पंडिता रमाबाई : जेंडर और पितृसत्ता संबंधी विचार | Pandita Ramabai: Thoughts on Gender and Patriarchy in Hindi

पंडिता रमाबाई : जेंडर और पितृसत्ता संबंधी विचार

पंडिता रमाबाई सरस्वती का नाम इतिहास में महिलाओं को अधिकार दिलाने के कारण से ही जाना जाता है। वे एक ऐसे व्यक्तित्व की महिला थी जिन्होंने लैंगिक समानता, महिला शिक्षा एवं समाज सुधार के क्षेत्र में अग्रणी रूप से कार्य किया। वह एक ऐसी पहली भारतीय महिला थी, जिन्होंने हिंदू समाज की विधवाओं के प्रति सदियों से चली आ रही कुरीतियों को तोड़ने का प्रयास किया और उसके विरुद्ध अपनी पुरज़ोर आवाज़ उठाई। उन्होंने भारत में बालिकाओं की शिक्षा के क्षेत्र में शुरुआत करके एक महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके द्वारा अपनाया गया विद्रोह का मार्ग अत्यंत ही कठिन एवं चुनौतीपूर्ण था।

जीवन परिचय

रमाबाई का जन्म सन् 1858 में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम अनंत शास्त्री व उनकी माता का नाम लक्ष्मीबाई था। रमाबाई के पिता अनंत शास्त्री का बचपन में ही विवाह हो गया था। कुछ वर्षों के पश्चात् उनकी पहली पत्नी की  मृत्यु हो गई, जिस कारण से उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। उनका दूसरा विवाह रमाबाई की माता लक्ष्मीबाई से हुआ। रमाबाई के पिता स्त्री शिक्षा एवं सशक्तिकरण के समर्थक थे इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी को संस्कृत एवं धर्मशास्त्रों का ज्ञान प्रदान किया। जब अन्य लोगों को इस संबंध में पता चला तो धर्मशास्त्रियों ने मिलकर इस कारण से अनन्‍त शास्त्री को गांव से बाहर निकाल दिया। अनंत शास्त्री एवं उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई गांव से दूर रहने लगे, जहां पर उन्होंने अपना घर बनाया। वहां पर उनकी कुल छ: संतानें हुई थी, जिसमें से केवल उनकी तीन संतानों को ही जीवन मिला। रमाबाई अपने भाई बहनों में सबसे छोटी थी। उनकी एक बहन और एक भाई था। रमाबाई को बचपन से ही एक शिक्षाप्रद वातावरण मिला। जहां पर उनके माता-पिता ने ही उनको शिक्षा प्रदान की एवं ऐसे वातावरण का संचालन किया कि उन्हें कभी भी अपने भाई और अपने मध्य में किसी भी प्रकार का कोई अंतर महसूस नहीं हुआ। उनके माता-पिता ने अपनी तीनों संतानों की एक ही जैसे परवरिश की थी। बड़ी पुत्री का कम आयु में विवाह होने के कारण कई समस्याएं भी उत्पन्न हुई, जिसके चलते ही उन्होंने रमाबाई का विवाह कम आयु में न करने की ठान ली और उन्हें व उनके भाई को वेदशास्त्रों एवं संस्कृत की शिक्षा प्रदान की।

1877 के अकाल के दौरान रमाबाई के पिता अनंत शास्त्री और उनकी माता लक्ष्मीबाई की मृत्यु हो गई। इसके कुछ समय के पश्चात् उनकी बहन कृष्णाबाई की भी मृत्यु हुई, जिससे उन्हें बहुत अधिक आघात पहुंचा। अब वह अपने भाई के साथ अपने पिता के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए भारत के गाँवों में जा जाकर स्त्री शिक्षा पर बल देने लगीं। इसके दौरान ही उन्होंने भारतीय महिलाओं की दुर्दशा को बहुत अधिक नज़दीकी से देखा। अब उन्हें एक उद्देश्य की ख्याति प्राप्त हो गई, जिसके चलते उन्हें कोलकाता के पंडितों द्वारा आमंत्रित किया गया। वहां पर उन्होंने रमाबाई का भाषण सुनकर उन्हें ‘पंडिता’ और ‘सरस्वती’ की उपाधि प्राप्त हुई। अब वह रमाबाई ‘पंडिता रमाबाई सरस्वती’ के नाम से प्रसिद्ध हुई।

