चोल वंश का राजनीतिक इतिहास
(Political History of Chola Dynasty)
परिचय (Introduction)
कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों से लेकर कुमारीअन्तरीप तक का विस्तृत भूभाग प्राचीन काल में तमिल क्षेत्र का निर्माण करता था। इस क्षेत्र में तीन प्रमुख राज्य थे- चोल, चेर और पाण्ड्य। सम्राट अशोक के 13वें शिलालेख में इन तीनों राज्यों की जानकारी प्राप्त होती है। कालान्तर में चोलों ने तंजौर को केंद्र बनाकर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की।
चोल इतिहास के स्रोत (Sources of Chola History)
चोल राजवंश के इतिहास की जानकारी पुरातात्विक और साहित्यिक स्रोतों से प्राप्त होती है। पुरातात्विक स्रोतों में अभिलेखों का स्थान प्रमुख है। इन अभिलेखों में संस्कृत, तमिल, कन्नड़ और तेलगू आदि भाषाओं का उपयोग हुआ है। विजयालय (859-871 ई.) के बाद का चोल इतिहास का प्रमुख स्रोत अभिलेख ही है।
राजराज प्रथम ने अभिलेखों द्वारा अपने पूर्वजों के इतिहास को संकलित करने और अपने काल की घटनाओं और विजयों को लेखों में अंकित कराने की प्रथा का आरंभ किया। जिसका अनुकरण बाद के शासकों ने भी किया। उसके समय के प्रमुख लेखों में लेडन दानपत्र और तंजौर मन्दिर में उत्कीर्ण लेख हैं।
राजेन्द्र प्रथम के समय के प्रमुख लेख तिरुवालंगाडु और करन्डै दानपत्र हैं, जो उसकी उपलब्धियों की जानकारी देते हैं।
राजराज तृतीय के समय का तिरुवेन्दिपुरम् अभिलेख चोल वंश के उत्कर्ष का तथ्यात्मक विवरण प्रदान करता है। इस अभिलेख में होयसल शासकों के प्रति आभार प्रकट किया गया है, जिनकी सहायता से चोलवंश का पुनरुद्धार सम्भव हो सका था। राजाधिराज प्रथम के काल के मणिमंगलम् अभिलेख से उसकी लंका विजय और चालुक्यों के साथ संघर्ष की जानकारी मिलती है।
अभिलेखों के अलावा धवलेश्वरम् से चोलों के स्वर्ण सिक्कों का एक ढेर मिला है। इनसे चोलों की समृद्धि की जानकारी प्राप्त होती है।
राजाधिराज प्रथम के कुछ सिक्के लंका से प्राप्त हुये हैं, जिनसे वहाँ उसके अधिकार की पुष्टि होती है। दक्षिण कनारा से भी चोलों के कुछ रजत सिक्के मिले हैं। अतः ये सिक्के चोल शासकों के दक्षिण भारत पर उनकी स्थिति को प्रकट करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
साहित्यिक स्रोतों में सर्वप्रथम संगम साहित्य (100-250 ई.) है। इसके अध्ययन से आरम्भिक चोल शासक करिकाल की उपलब्धियों की जानकारी प्राप्त होती हैं। पाण्ड्य और चेर शासकों के साथ चोलों के सम्बन्धों की भी जानकारी संगम साहित्य से प्राप्त होती है।
जयन्गोण्डार द्वारा रचित कलिंगत्तुपराणि से कुलोत्तुंग प्रथम की वंश-परम्परा और उसके समय में कलिंग पर किये जाने वाले आक्रमण की जानकारी मिलती है। शेक्किलार द्वारा रचित ‘पेरियपुराणम्’ से तत्कालीन धार्मिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। इस ग्रंथ को कुंलोत्तुंग द्वितीय के समय लिखा गया था।
