प्रागैतिहासिक काल / पाषाण काल | Prehistoric Period / Stone Age in Hindi

प्रागैतिहासिक काल / पाषाण काल

 

(1)  इतिहास के अध्ययन हेतु काल विभाजन

इतिहासकार भारतीय इतिहास को तीन भागों में बांटते हैं, जो निम्नलिखित है –

(1.1) प्रागैतिहासिक काल – इस काल का कोई लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। अतः इस काल का इतिहास लिखते समय इतिहासकार पूर्ण रूप से पुरातात्त्विक साधनों पर निर्भर रहते हैं। पाषाण काल का अध्ययन इसी के अंतर्गत किया जाता हैं।

(1.2) आद्य ऐतिहासिक काल – प्रागैतिहासिक काल और ऐतिहासिक काल के बीच के काल को  आद्य ऐतिहासिक काल कहा गया है। इस काल का लिखित साधन तो उपलब्ध है, किंतु उसे अब तक पढ़ा नहीं जा सका है। इसके अंतर्गत हड़प्पा सभ्यता और वैदिक काल का अध्ययन किया जाता हैं।

(1.3) ऐतिहासिक काल – इस काल की लिखित सामग्री को पढ़ा जा सकता है और जिसका समय 600 ईसा पूर्व से शुरू होता है।

(2) सन् 1836 ई. में डेनमार्क के विद्वान सी. जे. थॉमसन (C. J. Thomsen) ने कोपेनहेगन संग्रहालय की सामग्री के आधार पर मानव इतिहास को त्रिकाल – पाषाण काल, कांस्य काल, लौह काल में विभाजित किया।

(3) चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) ने मानव की उत्पत्ति के संबंध में सन् 1859 ई. में अपनी पुस्तक ‘ऑन दि ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज’ (On the Origin of Species) में प्रकाशित किया।

(4) जॉन लुब्बाक (John Lubbock) ने सन् 1865 ई. में अपनी पुस्तक ‘प्रिहिस्टोरिक टाइम्स’ (Pre-Historic Times) में पाषाण काल का विभाजन पुरापाषण (Paleolithic),  नवपाषाण (Neolithic) में किया। अतः जॉन लुब्बाक ने सर्वप्रथम पुरापाषाण और नवपाषाण शब्द का प्रयोग किया।

(5) कॉमसन और ब्रेडवुड ने सन् 1961 ई. में पाषाण काल को तीन भागों में विभाजित किया। 1. पुरापाषाण काल , 2. मध्यपाषाण काल , 3. नवपाषाण काल हैं।

(6) पाषाण काल (Stone Age) को तीन भागों में विभाजित किया गया है, जो निम्नलिखित है –

  1. पुरापाषाण काल (Palaeolithic Age)
  2. मध्यपाषाण काल (Mesolithic Age)
  3. नवपाषाण काल (Neolithic Age)

पुरापाषाण काल (लगभग 2 लाख ई. पू. से 10,000 ई. पू.)

(1) पुरापाषाण काल में मानव पूर्णतः आखेट या शिकार और खाद्य-संग्रह पर निर्भर था और वे खानाबदोश (घुमक्कड़) जीवन व्यतीत करते थे। इस काल में मनुष्य खाद्य पदार्थों का उपभोक्ता मात्र था, उत्पादक नहीं था।

(2) पुरापाषाण शब्द अंग्रेजी भाषा के पैलियोलिथिक (Palaeolithic) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। पैलियोलिथिक शब्द दो शब्दों पैलियो और लिथिक से मिलकर बना है। पैलियो शब्द यूनानी भाषा के पैलियोस से बना है, जिसका अर्थ है ‘पुरा / प्राचीन’ तथा लिथिक शब्द यूनानी भाषा के लिथोस से बना है, जिसका अर्थ है ‘पाषाण’। इस प्रकार पैलियोलिथिक का अर्थ है –‘पुरापाषाण’

(3) पुरापाषाण काल के लोग नेग्रिटो (Negrito) जाति के थे।

(4) सर्वप्रथम रॉबर्ट ब्रूस फूट (Robert Bruce Foote) ने सन् 1863 ई. में मद्रास के पास स्थित पल्लवरम् नामक स्थान से पुरापाषाण काल का हस्त – कुठार (Hand axe) नामक उपकरण प्राप्त किया।

