तक वह एक विस्तृत साम्राज्य का शासक बना रहा।

धर्मपाल ने परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमसौगत आदि उपाधियाँ धारण की  इस प्रकार धर्मपाल अपने समय का एक महान् शासक था।

धर्मपाल बौद्ध धर्म का अनुयायी था। उसने विक्रमशिला और सोमपुरी में विहारों की स्थापना की। तारानाथ के अनुसार उसने 50 धार्मिक विद्यालयों की स्थापना करवायी थी। किन्तु राजा के रूप में उसमें धार्मिक उदारता थी। खालीमपुर लेख में उसे सभी सम्प्रदायों विशेष रूप से ब्राह्मणों का आदर करने वाला कहा गया है।

देवपाल धर्मपाल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र देवपाल शासक बना। देवपाल ने 810 ई. से 850 ई. तक शासन किया।

देवपाल धर्मपाल की राष्ट्रकूटवंशीया पत्नी रन्नादेवी से उत्पन्न हुआ था। देवपाल ने महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक, परमसौगत आदि उपाधियाँ धारण कीं।

मुंगेर लेख से पता चलता है कि उसने विन्ध्यपर्वत तथा कम्बोज तक सैनिक अभियान किया। नारायणपाल के बादल लेख से भी देवपाल की विजयों की जानकारी प्राप्त होती है।

भागलपुर लेख में कहा गया है कि देवपाल के भाई तथा सेनापति जयपाल के सामने उत्कल का राजा अपनी राजधानी छोड़कर भाग गया तथा असम शासक ने उसकी आज्ञा का पालन करते हुए अपने राज्य का शासन किया।

उसने गुर्जर – प्रतिहार वंश के रामभद्र तथा भोज को भी पराजित किया था और इस प्रकार उसने उत्तर भारत में अपना प्रभुत्व कायम रखा।

देवपाल के मुंगेर लेख से पता चलता है कि उसने सेतुबन्ध रामेश्वरम् तक के प्रदेश पर शासन किया था। इस प्रकार देवपाल इस वंश का महान शासक था जिसके नेतृत्व में पाल साम्राज्य अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँच गया। पाल इतिहास में यह पहला अवसर था जब उसका प्रभाव असम, उड़ीसा और सुदूर दक्षिण में व्याप्त हो गया ।

देवपाल भी बौद्ध मतानुयायी था। उसने बौद्ध विहारों के निर्माण में योगदान दिया। जावा के शैलेन्द्रवंशी शासक तालपुत्रदेव के अनुरोध पर देवपाल ने उसे नालन्दा में एक बौद्ध विहार बनवाने के लिये पाँच गाँव दान में दिया था। अतः देवपाल का शासन काल पाल शक्ति के चर्मोत्कर्ष को व्यक्त करता है ।

देवपाल के उत्तराधिकारी तथा पाल साम्राज्य का पतन

देवपाल के बाद पाल साम्राज्य की अवनति का काल आरम्भ हुआ। देवपाल का उत्तराधिकारी विग्रहपाल (850-854 ई.) हुआ जिसने अल्पकालीन शासन के बाद अपने पुत्र नारायणपाल के पक्ष में सिंहासन त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया। नारायणपाल (854-908 ई.) की भी सैनिक जीवन की अपेक्षा साधु जीवन व्यतीत करने में अधिक रुचि थी। इन दोनों शासकों के कमज़ोर शासन काल में प्रतिहारों को पालों के विरुद्ध महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त हुई।

प्रतिहार शासक भोज और महेन्द्रपाल ने इन्हें पराजित कर पूर्व की ओर अपना साम्राज्य का विस्तार किया। महेन्द्रपाल के समय में तो मगध और उत्तरी बंगाल के ऊपर प्रतिहारों का शासन स्थापित हो गया।

इसके अलावा असम और उड़ीसा के सामन्त शासकों ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी। इस प्रकार नारायणपाल का राज्य केवल बंगाल के एक भाग में संकुचित हो गया। परन्तु अपने शासन के अन्त तक उसने मगध और उत्तरी बंगाल पर पुनः अधिकार कर लिया।

