पल्लव वंश | Pallava dynasty in Hindi

पल्लव वंश (Pallava dynasty)

 

परिचय (Introduction)

पल्लव का शाब्दिक अर्थ लता है और तमिल भाषा में इसका अर्थ डाकू है। पल्लव अपनी उत्पति ब्रह्मा से मानते है। उनके अभिलेखों में उन्हें भारद्वाजगोत्रीय ब्राह्मण और अश्वत्थामा का वंशज बताया गया है।

पल्लव साम्राज्य उत्तर में पेन्नार नदी से दक्षिण में कावेरी नदी घाटी तक विस्तृत था तथा कांची पल्लव वंश की राजधानी थी। हेनसांग के अनुसार “कांची 6 मील की परिधि में स्थित था और यहाँ 100 से अधिक मठ तथा 10000 भिक्षु रहते थे।“

इतिहास के स्रोत (Sources of History)

पल्लव वंश के इतिहास की जानकारी  पुरातात्विक, साहित्यिक और विदेशी यात्रियों के विवरण से प्राप्त होती है। इस वंश के आरंभिक अभिलेख प्राकृत भाषा में है। शिवस्कन्दवर्मन के ‘मैडवोलू’ और ‘हीरहडगल्ली’ लेख से पल्लव वंश का आरंभिक इतिहास ज्ञात होता है।

पल्लव वंश के अधिकांश अभिलेख संस्कृत भाषा में है। जो 350 ई. से 600 ई. के मध्य के है। इनमें सबसे प्राचीन कुमारविष्णु द्वितीय का ‘केन्दलूर लेख’ और नन्दिवर्मन का ‘उदयेन्दिरम दानपत्र’ है। दण्डि द्वारा लिखित ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ से पल्लव शासक सिंहविष्णु के समय की राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थिति की जानकारी मिलती है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 640 ई. में नरसिंहवर्मन प्रथम के शासन काल में कांची की यात्रा की थी। ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि कांची धर्मपाल बोधिसत्व की जन्मभूमि थी तथा कांची में अनेक बौद्ध विहार थे जिसमें बहुसंख्यक भिक्षु रहते थे। इसके अलावा पल्लव वंश की जानकारी समकालीन चालुक्य और राष्ट्रकूट लेखों से भी प्राप्त होती है।

उत्पत्ति और मूल निवास स्थान (Origin and Place of Origin)

पल्लव वंश की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। बी. एल. राइस और वी. वेंकैया आदि विद्वान् पल्लवों का समीकरण पह्नवों या पार्थियनों से स्थापित करते हैं जो सिन्धु घाटी और पश्चिमी भारत में निवास करने के बाद सातवाहनों के पतन के दिनों में कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के बीच स्थित आन्ध्रप्रदेश में घुस आये और उन्होंने तोण्डमण्डलम् पर अधिकार कर लिया। यहीं से कालान्तर में उनका कांची पर अधिकार स्थापित हो गया।

नीलकंठ शास्त्री, टी. वी. महालिंगम्, के. पी. जायसवाल, आर. गोपालन, डी. सी. सरकार,  आदि विद्वान् पल्लवों को भारतीय मूल का ही मानते हुए उन्हें प्राचीन भारत के विभिन्न राजवंशों के साथ सम्बन्धित करते हैं।

पल्लव वंश के राजनैतिक और सांस्कृतिक उत्कर्ष का केन्द्र कांची था, किंतु वे मूलतः कांची के निवासी नहीं थे। संभवतः उनका मूल स्थान तोण्डमण्लम् में था इसलिए पल्लवों को ‘तोण्डई’ भी कहा जाता है। यहां वे सातवाहनों के सामन्त थे। कालान्तर में नागवंशी शासकों को हराकर पल्लवों ने कांची पर अधिकार कर लिया।

पल्लव वंश के आरंभिक शासक (Early Rulers of Pallava Dynasty)