1880 के दौरान रमाबाई के भाई श्रीनिवास की हैजा जैसी बीमारी के चलते मृत्यु हो गई, अब तो वह इस दुनिया में एकदम अकेली हो चुकी थी। कुछ समय के पश्चात् ही उन्होंने विपिन बिहारी दास मेधावी एक गैर-ब्राह्मण एवं शूद्र जाति के व्यक्ति से विवाह कर लिया। विवाह के लगभग 18 महीने के पश्चात् ही 1882 में उनके पति विपिन बिहारी की भी मृत्यु हैजे के कारण ही हो गई। अब रमाबाई अपनी पुत्री मनोरमा के संग अकेली रह गई थी। रमाबाई कुछ समय के पश्चात् पुणे चली गई, जहां पर वह प्रार्थना समाज के समाज सुधार कार्यक्रम से जुड़ी। इस प्रार्थना समाज की स्थापना ब्रह्म समाज की तर्ज पर ही की गई थी जिसका नेतृत्व उस समय एम.जी रानाडे कर रहे थे। यहां पर रमाबाई हिंदू स्त्रियों को शिक्षित करने में जुट चुकी थी। 1 जून, 1882 में पुणे में पंडिता रमाबाई ने महिला समाज की स्थापना की, जिसका नाम आर्य महिला समाज रखा गया था। इसका प्रमुख उद्देश्य महिलाओं में शिक्षा की वृद्धि करना और बाल विवाह पर रोक लगाना था। रमाबाई ने स्त्री धर्म नीति नाम की पुस्तक भी लिखीI इसके पश्चात् 1882 में भारत सरकार ने भारतीय शिक्षा की स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक आयोग का गठन किया। इसमें रमाबाई ने अपना यह प्रमुख सुझाव दिया कि विद्यालयों के अध्यापकों को प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए तथा साथ ही साथ विद्यालयों में महिला निरीक्षकों की नियुक्ति की भी बात कही। इसके अतिरिक्त, उन्होंने महिलाओं को मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराने का भी सुझाव दिया।

29 सितंबर, 1883 में रमाबाई ने ईसाई धर्म को अपना लिया। जिसके चलते उनके इस निर्णय की भारत में कट्टु आलोचना की गई। केवल ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फूले ही थे जिन्होंने उनके इस फैसले का समर्थन किया। इसके पश्चात् भी रमाबाई ने महिलाओं की शिक्षा एवं उनकी आत्मनिर्भरता की ओर कई अग्रणी कार्य किए। 24 जुलाई, 1921 को रमाबाई की पुत्री मनोरमा की 40 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई, जिसके चलते रमाबाई फिर से इस दुनिया में अकेली रह गई और अगले ही वर्ष 5 अप्रैल, 1922 को रमाबाई ने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

रमाबाई के जेंडर और पितृसत्ता संबंधी विचार

पंडिता रमाबाई ने भारतीय समाज में महिला व पुरुषों के मध्य की असमान स्थिति को देखते हुए महिलाओं की स्थिति सुधारने की बात कही। वैसे यदि देखा जाए तो कहा जाता है कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता”, जिसका अर्थ होता है कि जहां पर नारी की पूजा की जाती है उस जगह पर देवता स्वयं निवास करते हैं लेकिन यह मात्र एक कहावत ही बन गई है। वास्तव में देखा जाए तो समाज में हमें महिलाओं एवं पुरुषों के मध्य में बहुत बड़ा अंतर देखने को मिलता है। रमाबाई ऐसी पहली भारतीय महिला थी, जिनके विचारों में हमें नारीवादी दृष्टिकोण देखने को मिलता है।