(5) रॉबर्ट ब्रूस फूट को ‘भारतीय प्रागैतिहासिक पुरातत्व का पिता’ कहा जाता है।

(6) महाराष्ट्र में बोरी नामक स्थान में हुए उत्खनन से ऐसे अवशेष मिले हैं, जिनके आधार पर मानव का अस्तित्व 14 लाख वर्ष पहले माना जा सकता है।

(7) केन्या में ओलोर्जेसाइली (Olorgesailie) और  किलोंबे (Kilombe) के उत्खनन स्थल से हस्त-कुठार (Hand axes) व शल्क-उपकरण (Flake tools) प्राप्त हुए हैं , जो कि 7 लाख से 5 लाख वर्ष पूर्व के हैं।

(8) दक्षिणी अफ्रीका में स्वार्टक्रान्स (Swartkrans) तथा केन्या में चेसोवांजा (Chesowanja) में पत्थर के औजारों के साथ आग में पकाई गई चिकनी मिट्टी और जली हुई हड्डियों के टुकड़े मिले हैं, 14 लाख से 10 लाख वर्ष प्राचीन हैं।

(9) फ्रांस स्थित टेरा अमाटा (Terra Amata) में लकड़ी एवं घास-फूस की छत वाली कच्ची व कमज़ोर झोपड़ियाँ मिली हैं, जो संभवता सामयिक मौसमी प्रवास के लिए बनाई जाती थी।

(10) सन् 1879 ई. में स्पेन की आल्टामीरा (Altamira) की गुफाओं से प्रागैतिहासिक मानव की चित्रकारी मिली है। इन गुफाओं से जानवरों के चित्र प्राप्त हुए हैं।

(11) सन् 1982 ई. में हथनोरा (होशंगाबाद जिला, मध्य प्रदेश) स्थल से अरूण सोनकिया ने होमो इरेक्टस की खोपड़ी का जीवाश्म प्राप्त किया। यह भारत से खोजा गया प्रागैतिहासिक मानव का प्राचीनतम् जीवाश्म है।

(12) पुरापाषाण काल को तीन भागों में विभाजित किया है, जो निम्नलिखित है –

  1. पूर्व या निम्न पुरापाषाण-काल (Lower Palaeolithic Age)
  2. मध्य पुरापाषाण-काल (Middle Palaeolithic Age)
  3. उच्च पुरापाषाण-काल (Upper Palaeolithic Age)

पूर्व/निम्न पुरापाषाण-काल (लगभग 2 लाख  ई.पू. से 1,50,000 ई.पू.)

       इस काल में मनुष्य मूलतः क्वार्ट्जाइड पत्थर का  प्रयोग करता था। इस काल के उपकरणों को दो भागों में विभाजित किया जाता है, जो निम्नलिखित है-

(1) चॉपर-चॉपिंग (पेबुल संस्कृति)

(1.1) चॉपर-चॉपिंग शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम एच.एल. मोवियस (H.L. Movius) ने किया। इस संस्कृति के उपकरण सर्वप्रथम पंजाब (पाकिस्तान) की सोहन नदी (सिन्धु की सहायक नदी) घाटी से प्राप्त हुए हैं, इसलिए इसे सोहन संस्कृति भी कहा जाता है।

(1.2) सर्वप्रथम डी.एन. वाडिया ने सन् 1928 ई. में इस संस्कृति का उत्खनन कर उपकरण सोहन नदी घाटी से प्राप्त किया। डी.एन. वाडिया को सोहन घाटी का पितामह कहा जाता हैं।

(1.3) सोहन नदी घाटी में कुल पाँच वेदिकाएँ मिली हैं।

(1.4) सन् 1936 ई. में एच. डी टेरा (Hellmut De Terra) ने ‘सोहन संस्कृति’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया।

(1.5) के.आर.यू. टॉड (K.R.U. Todd) ने सन् 1930 ई. में सोहन घाटी के पिण्डी घेब नामक स्थल का उत्खनन किया।

(1.6) सन् 1935 ई. में टी.टी. पीटरसन एवं एच. डी टेरा के नेतृत्व में येल केम्ब्रिज अभियान दल ने शिवालिक पहाड़ियों के पोतवार पठारी भाग का सर्वेक्षण कर पाषाणकालीन संस्कृति के साक्ष्य प्राप्त किए।