पल्लव वंश के आरंभिक शासकों की जानकारी प्राकृत और संस्कृत ताम्रलेखों से मिलती है। प्राकृत लेख 250 ई. से 350 ई. और संस्कृत लेख 350 ई. से 600 ई. के बीच के हैं।

प्राकृत भाषा के ताम्रलेखों से पता चलता है कि पल्लव वंश का प्रथम शासक सिंहवर्मा था तथा इसने तृतीय शताब्दी ई. के अन्तिम चरण में शासन किया था। इसके बाद उसका उत्तराधिकारी शिवस्कन्दवर्मा चतुर्थ शताब्दी ई. में शासक बना। शिवस्कन्दवर्मा पल्लव शासकों में सबसे शक्तिशाली था। हीरहडगल्ली लेख से पता चलता है कि उसने अनेक प्रदेशों की विजय की और ‘धर्ममहाराज’ की उपाधि धारण की। अपनी विजयों के उपलक्ष में उसने अश्वमेध, वाजपेय आदि वैदिक यज्ञों का भी अनुष्ठान किया।

शिवस्कन्दवर्मा के बाद स्कन्दवर्मा पल्लव वंश का शासक बना। इसके बाद पल्लव वंश का चौथा शासक विष्णुगोप हुआ जिसका उल्लेख गुप्त शासक समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में मिलता है। विष्णुगोप ने सम्भवतः 350 ई. से 375 ई. तक शासन किया।

पल्लव वंश के उत्कर्ष का इतिहास वस्तुतः सिंहवर्मन् (550-575 ई.) के समय से आरम्भ होता है। विष्णुगोप से सिंहवर्मन् के बीच लगभग दो शताब्दियों में संभवतः 8 शासकों ने कांची पर शासन किया।

कांची के महान् पल्लव शासक (The great Pallava ruler of Kanchi)

सिंहविष्णु (575-600 ई.) – महान् पल्लव शासकों की सूची में सर्वप्रथम सिंहवर्मन् के पुत्र और उसका उत्तराधिकारी सिंहविष्णु था। कशाकुडी दानपत्र के अनुसार उसने कलभ्र, चोल, पाण्ड्य और सिंहल के शासकों को पराजित किया। चोल राजा को पराजित कर उसने चोलमण्डलम् पर अधिकार कर लिया। उसकी इन विजयों के परिणामस्वरूप पल्लव राज्य कावेरी नदी तक विस्तृत हो गया।

सिंहविष्णु ने ‘अवनिसिंह’ की उपाधि धारण की और वह वैष्णव धर्मानुयायी था। सिंहविष्णु की राजसभा में संस्कृत महाकवि भारवि निवास करते थे, जिन्होंने किरातार्जुनीय महाकाव्य लिखा। उसने कला को प्रोत्साहन दिया तथा उसके समय में मामल्लपुरम् में वाराह मन्दिर का निर्माण हुआ जिसमें सिंहविष्णु और उसकी दो रानियों की प्रतिमाएं स्थापित है।

महेन्द्रवर्मन् प्रथम (600-630 ई.) – सिंहविष्णु के बाद उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन् प्रथम शासक बना। उसने मत्तविलास, गुणभर, विचित्रचित्र, परममाहेश्वर, सत्यसंघ आदि उपाधियाँ ग्रहण की थीं।

महेन्द्रवर्मन् प्रथम एक महान् निर्माता, कवि और संगीतज्ञ था। मंडगपट्ट लेख में कहा गया है कि उसने ब्रह्मा, ईश्वर तथा विष्णु के एकाश्मक मन्दिर बनवाये तथा ‘मत्तविलासप्रहसन’ की रचना की थी। महेन्द्रवर्मन् प्रथम एक संगीतज्ञ भी था और उसने संगीतज्ञ रुद्राचार्य से संगीत की शिक्षा ली थी। उसने शैव सन्त अप्पर के प्रभाव से जैनधर्म का परित्याग कर शैवमत ग्रहण कर लिया।