(1)  सामाजिक असमानता

अधिकांश परिवारों में भाईयों को ही सर्वोच्च और प्रधान माना जाता है चाहे उनकी बहनों में कोई गुण क्यों न हो लेकिन फिर भी बड़ी बहन की जगह भाई को ही परिवार का सर्वोच्च माना जाता है। रमाबाई ने समाज में व्याप्त पुरुष व महिला के मध्य के अंतर को देखा और उसके विरुद्ध अपनी आवाज़ को भी बुलंद किया। रमाबाई मुख्यतः मनुस्मृति में निहित स्त्रियों के संबंध में लिखी गई बातों पर प्रकाश डालती हैं।

मनुस्मृति में लिखा है कि एक पुत्र द्वारा मनुष्य सारे लोकों को जीत लेता है तथा पुत्र के पुत्र द्वारा वह अमरता को प्राप्त करता है और अपने पुत्र के पौत्र द्वारा वह सूर्य लोक को प्राप्त कर लेता है। (मनु०1x13)

उस व्यक्ति के लिए स्वर्ग में कोई स्थान नहीं है, जिसकी संतान पुरुष ना हो। (विशिष्ट, xviii, 2)

अगर किसी पुरुष को पुत्र की प्राप्ति नहीं होती है, तो उसकी एक पुत्री होनी चाहिए क्योंकि उसकी पुत्री का पुत्र अर्थात् नाती ही केवल अपने नाना के स्थान पर खड़ा हो सकता है जिसके द्वारा ही नाना को यानि उस पुरुष को अंत में मोक्ष की प्राप्ति होती है।

रमाबाई ने उच्च जाति की हिंदू स्त्री  (The High Caste Hindu Women) नामक पुस्तक की रचना की थी, जिसमें उन्होंने नारी उत्थान की दिशा में सर्वप्रथम नारीवादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया था, जिसे एक नारीवादी घोषणा पत्र भी कहा जाता है। इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में स्त्री विरोधी मान्यताओं और परंपराओं का उल्लेख करते हुए इसकी आलोचना की थी।

(2)  महिलाओं व पुरुषों के वैवाहिक जीवन में अंतर

रमाबाई के अनुसार, महिलाओं के वैवाहिक जीवन में पुरुषों के मुकाबले अधिक परेशानियां रहती हैं। जैसे कि उन्होंने बाल विवाह के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी। मनु के अनुसार, कम से कम 8 वर्ष तक और अधिक से अधिक 12 वर्ष की आयु में उच्च जाति की लड़की शादी योग्य हो जाती है, जबकि वहीं मनु द्वारा एक लड़के के विवाह की न्यूनतम आयु को 24 वर्ष बताया गया है। एक लड़की का विवाह करवाना ही उसके माता-पिता के लिए अत्यंत आवश्यक होता है एवं यह माता-पिता का सर्वोच्च गुण है, इसे पूर्ण करने के पश्चात् ही वे स्वर्ग के भोगी बन सकते हैं। एक पुरुष समाज में जीवनभर अविवाहित रह सकता है किंतु एक लड़की विवाह के बगैर नहीं रह सकती। क्योंकि यदि महिला विवाह नहीं करेगी तो उसे मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती।