महावंश नामक बौद्ध ग्रंथ से परान्तक की पाण्ड्य विजय और राजेन्द्र प्रथम की लंका विजय की जानकारी प्राप्त होती है। चीनी स्रोतों से चोल और चीनी शासकों के बीच राजनयिक सम्बन्धों की जानकारी प्राप्त होती है। इन चीनी स्रोतों के अनुसार राजराज प्रथम और कुलोत्तुंग प्रथम के काल में एक दूत-मण्डल चीन की यात्रा पर भेजा गया था। चीनी यात्री चाऊ-जू -कूआ, पेरीप्लस और टालमी के ग्रन्थ में भी चोलों की जानकारी प्राप्त होती है।
चोलों का राजनैतिक इतिहास (Political History of the Cholas)
चोल शासकों के आरंभिक इतिहास की ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। संगम युग (लगभग 100-250 ई. ) में चोल शासक दक्षिण में शक्तिशाली थे। इस काल के शासकों में करिकाल (लगभग 190 ई.) की जानकारी संगम साहित्य में मिलती है।
करिकाल एक वीर योद्धा था जिसने पाण्ड्य और चेर शासकों को पराजित किया। उसके बाद चोलों की राजनीतिक शक्ति कमज़ोर पड़ गई और 9वीं शताब्दी ई. के मध्य तक उनके इतिहास के विषय में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। यह संभवतः तमिल क्षेत्र पर पहले कलभ्रों और फिर पल्लवों के आक्रमणों के कारण हुआ।
विजयालय (850-871 ई.) – 9वीं शताब्दी के मध्य में विजयालय ने चोल सत्ता का पुनरुत्थान किया। इस समय विजयालय पल्लवों के सामन्त के रूप में उरैयूर (त्रिचनापल्ली) के समीपवर्ती क्षेत्र में शासन करता था। उरैयूर चोलों का प्राचीन निवास स्थान था। इस समय पाण्ड्यों और पल्लवों में संघर्ष चल रहा था। पाण्ड्यों की कमज़ोर स्थिति का लाभ उठाकर विजयालय ने तंजोर पर अधिपत्य स्थापित कर लिया और वहाँ उसने दुर्गा देवी का एक मन्दिर बनवाया। अतः चोल साम्राज्य की स्थापना कि दिशा में यह पहला कदम था।
आदित्य प्रथम (871-907 ई.) – विजयालय के बाद उसका पुत्र आदित्य प्रथम चोल शासक बना। आरम्भ में वह पल्लव शासक अपराजित का सामन्त था और उसने श्रीपुरंवियम् के युद्ध में अपने राजा को पाण्ड्यों के विरुद्ध मदद की। इस युद्ध में पाण्ड्यों की शक्ति समाप्त हो गई किंतु अपराजित अपनी विजयों का उपभोग नहीं कर सका। आदित्य प्रथम ने उसकी हत्या कर दी और तोण्डमण्डलम् को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। इसके बाद उसने पाण्ड्यों से कोंगू प्रदेश छीन लिया और पश्चिमी गंग राज्य ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर लिया। उसने अपने पुत्र परान्तक का विवाह चेर वंश की राजकुमारी के साथ किया। इस प्रकार आदित्य प्रथम ने एक शक्तिशाली चोल साम्राज्य की नींव रखी।
परान्तक प्रथम (907-955 ई.) – आदित्य प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र परान्तक प्रथम चोल शासक बना। उसने मदुरा के पाण्ड्य शासक को पराजित किया और मदुरा पर अधिकार कर लिया। अपनी इस विजय के अवसर में उसने ‘मदुरैकोण्ड’ की उपाधि धारण की। श्रीलंका के शासक ने पाण्ड्य राजा का साथ दिया था, किंतु वह भी पराजित होकर वापस चला गया। राष्ट्रकूट वंश के शासक कृष्ण द्वितीय को भी परान्तक प्रथम ने पराजित किया, लेकिन बाद में राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय से वह स्वयं तक्कोलम् के युद्ध में पराजित हो गया। अतः दक्षिण भारत में एकछत्र राज्य स्थापित करने का चोल शासक का सपना पूरा नहीं हो पाया। परान्तक प्रथम ने अनेक शैव मन्दिरों का निर्माण करवाया।