उसके समय से पल्लव- चालुक्य संघर्ष का आरम्भ हुआ। ऐहोल अभिलेख के अनुसार चालुक्य शासक पुलकेशिन् द्वितीय कदम्बों और वेंगी के चालुक्यों को पराजित करता हुआ पल्लव राज्य में प्रवेश किया। पुलकेशिन् द्वितीय और महेन्द्रवर्मन् प्रथम के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में महेन्द्रवर्मन् प्रथम अपनी राजधानी को बचाने में सफल रहा किंतु पल्लव राज्य के उत्तरी प्रान्तों पर पुलकेशिन द्वितीय का अधिकार हो गया।

नरसिंहवर्मन् प्रथम (630-668 ई.) – महेन्द्रवर्मन् प्रथम के बाद उसका पुत्र नरसिंहवर्मन् प्रथम शासक बना। यह पल्लव वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा था।

नरसिंहवर्मन् प्रथम ने वातापी के चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय को परियाल, शूरमार और मणिमंगलम के युद्धों में पराजित किया। ‘कूरम अभिलेख’ में नरसिंहवर्मन् प्रथम की इस विजय का वर्णन मिलता है। इस विजय में लंका के अपदस्थ राजा मानवर्मा ने नरसिंहवर्मन् प्रथम की मदद की। इसकी जानकारी महावंश से मिलती है।

नरसिंहवर्मन् प्रथम ने अपने सेनापति शिरूतोण्ड के नेतृत्व में 642 ई. में पुनः वातापी पर आक्रमण किया और इस युद्ध में पुलकेशिन द्वितीय लड़ता हुआ मारा गया। इस विजय के उपलक्ष में उसने वातापी में एक विजय स्तम्भ की स्थापना की तथा वहाँ स्थित मल्लिकार्जुन मन्दिर में पाषाण पर एक विजय लेख उत्कीर्ण करवाया और ‘वातापीकोण्ड’ (वातापी का विजेता) की उपाधि धारण की।

इसके बाद नरसिंहवर्मन् प्रथम ने लंका के अपदस्थ शासक मानवर्मा को पुनःस्थापित करने के लिए लंका पर दो नौ सैनिक अभियान किये, जिसमें वह स्वयं महाबलिपुरम तक साथ गया। उसने अपनी नौ सेना की मदद से हत्थदत्थ को मार दिया और मानवर्मा को लंका का शासक बना दिया।

नरसिंहवर्मन् प्रथम के समय चीनी यात्री हेनसांग ने (लगभग 641ई.) कांची की यात्रा की थी। हेनसांग ने कांची और महाबलीपुरम की समृद्धि का वर्णन किया है।

नरसिंहवर्मन प्रथम ने ‘महामल्लपुरम’ (महाबलिपुरम) नगर की स्थापना की, जो आगे चलकर पल्लव राज्य का बन्दरगाह बना। महाबलिपुरम स्थित कुछ एकाश्मक रथ मन्दिरों का निर्माण उसके शासन काल में हुआ। नरसिंहवर्मन प्रथम ने द्रविड़ वास्तु शिल्प की नवीन शैली ‘मामल्ल शैली’ का भी प्रतिपादन किया। उसने ‘महामल्ल’ की उपाधि धारण की।

महेन्द्रवर्मन द्वितीय (668-670 ई.) – नरसिंहवर्मन प्रथम के बाद उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन द्वितीय शासक बना। संभवतः चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम के साथ हुए संघर्ष में इसकी मृत्यु हुई। कशाकुडी दानपत्र से पता चलता है कि उसने एक ‘घटिका’ (विद्वान ब्राह्मणों की संस्था और वैदिक महाविद्यालय) के लिए दान दिया था।

परमेश्वरवर्मन प्रथम ( 670-700ई.) – महेन्द्रवर्मन् द्वितीय के बाद उसका पुत्र परमेश्वरवर्मन् प्रथम शासक बना। इसके समय में पल्लव-चालुक्य संघर्ष पुनः आरंभ हो गए। गहड़वाल दानपत्र से पता होता है कि चालुक्य शासक विक्रमादित्य ने उसके राज्य पर आक्रमण किया और वह कांची के समीप तक पहुँचा गया। परमेश्वरवर्मन् प्रथम ने भागकर अपनी जान बचाई किंतु विक्रमादित्य उसका पीछा करते हुए, कावेरी नदी तक पहुँच गया और वहाँ उरैयूर नामक स्थान में अपना सैनिक शिविर लगाया।