पंडिता रमाबाई ने अपनी पुस्तक The Cry Of Indian Women में लिखा है कि यदि हमारे भारतीय समाज में कोई स्त्री विवाह कर ले तो उसके पश्चात् उसका स्वामी पिता के बाद पति बन जाता है, चाहे वह कितना ही बुरा क्यों न हो। उसका पति चाहे उस पर कितना ही अत्याचार क्यों न करता हो लेकिन फिर भी एक स्त्री के जीवन का फैसला लेने का अधिकार केवल उसके पति के पास ही होता है। उस महिला के साथ ‘दास’ की भांति व्यवहार किया जाता है। उस असहनीय दुर्व्यवहार के चलते ही वह स्त्री या तो जीवनभर इस अत्याचार को सहती रहती है या फिर आत्महत्या जैसे कदम को उठा लेती है। यदि उस स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती है तो इस कारण से उस विधवा स्त्री के जीवन की समस्याएं और भी अधिक बढ़ जाती हैं।

पंडिता रमाबाई मनु कोड में उल्लेखित विधवाओं के लिए लिखे गए कर्तव्यों का वर्णन इस प्रकार से करती हैं:

(2.1)  पति की मृत्यु के पश्चात् विधवा स्त्री को केवल फूल-पत्ते, फलों आदि जैसे शाकाहार पर रहकर ही जीवित रहना चाहिए, न ही वह किसी अन्य पुरुष का नाम तक ले ।

(2.2) पति के पश्चात् पत्नी अपनी मृत्यु तक अपने जीवन में मेहनत करती रहे। वह स्वयं को नियंत्रित, पवित्र, धैर्यपूर्वक बनाते हुए एवं ब्रह्मचर्य का पालन  करे। (मनु, V, 157-8)

(2.3)  सदाचारी स्त्री के लिए दूसरे पति का कहीं कोई अस्तित्व नहीं होता है। (मनु, V, 162)

(2.4) जो सदाचारी महिला अपने विचारों शब्द और क्रियाओं पर नियंत्रण रखेगी, उसे अगले जन्म में अपने पति के निकट का स्थान प्राप्त होगा।

(2.5)  जो सदाचारी स्त्री अपने पति की मृत्यु के पश्चात् भी पवित्रता का पालन करती रहेगी, उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी।

यह प्रथा आगे चलकर सती प्रथा के नाम से जानी गई, जिसे बाद में मनुस्मृति ने भी आत्मसात कर लिया। कुछ स्त्रियां तो अपने पति के प्रति प्रेम को दर्शाने के लिए सती हो जाया करती थीं, जिनके लिए प्रेम ही जीवन में सर्वोच्च होता था। लेकिन उनमें से कुछ ऐसी भी होती थीं जो कि सती नहीं होती थी। उनका यह विश्वास रहता था कि वे इस संसार में खुश हैं और वह अन्य को भी खुश रखने का प्रयास करेंगी, किंतु जो स्त्रियां सती होने से इंकार कर देती थीं, उनके अपने परिवार में बहुत अधिक दुर्दशा होती थी। बंगाल में यह सती प्रथा बड़े पैमाने पर फैली हुई थी। यहाँ तक कि ब्रिटिश कानूनों के होने के बावजूद भी वहां पर अनेक डरावनी दुर्घटनाएं होती रहती थी। रमाबाई कहती हैं कि इन सामाजिक रीति-रिवाजों की क्रूरता की कोई हद नहीं होती है। यहां तक कि दक्षिण के ब्राह्मणों द्वारा तो विधवा स्त्रियों को हर 15 दिन के पश्चात् मुंडन करवाया जाता था, इसे देखते हुए निम्न जाति के लोगों ने भी इसे अत्यंत गर्व के साथ स्वीकार कर लिया और इस रस्म को निभाने लग गए।

(3)  महिला सशक्तिकरण

पंडिता रमाबाई ने विशेष रूप से महिला शिक्षा पर अधिक बल दिया था। यहां तक कि उन्होंने कई कन्या विद्यालयों की भी स्थापना की। उनका मानना था कि केवल तीन चीजों के माध्यम से ही महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन लाया जा सकता है और वे हैं- आत्मनिर्भरता, शिक्षा एवं कार्यकुशलता।