(1.7) एच.डी. सांकलिया ने सोहन घाटी में हस्त-कुठार और मानव आवास के साक्ष्य प्राप्त किए।

(2) हस्त-कुठार संस्कृति / एश्यूलियन संस्कृति

(2.1) हस्त-कुठार संस्कृति को मद्रासी संस्कृति या मद्रास उद्योग भी कहा जाता है।

(2.2) इस संस्कृति के उपकरण सर्वप्रथम रॉबर्ट ब्रूस फूट ने मई, 1863 ई. में मद्रास (आधुनिक तमिलनाडु) के पास स्थित पल्लवरम् नामक स्थान से प्राप्त किया। इसके बाद सितम्बर, 1863 ई. में रॉबर्ट ब्रूस फूट और डब्ल्यू. किंग (W. King) ने मद्रास के समीप अतिरम्पक्कम् से उपकरण प्राप्त किए।

(2.3) चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) में सोहन संस्कृति तथा मद्रास संस्कृति के एक साथ साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

(2.4) मनुष्य ने आग की जानकारी या खोज निम्न पुरापाषाण काल में की, किंतु भारत में इसका नियमित प्रयोग नवपाषाण काल में ही शुरू हुआ।

(3) पूर्व पुरापाषाण काल के प्रमुख औजार

  • हस्त-कुठार / हाथ की कुल्हाड़ी।
  • गण्डासा।
  • विदारणी।
  • खंडक।

नोट: इस काल के उपकरण क्वार्टजाइट (Quartzite) पत्थर से बने थे।

 (4) पूर्व पुरापाषाण काल के प्रमुख स्थल –

  • पंजाब (पाकिस्तान) में सोहन नदी घाटी।
  • प्राक्-सोहन उपकरण सोहन घाटी में कलार, मलकपुर, चौमुख, चौन्तरा आदि स्थलों से मिले हैं। चौंतरा उत्तर और दक्षिण की परम्पराओं का मिलन स्थल था।
  • राजस्थान में डीडवाना, चित्तौड़गढ़, जायल, अमरपुरा आदि।
  • उत्तर प्रदेश में बेलन घाटी।
  • मध्यप्रदेश में नर्मदा नदी घाटी, आजमगढ़, सोन नदी घाटी, भीमबेटका।
  • तमिलनाडु में कोर्टलयार नदी घाटी, पल्लवरम् , मानजानकारनई , वदमदुरै, अतिरम्पक्कम्।
  • आन्ध्रप्रदेश में करीमपुड़ी, नागार्जन कोण्डा, कर्नूल, गिद्दलूर।
  • कर्नाटक में हुंसगी, इसामपुर। इसामपुर में पुरापाषाण काल में पत्थर के औजार बनाने का केन्द्र था।
  • भारतीय उपमहाद्वीप में सिन्ध और केरल को छोड़ सभी स्थानों से पूर्व या निम्न पुरापाषाण काल के अवशेष प्राप्त होते हैं।

 

मध्य पुरापाषाण काल (लगभग 1,50,000 ई.पू. से 35,000 ई.पू.)

(1) मध्य पुरापाषाण काल में क्वार्ट्जाइट पत्थरों के स्थान पर चर्ट, फ्लिंट, जैस्पर आदि पत्थरों का उपयोग होने लगा। इस काल के उपकरण मुख्यतः शल्क (Flake) पर आधारित थे, इसलिए मध्य पुरापाषाण काल को शल्क संस्कृति भी कहा जाता है।

(2) मध्य पुरापाषाण काल में फलकों (Blades) पर बने उपकरणों की भी प्रधानता थी, इसलिए एच.डी. सांकलिया ने मध्य पुरापाषाण काल को ‘फलक संस्कृति’ (Blade Culture) का नाम दिया है।

(3) खुरचनी और वेधक सबसे महत्वपूर्ण उपकरण थे, अतः इसे खुरचनी-वेधक संस्कृति (Scraper – Borer Culture) भी कहा जाता है। यही उपकरण पश्चिमी यूरोप की मुस्तुरियन संस्कृति में भी प्रचलित है, इसलिए मध्य पुरापाषाण काल को मुस्तुरियन संस्कृति भी कहा जाता है।