परान्तक प्रथम की मृत्यु के बाद 30 वर्षों तक चोल राज्य की शक्ति दुर्बल रही। परान्तक प्रथम के बाद गंडरादित्य (955-957 ई.), अरिन्जय (957 ई.), परान्तक द्वितीय (957 ई.-973 ई.) और उत्तमचोल (973 ई.-985 ई.) क्रमश: चोल शासक बने।
985 ई. में राजराज प्रथम चोल शासक बना और उसने चोलों की स्थिति को पुनः मजबूत किया।
राजराज प्रथम (985-1014 ई.) – राजराज प्रथम चोल राजवंश का प्रतापी शासक था। उसकी विजयों की जानकारी उसके शासन के 29वें वर्ष में जारी तंजौर अभिलेख से प्राप्त होती है। राजराज प्रथम के शासनकाल से दो शताब्दियों तक चोल वंश का इतिहास सम्पूर्ण दक्षिण भारत का इतिहास बन जाता है।
राजराज प्रथम की सैनिक उपलब्धियाँ
(1) केरल विजय – राजराज प्रथम ने सर्वप्रथम केरल के शासक रविवर्मा को पराजित कर त्रिवेन्द्रम पर अधिकार कर लिया। इस विजय के अवसर पर उसने ‘काण्डलूर शालैकलमरूत्त’ की उपाधि धारण की।
(2) पाण्ड्य राज्य पर विजय – तिरुवालंगाडु ताम्रपत्र लेख से ज्ञात होता है कि राजराज प्रथम ने पाण्ड्य शासक अमरभुजंग को पराजित कर बंदी बना लिया। राजराज प्रथम ने उसकी राजधानी मदुरा पर अधिकार कर लिया।
(3) सिंहल विजय – अपनी नौसेना की मदद से राजराज प्रथम ने सिंहल द्वीप (श्रीलंका) के शासक महिन्द पंचम को पराजित कर उसकी राजधानी अनुराधापुर को नष्ट कर उत्तरी लंका पर अधिकार कर लिया। राजराज प्रथम ने अनुराधापुर के स्थान पर पोलोन्नरूव को अपनी राजधानी बनाया और उसका नाम ‘जननाथमंगलम्’ रखा।
(4) कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों से युद्ध – आरंभ से ही चोलों और चालुक्यों के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने सम्भवतः उत्तम चोल को पराजित किया था। तैलप के बाद सत्याश्रय चालुक्य सिंहासन पर बैठा, किंतु वह राजराज प्रथम का सामना नहीं कर सका और युद्ध भूमि से भाग खड़ा हुआ। चोल सेना ने लूटपाट की। इस अभियान से चोलों को अतुल सम्पत्ति प्राप्त हुई और चोल साम्राज्य की सीमा तुंगभद्रा नदी तक विस्तृत हो गई, किंतु सत्याश्रय ने कुछ समय बाद अपने राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया।
(5) वेंगी के पूर्वी चालुक्य राज्य में हस्तक्षेप – वेंगी के चालुक्यों के गृहयुद्ध में राजराज प्रथम ने हस्तक्षेप कर जटाचोड़ भीम को अपदस्थ कर शक्तिवर्मन को अपने संरक्षित सामन्त के रूप में स्थापित किया। इसके बाद कल्याणी के चालुक्य शासक सत्याश्रय ने 1006 ई. में वेंगी पर आक्रमण कर दिया। इस पर राजराज प्रथम ने अपने पुत्र राजेन्द्र चोल को एक शक्तिशाली सेना के प्रधान के रूप में पश्चिमी चालुक्यों पर आक्रमण के लिए भेजा। इस सेना ने सत्याश्रय को न केवल वेंगी से हटने पर मजबूर किया बल्कि उसकी राजधानी मान्यखेट को भी ध्वस्त कर दिया और बीजापुर, हैदराबाद, रायचूर पर अधिकार कर लिया। इस अभियान में चोल सेना को अतुल सम्पत्ति प्राप्त हुई। शक्तिवर्मन वेंगी का शासक बना रहा और चोल शासक राजराज प्रथम ने अपनी पुत्री का विवाह उसके छोटे भाई से कर दिया।