(3.1) आत्मनिर्भरता:  रमाबाई भारतीय महिलाओं को पुरुषों की भांति ही अधिक आत्मनिर्भर बनाना चाहती थी ताकि वे पुरुषों पर अधिक निर्भर न रह सकें। पुरुषों को भी महिलाओं की उतनी ही आवश्यकता होती है जितना कि महिलाओं को पुरुषों की आवश्यकता होती है। यदि समाज में महिलाएं अधिक समझदार और शिक्षित हो जाएंगी, तो महिलाएं भी पुरुषों की ही भांति उनके कार्यों में उनका अधिक हाथ बंटा सकेंगी। इसके विपरीत यह देखा गया है कि वे अपना अधिकांश समय केवल घरेलू कार्य में ही लगाती हैं। जिसके चलते, वे स्वयं की ओर ध्यान तक नहीं दे पातीं और इस स्थिति में वे कोई महान कार्य भी नहीं कर पाती व साथ ही न ही देश के विकास व उन्नति में अपना योगदान दे पाती हैं।

(3.2)  शिक्षा: रमाबाई का मानना था कि केवल शिक्षा द्वारा ही एक स्त्री स्वयं को आत्मनिर्भर बनाना सीख सकती है। सन् 1883 के शिक्षा आयोग के सर्वेक्षण में यह पाया गया कि भारत में शिक्षित महिलाओं की बहुत अधिक कमी है और यदि उन्हें विद्यालय भेजा भी जाता है तो कुछ समय के पश्चात् लगभग 8-9 वर्ष की आयु में उनकी शिक्षा को छुड़वा दिया भी जाता है। इस आयु में आमतौर पर उनका विवाह संस्कार कर दिया जाता है क्योंकि समाज में एक लड़की के जीवन के लिए शिक्षा से अधिक विवाह को अनिवार्य माना गया है।

रमाबाई शिक्षा के महत्व पर बल देते हुए लिखती हैं कि एक बुद्धिजीवी व्यक्ति उस संपदा का अर्जन करता है जो कि उसके लिए कभी न खत्म होने वाली संपदा होती है और जो उसे जीवन भर सुख प्रदान करे। लेकिन यह खुशहाली केवल शिक्षा द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। मानव जीवन के लिए शिक्षा एक ऐसी संपदा है, जो कभी ध्वस्त नहीं हो सकती। जो व्यक्ति इस शिक्षा के ऊपर अपना स्वामित्व स्थापित कर लेता है, वही व्यक्ति केवल इस संसार का सबसे सुखी व संपन्न व्यक्ति होता है और साथ ही साथ यह शिक्षा उसके अंदरूनी अंधकार का भी नाश करके उसके ज्ञान रूपी चक्षु को खोल देती है।

(3.3)  कार्यकुशलता: अपने इंग्लैंड और अमेरिका की यात्रा के दौरान पंडिता रमाबाई ने देखा कि वहां पर किस प्रकार से पुरुषों की ही भांति स्त्रियों को भी हर क्षेत्र में अपनी योग्यता व कार्यकुशलता का प्रदर्शन करने का अवसर प्रदान किया जाता है। वहां पर महिलाओं एवं पुरुषों दोनों को ही शिक्षा के समान अवसर एवं अधिकार प्राप्त हैं। भारत की भांति पश्चिम की महिलाएं केवल चार दिवारी तक सीमित नहीं थीं। पंडिता रमाबाई द्वारा संचालित विद्यालयों में मुख्य तौर पर पश्चिमी तरीकों और वहां की वैज्ञानिक पद्धतियों को अपनाया जाता था ताकि उच्च शिक्षा द्वारा लड़कियों के लिए इसे अधिक मज़ेदार बनाया जा सके। महिलाओं में आत्मनिर्भरता एवं सम्माननीय जीवन की चेतना को जगाने के लिए ही पंडिता रमाबाई ने सदैव ही इस क्षेत्र में अपना मूल्यवान योगदान दिया है।