परमेश्वरवर्मन प्रथम ने अपनी सैन्य शक्ति को पुनः संगठित कर सेनापति ‘शिरूतोण्डार’ के नेतृत्व में चालुक्य राज्य पर आक्रमण किया। इस युद्ध में पल्लव सेना ने चालुक्य शासक विक्रमादित्य के पुत्र विनयादित्य और पौत्र विजयादित्य के नेतृत्व में उपस्थित सेना को हारा दिया। इसकी जानकारी ‘कूरम अभिलेख’ से मिलती है।

परमेश्वरवर्मन प्रथम शैव मतानुयायी था। उसने गुणभाजन, विद्याविनीत, लोकादित्य, एकमल्ल, रणंजय, अत्यन्तकाम, उग्रदण्ड आदि उपाधियां ग्रहण की थीं। उसने मामल्लपुरम् में गणेश मन्दिर का निर्माण भी करवाया था।

नरसिंहवर्मन् द्वितीय (700-728 ई.) – परमेश्वरवर्मन् प्रथम के बाद उसका पुत्र नरसिंहवर्मन् द्वितीय शासक बना। नरसिंहवर्मन् द्वितीय के समय में पल्लव – चालुक्य संघर्ष रुका रहा, जिसके कारण कला और साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई। संस्कृत के लेखक दण्डिन् उसकी राजसभा में निवास करते थे।

उसने संग्रामराज, राजसिंह, शंकरभक्त, आगमप्रिय, चित्रकारमुख आदि उपाधियां ग्रहण की थीं। उसके समय के समुद्री व्यापार उन्नति पर था। उसने चीनी बौद्ध यात्रियों के लिये नागपट्टिनम् में एक विहार निर्मित करवाया था।

परमेश्वरवर्मन द्वितीय – नरसिंहवर्मन् द्वितीय के बाद उसका पुत्र परमेश्वरवर्मन द्वितीय शासक बना। उसने संभवतः दो-तीन वर्षों  (लगभग 728-730 या 731 ई.) तक शासन किया। उसके काल में पल्लव-चालुक्य संघर्ष पुनः छिड़ गया।

चालुक्य शासक युवराज विक्रमादित्य ने अपने गंग सहयोगी श्रीपुरुष के पुत्र राजकुमार एर्रेयप्प की मदद से कांची पर आक्रमण किया। परमेश्वरवर्मन् द्वितीय लड़ता हुआ मारा गया। परमेश्वरवर्मन् द्वितीय पल्लव वंश की मुख्य शाखा का अन्तिम शासक था।

नन्दिवर्मन् द्वितीय (लगभग 731-800 ई.) – परमेश्वरवर्मन् द्वितीय की मृत्यु से पल्लव राज्य में संकट उत्पन्न हो गया क्योंकि उसकी शाखा में कोई भी उसका उत्तराधिकारी बनने वाला नहीं था। अतः कांची के लोगों ने समानान्तर शाखा के एक राजकुमार नन्दिवर्मन् द्वितीय को शासक चुना जो हिरण्यवर्मा का पुत्र था। वह सिंहविष्णु के भाई भीमवर्मा की परम्परा का शासक था। इस परम्परा के शासक सामन्त थे।

750 ई. में राष्ट्रकूट शासक दन्तिदुर्ग ने नन्दिवर्मन् द्वितीय को हराकर कांची पर अधिकार कर लिया, परन्तु कालान्तर में दोनों में सन्धि हो गयी और दन्तिदुर्ग ने अपनी कन्या रेवा का विवाह नन्दिवर्मन् द्वितीय के साथ कर दिया।