नारायणपाल के बाद 908 ई. से 988 ई. तक के 80 वर्षों के समय में तीन राजाओं- राज्यपाल, गोपाल द्वितीय और विग्रहपाल द्वितीय ने शासन किया।

बंगाल के पाल राज्य के भीतर दो स्वतन्त्र वंशों ने अपनी सत्ता स्थापित की। पश्चिमी बंगाल में कम्बोज और पूर्वी बंगाल में चन्द्रवंश। विग्रहपाल द्वितीय के समय तक पालों का बंगाल पर से शासन समाप्त हो गया तथा अब पालवंशी शासक केवल बिहार में शासन करने लगे।

विग्रहपाल द्वितीय के बाद महीपाल प्रथम (988-1038 ई.) ने पुनः बंगाल के विद्रोहियों का दमन कर सम्पूर्ण बंगाल पर अपना शासन स्थापित कर लिया। सारनाथ लेख (1026 ई.) से काशी क्षेत्र पर उसके अधिकार की जानकारी प्राप्त होती है। अतः महीपाल प्रथम देवपाल के बाद पालवंश का शक्तिशाली राजा सिद्ध हुआ।

महीपाल प्रथम के बाद जयपाल (1038-1055 ई.) पालवंश का शासक बना। उसे कलचुरि शासक कर्ण ने पराजित किया। इसके बाद उसका पुत्र विग्रहपाल तृतीय (1055-1070 ई.) शासक बना। वह अपने राज्य को कलचुरि और चालुक्य आक्रमणों से सुरक्षित रख सकने में सफल रहा। उसका विवाह कलचुरि शासक कर्ण की कन्या यौवनश्री के साथ हुआ था।

विग्रहपाल तृतीय के बाद उसके तीन पुत्रों – महीपाल द्वितीय, शूरपाल और रामपाल के बीच सत्ता के लिए संघर्ष हुआ। महीपाल (1070-1075 ई.) ने अपने दोनों भाईयों को कारागार में डाल दिया। उसके समय में अशान्ति और अव्यवस्था बनी रही। चाशिकैवर्त (माहिष्य) जाति के लोगों ने अपने नेता दिव्य (दिव्योक) के नेतृत्व में विद्रोह किया। उसने महीपाल द्वितीय की हत्या कर दी और उत्तरी बंगाल पर अधिकार कर लिया।

दिव्य के बाद उसका भतीजा भीम शासक बना। इसी समय रामपाल ने अपने को कारागार से मुक्त कर लिया। उसने राष्ट्रकूटों की सहायता से एक सेना तैयार की और भीम को मारकर अपने पैतृक राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया। उसने उत्तरी बिहार और सम्भवतः असम की भी विजय की तथा 1120 ई. तक शासन करता रहा।

रामपाल के बाद क्रमशः कुमारपाल, गोपाल तृतीय और मदनपाल ने 1161 ई. तक शासन किया। 12वीं शताब्दी के अन्त में बंगाल का पाल राज्य सेनवंश के अधिकार में चला गया।

धर्म, शिक्षा और साहित्य  (Religion, Education and Literature)

पाल शासक बौद्ध मतानुयायी थे तथा उन्होंने बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण प्रदान किया। उन्होंने बिहार और बंगाल में अनेक चैत्य, विहार और मूर्तियाँ बनवायीं, किंतु पाल शासक धर्मसहिष्णु शासक थे तथा उन्होंने ब्राह्मणों को भी दान दिया और मन्दिरों का भी निर्माण करवाया ।

पाल वंश के शासकों ने शिक्षा और साहित्य के विकास को भी प्रोत्साहन दिया। विक्रमशिला, सोमपुरी और उदन्तपुर में शिक्षण संस्थाओं की स्थापना हुई।

विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना धर्मपाल ने की। पूर्वमध्यकाल के शिक्षा केन्द्रों में इसकी ख्याति सबसे अधिक थी। यहाँ अनेक बौद्ध मन्दिर तथा विहार थे। 12वीं शताब्दी में यहाँ लगभग 3000 छात्र शिक्षा ग्रहण करते थे। बौद्ध धर्म और दर्शन के अलावा यहाँ व्याकरण, न्याय, तन्त्र आदि की भी शिक्षा दी जाती थी। यहाँ विद्वानों की एक मण्डली थी जिसमें दीपंकर का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है। उन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रचार का कार्य किया। अन्य विद्वानों में ज्ञानश्री, रत्नवज्र, अभयंकर, रक्षित, विरोचन, ज्ञानपाद आदि के नाम प्रमुख हैं। इस समय विक्रमशिला ने नालन्दा विश्वविद्यालय का स्थान ग्रहण कर लिया था। यहाँ विभिन्न देशों विशेषकर तिब्बत के छात्र शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते थे। उनके भोजन और आवास की व्यवस्था तथा विश्वविद्यालय का खर्च राजाओं और कुलीन नागरिकों द्वारा दिये गये दान से चलता था। 12वीं शताब्दी तक इस शिक्षा केन्द्र की उन्नति होती रही। 1203 ई. में मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इसे ध्वस्त कर दिया। इस काल के प्रमुख विद्वानों में संध्याकर नन्दी, चक्रपाणि दत्त, वज्रदत्त, हरिभद्र आदि है।

कला और स्थापत्य  (Art and Architecture)

पाल शासकों ने नालन्दा, विक्रमशिला, ओदन्तपुरी, सोमपुरी आदि में बौद्ध विहार और भवन बनवाये।

तारानाथ के अनुसार इस वंश के संस्थापक गोपाल ने नालन्दा में बौद्ध विहार बनवाया था। उसने सोमपुरी और ओदन्तपुरी में भी मठों का निर्माण करवाया था ।

रामपाल ने रामावती नामक एक नया नगर बसाकर वहाँ भवन तथा मन्दिर बनवाये थे। 8वीं शताब्दी के बाद धर्मपाल ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना करवायी और वहाँ अनेक व्याख्यान कक्ष बनवाये।

पाल शासकों ने बर्दवान जिले में भी मन्दिर बनवाये थे। इस जिले के बरकर नामक स्थान पर मन्दिरों का समूह है, जिनका निर्माण 10वीं-11वीं शती में करवाया गया था। इस समूह में ‘सिद्धेश्वर’ मन्दिर सबसे अधिक अलंकृत है।

पाल कालीन कलाकारों ने तक्षण कला के क्षेत्र में  नवीन शैली का सूत्रपात किया जिसे ‘मगध वंग शैली’ कहा जाता है। तारानाथ ने इसे ‘पूर्वी भारतीय शैली’ कहा हैं और इस शैली का प्रवर्त्तक धीमान् तथा विपत्तपाल को माना हैं। इस शैली की विशेषता यह है कि इसमें चिकने काले रंग के कसौटी वाले पाषाण और धातुओं की सहायता से मूर्तियों का निर्माण किया गया है। बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्म से संबंधित अनेक देवी – देवताओं की मूर्तियाँ बनाई गयीं । ये बिहार और बंगाल के विभिन्न क्षेत्रों से मिलती हैं । अतः पाल काल में कला और स्थापत्य की पर्याप्त उन्नति हुई।

निष्कर्ष  (Conclusion)

अतः पाल राजाओं का शासन काल प्राचीन भारतीय इतिहास के उन राजवंशों में से एक है जिन्होंने सबसे लम्बे समय तक शासन किया। चार सौ वर्षों के उनके दीर्घकालीन शासन में राजनैतिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से अभूतपूर्व विकास हुआ। पाल शासक बौद्ध मतानुयायी थे, किंतु पाल शासक धर्मसहिष्णु शासक थे तथा उन्होंने ब्राह्मणों को भी दान दिया और मन्दिरों का भी निर्माण करवाया।

संदर्भ सूची

  • थापर, रोमिला (2016). पूर्वकालीन भारत, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय : दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
  • शर्मा, प्रो. कृष्णगोपाल व जैन, डॉ. हुकुम चंद, (2019).भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (भाग-1), राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर

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