(6) पश्चिमी गंगों पर विजय – राजराज प्रथम ने मैसूर क्षेत्र के पश्चिमी गंगों पर विजय प्राप्त की और गंगवाड़ी पर अधिकार कर लिया।
इस प्रकार अपनी विजयों के कारण राजराज प्रथम ने एक विशाल चोल साम्राज्य की स्थापना की। उसके साम्राज्य में तुंगभद्रा नदी तक का सम्पूर्ण दक्षिणी भारत, सिंहल और मालदीप का कुछ भाग शामिल था। उसने चोलमार्तण्ड, राजाश्रय, तेलिंगकुलकाल, पाण्ड्यकुलशनि, राजमार्तण्ड, सिंहलान्तक आदि उपाधियाँ धारण की।
राजेन्द्र प्रथम (1014-1044 ई.) – राजराज प्रथम के बाद उसका पुत्र राजेंद्र प्रथम चोल शासक बना। वह अपने पिता के समान एक महत्वाकांक्षी और साम्राज्यवादी शासक था।
राजेन्द्र प्रथम की सैनिक उपलब्धियाँ
(1) सिंहल विजय – करन्दै दानपात्र में राजेन्द्र प्रथम की सिंहल (श्रीलंका) विजय की जानकारी प्राप्त होती हैं। इसके अनुसार चोल शासक राजेन्द्र प्रथम ने सिंहल द्वीप पर आक्रमण करके वहाँ के शासक महिन्द पंचम को बंदी बना लिया और लंका को अपने राज्य में मिला लिया।
(2) चेर और पाण्ड्यों पर विजय – तिरूवालंगाडु ताम्रपत्र लेख से पता चलता है कि चोल शासक राजेन्द्र प्रथम ने केरल और पाण्ड्य राज्यों को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया। इन दोनों का एक पृथक् राज्य निर्मित किया गया और उसका मुख्यालय मदुरा रखा गया।
(3) चालुक्यों से संघर्ष – कल्याणी के चालुक्यों और चोल शासक राजेन्द्र प्रथम के मध्य संघर्ष का मुख्य कारण वेंगी के चालुक्यों पर प्रभुत्व स्थापित करने की आपसी प्रतिद्वन्द्विता थी। वेंगी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य की मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के बाद उसके दो पुत्रों विजयादित्य सप्तम और राजराज में उत्तराधिकार हेतु संघर्ष छिड़ गया। इसमें कल्याणी के चालुक्य शासक जयसिंह द्वितीय और कलिंग के पूर्वी गंग शासक ने विजयादित्य सप्तम के पक्ष का समर्थन किया जबकि चोल शासक राजेन्द्र प्रथम ने राजराज का समर्थन किया। अंत में चोल शासक राजेन्द्र प्रथम राजराज को वेंगी के राजसिंहासन पर बैठाने में सफल रहा, किन्तु 9 वर्ष के बाद विजयादित्य ने जयसिंह की सहायता से राजराज को हटाकर वेंगी के सिंहासन पर पुनः अधिकार कर लिया। राजराज ने अपना संघर्ष जारी रखा और 1035 ई. में पुनः सिंहासन पर अधिकार कर लिया ।
(4) पूर्वी भारत पर विजय — चोल सेना सर्वप्रथम गोदावरी को पार कर उड़ीसा होते हुए बंगाल में पहुँची, इस समय बंगाल पर पाल शासक महिपाल प्रथम का शासन था। चोल सेना के समक्ष महिपाल ने घुटने टेक दिये। राजेन्द्र प्रथम ने समीपवर्ती क्षेत्रों के अन्य शासकों को भी पराजित किया। इसकी जानकारी चोल अभिलेखों से प्राप्त होती है।
इस प्रकार चोल गंगा नदी तक जा पहुँचे और वहाँ से लाया गया गंगाजल, नई बन रही राजधानी के एक सरोवर ‘चोलगंगा’ में रखा गया तथा राजधानी का नाम ‘गंगईकोण्डचोलपुरम’ रखा गया। इस विजय के अवसर पर राजेन्द्र प्रथम में ‘गंगईकोण्ड चोल’ की उपधि धारण की।