तंडनतोट्टम् दानपत्र से पता चलता है कि नन्दिवर्मन् द्वितीय ने गंगराज्य पर आक्रमण कर उसके दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उसने गंग शासक श्रीपुरुष या शिवमार को पराजित कर उससे उग्रोदय मणि वाला हार प्राप्त किया। नन्दिवर्मन् द्वितीय वैष्णव मतानुयायी था।  उसने कांची के मुक्तेश्वर मन्दिर और बैकुण्ठ- पेरुमाल मन्दिर का निर्माण करवाया।

दन्तिवर्मन् – नन्दिवर्मन् द्वितीय के बाद उसका पुत्र दन्तिवर्मन् शासक बना और उसकी माता रेवा (राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग की कन्या) थी। उसने लगभग 47 वर्षों (800-846 या 847 ई.) तक शासन किया।

दन्तिवर्मन् के समय पल्लव-राष्ट्रकूट सम्बन्ध बिगड़ गये। राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय ने 804 ई. में कांची पर आक्रमण किया और दन्तिवर्मन् इस युद्ध में पराजित हुआ तथा उसने गोविन्द तृतीय को कर देना स्वीकार कर लिया।

गोविन्द तृतीय के मन्ने लेख में दन्तिवर्मन् को उसका ‘महासामन्ताधिपति’ कहा गया है। इसके अलावा दन्तिवर्मन् को पाण्ड्यों के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा। एक तमिल अभिलेख में दन्तिवर्मन् को ‘पल्लवकुलभूषण’ और ‘भारद्वाजगोत्रीय’ कहा गया है। दन्तिवर्मन् वैष्णव धर्म का अनुयायी था। उसने मद्रास के समीप त्रिप्लीकेन में पार्थसारथि मन्दिर का पुनर्निर्माण करवाया था।

नन्दिवर्मन् तृतीय (लगभग 846-869 ई.) – दन्तिवर्मन् के बाद उसका पुत्र नन्दिवर्मन् तृतीय शासक बना। समकालीन अभिलेखों से पता चलता है कि नन्दिवर्मन् तृतीय ने पाण्ड्यों की सेना को तेल्लारु (कांची के पास) में रोका और उन्हें कई युद्धों में पराजित किया, इसकी जानकारी वैलूरपाल्यम् लेख से मिलती है।

संभवतः गंग शासकों ने नन्दिवर्मन् तृतीय की अधीनता स्वीकार की। राष्ट्रकूटों के साथ उसका मैत्री पूर्ण सम्बन्ध स्थापित हुआ और राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष ने अपनी कन्या शंखा का विवाह उससे कर दिया।

नन्दिवर्मन् तृतीय शैव धर्म का अनुयायी था।  उसने तमिल साहित्य को संरक्षण प्रदान किया। उसकी राजसभा में तमिल भाषा का कवि पेरुन्देवनार निवास करता था, जिसने ‘भारतवेणवा’ नामक ग्रन्थ की रचना की।

नन्दिवर्मन् तृतीय के बाद नृपतुंग (869-880 ई.) और अपराजित (881-903 ई.) क्रमश : पल्लव वंश के शासक बने। अपराजित पल्लव वंश का अन्तिम महत्वपूर्ण शासक था। अपराजित ने चोल शासक आदित्य प्रथम और गंगनरेश पृथ्वीपति की मदद से पाण्ड्यवंशी शासक वरगुण द्वितीय को श्रीपुरम्बियम के युद्ध (885 ई.) में हराकर पाण्ड्यों की शक्ति को समाप्त कर दिया। अपराजित को लगभग 903 ई. में उसके मित्र चोल शासक आदित्य प्रथम ने उसकी हत्या कर दी और तोण्डमण्डलम् पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया।

अपराजित के बाद दो शासकों के नाम हमें ज्ञात हैं – नन्दिवर्मा चतुर्थ (904-926 ई.) और कम्पवर्मा (948-980 ई.)। वे अपने राज्य को चोल शासकों से बचाने का असफल प्रयास किया, किंतु अंततः पल्लव राज्य चोल शासकों द्वारा जीतकर अपने राज्य में मिला लिया गया। इस प्रकार दक्षिण भारत की प्रभुसत्ता पल्लवों से चोलवंश के हाथों में आ गई।