निष्कर्ष

पंडिता रमाबाई ने अपना संपूर्ण जीवन महिलाओं के उत्थान के कार्यों में लगा दिया। उस समय पर भारत में बाल विवाह, सती प्रथा, कन्या वध जैसी कई कुप्रथाओं का बोलबाला देखने को मिलता था। यहाँ तक कि हमारे धर्म ग्रंथों ने भी महिलाओं की स्थिति को दयनीय बनाया हुआ था। इन सब धार्मिक मिथकों को तोड़ते हुए पंडिता रमाबाई ने कई विदेशी यात्राएं की थी और उन्होंने स्वयं के प्रतिभा का लोहा मनवाया। उन्होंने महिलाओं के लिए कई विद्यालयों का निर्माण भी करवाया ताकि उस वातावरण में रहकर वे शिक्षित एवं जागरूक बन सकें।

इस प्रकार से पंडिता रमाबाई के विचारों और उनके कार्यों का भारत के महिला आंदोलनों में एक अहम् स्थान सदैव ही रहेगा। पंडिता रमाबाई का महिलाओं के प्रति सशक्तिकरण का सपना भले ही धूमिल सा हो गया हो, लेकिन उन्होंने अपने जीवन में सदैव इसके लिए अपनी आवाज को बुलंद रखा। उन्होंने लैंगिक समानता के विरुद्ध कई बार आवाज उठाई, ताकि महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हो सकें। समकालीन परिस्थितियों को यदि देखा जाए तो आज भी भारत में महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय देखी जा सकती है। भले ही शहरों में महिलाओं को पुरुषों के बराबर कंधे से कंधा मिलाकर अवसर, समानता एवं अधिकार प्राप्त हों, मगर आज भी भारतीय गांवों में कम आयु में ही बालिकाओं का विवाह करवा दिया जाता है तथा उनकी शिक्षा की ओर कोई प्राथमिकता नहीं दी जाती है। अंततः कहा जा सकता है कि पंडिता रमाबाई द्वारा चलाए गए कार्यक्रमों ने आधुनिक स्त्री के जीवन की नींव को रखा।

 

महत्वपूर्ण प्रश्न

 

  1. Examine Ramabai’s critique of caste and gender in Hindu society.

       हिन्दु समाज के अंतर्गत जाति और जेंडर पर रामाबाई द्वारा की गई आलोचना का परीक्षण कीजिए?

  1. Critically analyze Ramabai’s contribution on gender issues in 19th century India.

        19 वीं शताब्दी के भारत में जेंडर संबंधी वाद-विषयों पर रमाबाई के योगदान का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए?

  1. Examine P. Ramabai’s views on Patriarchy.

       पं ० रमाबाई के पितृसत्तात्मक सिद्धान्त की विवेचना कीजिए?

  1. Pandita Ramabai’s on gender

      जेंडर पर पंडिता रामाबाई के विचार

 

संदर्भ सूची

  • त्यागी, रूचि (सं) (2015). ‘आधुनिक भारत का राजनितिक चिंतन: एक विमर्श’, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय: दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली.
  • गौतम, बलवान (सं) (2013).‘तुलनात्मक राजनितिक सिध्दांत के संदर्भ’, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय: दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली.
  • रमाबाई, पंडित, 2006, हिन्दू स्त्री का जीवन, अनुवाद- शंभू जोशी, संवाद प्रकाशन, मेरठ.
  • Dongre, R.K. and J.F.Patterson (1963), ‘Pandita Ramabai : A life of Faith and Prayer’, Madras: The Christian Literature Society.
  • Chakravarti, Uma (1998), ‘Rewriting History: The Life and Times of Pandita Ramabai’, Zubaan, New Delhi.
  • Kosambi, Meera (Compiled and edited) (2000), ‘Pandita Ramabai Through Her Own Words: Selected Works’, Oxford University Press, New Delhi.

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