(5) दक्षिण-पूर्वी एशिया के क्षेत्रों पर विजय – राजेन्द्र प्रथम की सैनिक उपलब्धियाँ स्थानीय प्रदेशों के साथ भारत की सीमा के बाहर भी विजय प्राप्त की।
राजेन्द्र प्रथम के शासन के 14वें वर्ष में जारी ताम्रपत्र में श्रीविजय राज्य के अभियान की जानकारी प्राप्त होती है। नौसैनिक जहाजी बेड़े की मदद से समुद्र को पार कर राजेन्द्र प्रथम ने श्रीविजय पर आक्रमण किया था। श्रीविजय राज्य में मलाया प्रायद्वीप, जावा, सुमात्रा और दक्षिण-पूर्वी एशिया के अन्य द्वीप सम्मिलित थे।
चोल अभिलेखों से पता चलता है कि श्रीविजय राज्य के शासक संग्राम विजयोत्तुंगवर्मन को बन्दी बना लिया। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य चीनी व्यापार को सुरक्षित करना था।
राजेन्द्र प्रथम ने श्रीविजय राज्य पर अपनी विजय स्थापित करके चीन और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के साथ भारतीय व्यापार के मार्ग को प्रशस्त किया।
(6) सिंहल, पाण्डेय और केरल विद्रोहों का दमन – राजेन्द्र चोल के शासनकाल के अन्तिम दिनों में सिंहल, पाण्डेय और केरल राज्यों ने चोल के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। राजेन्द्र प्रथम के पुत्र राजाधिराज प्रथम ने सफलतापूर्वक इन विद्रोहों का दमन किया।
राजेन्द्र प्रथम के उत्तराधिकारी (1044-1279 ई.)
(1) राजाधिराज प्रथम (1044-1052 ई.)
(2) राजेन्द्र द्वितीय (1052-1064 ई.)
(3) वीर राजेन्द्र (1064-1070 ई.)
(4) कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120 ई.)
(5) विक्रम चोल (1120-1133 ई.)
(6) कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150 ई.)
(7) राजराज द्वितीय (1150-1173 ई.)
(8) राजाधिराज द्वितीय (1173-1178 ई.)
(9) कुलोत्तुंग तृतीय (1179-1218 ई.)
(10) राजराज तृतीय (1218-1246 ई.)
(11) राजेन्द्र तृतीय (1246-1279 ई.)
इस प्रकार राजेन्द्र तृतीय चोल वंश का अन्तिम शासक था। पाण्ड्य शासक जटावर्मन सुन्दर पाण्ड्य ने 1251 ई. में चालुक्य, होयसल और काकतीय राज्यों को जीत लिया तथा राजेन्द्र तृतीय को अपनी अधीनता स्वीकार करवाई। अन्ततः 1279 ई. में पाण्ड्य शासक कुलशेखर पाण्ड्य ने राजेन्द्र तृतीय को पराजित कर चोल शासन का अन्त कर दिया और चोल शासित तमिलनाडु प्रदेश पर शक्तिशाली पाण्ड्य राज्य का आधिपत्य स्थापित किया।
संदर्भ सूची
- झा, द्विजेन्द्रनारायण व श्रीमाली, कृष्णमोहन, (सं.) (1984). प्राचीन भारत का इतिहास, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय : दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
- थापर, रोमिला (2016). पूर्वकालीन भारत, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय : दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
- शर्मा, प्रो. कृष्णगोपाल व जैन, डॉ. हुकुम चंद, (2019).भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (भाग-1), राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर
“मुफ्त शिक्षा सबका अधिकार आओ सब मिलकर करें इस सपने को साकार”
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Nice study material
Thanks