शासन प्रबन्ध (Administration)

पल्लवों के शासन प्रबंध में शासन का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था। उसकी उत्पत्ति दैवी मानी जाती थी। पल्लव शासक अपनी उत्पत्ति ब्रह्मा से मानते थे। पल्लव शासक कुशल योद्धा, विद्वान् और कला- प्रेमी थे।

पल्लव शासक के पास अपनी मन्त्रिपरिषद् थी, जो शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में राजा को सहयोग करते थे।

पल्लव लेखों में शासन के कुछ प्रमुख अधिकारियों के नाम इस प्रकार मिलते हैं- सेनापति, राष्ट्रिक (जिले का प्रधान अधिकारी), देशाधिकृत (स्थानीय संरक्षक), ग्रामभोजक (गाँव का मुखिया), अमात्य, आरक्षाधिकृत गौल्मिक (सैनिक चौकियों के प्रधान), तैर्थिक (तीर्थों या घाटों का सर्वेक्षक), संचरन्तक (गुप्तचर) आदि।

पल्लव साम्राज्य विभिन्न प्रान्तों में विभाजित किया गया था। प्रान्त को राष्ट्र या मण्डल कहते थे तथा राष्ट्रिक नामक पदाधिकारी इसका प्रधान होता था। यह पद युवराज, वरिष्ठ अधिकारियों या कभी-कभी पराजित शासकों को भी प्रदान किया जाता था। राष्ट्रिक अपने अधीन सामन्तों के ऊपर भी नियन्त्रण रखता था। मण्डल के शासक अपने पास सेना रखते थे तथा उनकी अपनी अदालतें भी होती थीं। कालान्तर में उनका पद आनुवंशिक हो गया। संभवतः अधिकारियों को वेतन के बदले में भूमि का अनुदान ही दिया जाता था।

पल्लव लेखों के अनुसार ग्रामों का संगठन ‘ग्रामकेय’ या ‘मुटक’ के नेतृत्व में किया गया था। राजकीय आदेश उसी को सम्बोधित करके भेजे जाते थे। ग्राम सभा की बैठक वृक्ष के नीचे होती थी। इस स्थान को ‘मरम्’ कहते थे।

ग्राम प्रायः दो प्रकार के होते थे- ब्रह्मदेय और सामान्य। ब्रह्मदेय ग्रामों में ब्राह्मणों की आबादी अधिक होती थी और इनसे कोई कर नहीं लिया जाता था। सामान्य ग्रामों में विभिन्न जातियों के लोग रहते थे और भूराजस्व के रूप में उन्हें राजा को कर देना पड़ता था। यह छठें से दसवें भाग तक होता था। इसके अलावा कुछ स्थानीय कर भी लगते थे तथा इनकी वसूली भी ग्राम सभा द्वारा की जाती थी। पल्लव लेखों में 18 पारम्परिक करों (अष्टादश परिहार) की जानकारी मिलती है। पल्लवों की सेना में पैदल, अश्वारोही, हाथी, नौ सेना आदि शामिल थे।

धर्म (Religion)

पल्लव काल में दक्षिण भारत में ब्राह्मण धर्म की उन्नति हुई। इस काल के आरम्भ में ब्राह्मण धर्म के साथ बौद्ध और जैन धर्म भी तमिल क्षेत्र में लोकप्रिय था। पल्लव शासक ब्राह्मण धर्मावलम्बी होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति उदार थे।

पल्लव शासक नरसिंहवर्मा प्रथम के समय में चीनी यात्री हेनसांग कांची में कुछ समय ठहरा था। उसके अनुसार यहाँ 100 से अधिक बौद्ध विहार थे जिनमें 10000 बौद्ध भिक्षु निवास करते थे। उन्हें राज्य की ओर से सारी सुविधायें प्रदान की गयी थीं, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि धीरे-धीरे तमिल समाज में वैष्णव और शैव धर्मों का प्रचलन हुआ।

इन दोनों धर्मों के आचार्यो- नायनार (शैव) और अलवार (वैष्णव) ने जैन तथा बौद्ध आचार्यों को शास्त्रार्थ में पराजित कर इन धर्मों की जड़ों को तमिल क्षेत्र से उखाड़ फेंका।

नायनारों और आलवरों ने दक्षिण में भक्ति-आन्दोलन का सूत्रपात किया। उनके प्रयासों के कारण दक्षिण के शासकों और सामान्य जनता ने धीरे-धीरे जैन और बौद्ध धर्मों का परित्याग कर शैव एवं वैष्णव धर्मों को ग्रहण कर लिया। इस काल में मंदिर धार्मिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र थे।

साहित्य, कला एवं स्थापत्य (Literature, Art and Architecture)

पल्लव काल में संस्कृत और तमिल दोनों ही भाषाओं के साहित्य का विकास हुआ। कुछ पल्लव राजा उच्चकोटि के विद्वान् थे तथा उनकी राजसभा में प्रसिद्ध विद्वान् एवं लेखक निवास करते थे। महेन्द्रवर्मा प्रथम ने ‘मत्तविलासप्रहसन’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें कापालिकों एवं बौद्ध भिक्षुओं पर व्यंग्य किया गया था।

महेन्द्रवर्मा का उत्तराधिकारी नरसिंहवर्मा भी  विद्या-प्रेमी था। उसकी राजसभा में दशकुमारचरित और काव्यादर्श के लेखक दण्डी निवास करते थे। पल्लव शासकों के अधिकांश लेख विशुद्ध संस्कृत में लिखे गये हैं। संस्कृत के साथ इस समय तमिल भाषा की भी उन्नति हुई। शैव और वैष्णव सन्तों द्वारा तमिल भाषा एवं साहित्य का प्रचार-प्रसार किया गया। पल्लवों की राजधानी कांची विद्या का प्रमुख केन्द्र थी जहाँ एक संस्कृत महाविद्यालय (घटिका) था।

पल्लव काल में कला और स्थापत्य का भी विकास हुआ। पल्लवों की वास्तु एवं तक्षण कला का दक्षिण भारतीय कला के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। पल्लव वास्तु कला ही दक्षिण कि द्रविड़ कला शैली का आधार बनी। उसी से दक्षिण भारतीय स्थापत्य के तीन प्रमुख अंगों का जन्म हुआ – (1) मंडप, (2) रथ, (3) विशाल मंदिर। पल्लव कला का प्रभाव कालांतर में चोल और पाण्ड्य कला पर भी पड़ा।

निष्कर्ष (Conclusion)

अतः पल्लव वंश ने दक्षिण भारत के इतिहास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इस वंश के शासकों ने कांची को केंद्र बनाकर निरंतर अपने राज्य के विस्तार का प्रयास किया है और क्षेत्रीय चुनौतियों का सामना किया है। पल्लव काल में ब्राह्मण धर्म का दक्षिण भारत में प्रचार-प्रसार हुआ था, जिसमें नायनार और अलवार आचार्यों ने भक्ति आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका है। भक्ति आंदोलनों के कारण दक्षिण भारत में जैन और बौद्ध धर्म का प्रभाव कम हुआ। पल्लव शासकों ने संस्कृत और तमिल दोनों भाषाओं के साहित्य के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। पल्लव कला और स्थापत्य ने भी द्रविड़ कला शैली को आधार प्रदान किया।

संदर्भ सूची

  • झा, द्विजेन्द्रनारायण व श्रीमाली, कृष्णमोहन, (सं.) (1984). प्राचीन भारत का इतिहास, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय : दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
  • थापर, रोमिला (2016). पूर्वकालीन भारत, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय : दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
  • शर्मा, प्रो. कृष्णगोपाल व जैन, डॉ. हुकुम चंद, (2019).भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (भाग-1), राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर

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