(4) राजस्थान के अज़मेर में बूढ़ा पुष्कर झील और थार मरूस्थल से प्राप्त मध्य पुरापाषाण कालीन उद्योगों (उपकरणों) को वी.एन. मिश्र (V.N. Mishra) से लूनी उद्योग कहा है।

(5) सन् 1955 ई. में एच.डी. सांकलिया ने  सर्वप्रथम मध्य पुरापाषाण सांस्कृतिक चरण की खोज गोदावरी की सहायक प्रवरा नदी घाटी में  स्थित स्थल नेवासा (महाराष्ट्र) से की। इन्होंने नेवासा को मध्य पुरापाषाण काल की संस्कृति का प्रारूप स्थल कहा है।

(6) मध्य पुरापाषाण काल के प्रमुख उपकरण –

  • फलक (Blade)।
  • शल्क से बनी खुरचनी (Scrapers Made of Flake)।
  • वेधक (Borer)।
  • वेधनी (Points)।

(7) मध्य पुरापाषाण काल के महत्वपूर्ण स्थान –

  • महाराष्ट्र – बेल पान्थरी , खुरेगाँव , कालेगाँव , खण्डीवली , नेवासा आदि।
  • राजस्थान – बेराच, वागान, कादमली घाटियां , जायल, मंगलपुरा आदि।
  • तमिलनाडु – अतिरपक्कम, गुडियाम आदि।
  • कर्नाटक – गुलबर्गा , बेलगाम , बीजापुर , भीमा नदी , धारवाड़ आदि।
  • आंध्रप्रदेश –  नागार्जुनकोंडा , महबूब नगर , प्रकाशम कर्नूल , चित्तूर , कुडप्पा , नलकोण्डा , नेल्लौर आदि।
  • उत्तरप्रदेश – महोबा , हमीरपुर , झाँसी, सोनभद्र , सिंगरौली बेसिन , मेजा , चित्रकूट , बांदा आदि।
  • गुजरात – सौराष्ट्र और कच्छ का क्षेत्र।
  • पाकिस्तान – संघावो गुफा (मर्दन जिला)।
  • मध्यप्रदेश – भीमबेटका की गुफाएँ (रायसेन जिला), पाण्डव प्रपात (पन्ना जिला) आदि।
  • उत्तरप्रदेश – चित्रकूट , बाँदा , महोबा , हमीरपुर, सोनभद्र , सिंगरौली बेसिन , मेजा , करछना ,  आदि।

 

उच्च पुरापाषाण काल (लगभग 35,000 ई. पू. से 10,000 ई. पू. तक)

(1) इस काल के उपकरण ब्लेड की तरह धारयुक्त और पतले होते थे।

(2) इस काल में फलक (Blade) के उपकरणों के निर्माण में चर्ट , जैस्पर , फ्लिण्ट आदि पत्थरों का उपयोग किया गया है।

(3) इस काल को फलक और तक्षणी संस्कृति (Blade and Burin Culture) और चाकू संस्कृति भी कहा जाता है।

(4) इस काल की दो प्रमुख विशेषताएं हैं, पहला – नए चकमक उद्योग की स्थापना, दूसरा – आधुनिक मानव (होमोसैपिएंस) का उदय।

(5) उच्च पुरापाषाण काल की अन्तिम संस्कृति को मेग्देलिनियन संस्कृति (Magdalenian culture) कहा जाता है। इस संस्कृति का नामकरण फ्रांस की वैजेरे घाटी में स्थित ला मेडेलियन (La Madelein ) नामक स्थल से प्राप्त शैलाश्रय के आधार पर किया गया है।

(6) भारत में उच्च पुरापाषाण काल के अवशेष सर्वप्रथम उत्तर प्रदेश की बेलन घाटी से प्राप्त हुए हैं। बेलन घाटी और सोन घाटी में अनेक उच्च पुरापाषाणिक स्थलों की जानकारी प्राप्त होती है। 1960 के दशक में इन दोनों घाटियों में उत्खनन कार्य जी. आर. शर्मा के द्वारा किया गया।

(7) इस काल की हड्डी निर्मित मातृदेवी की प्रतिमा बेलन घाटी में स्थित लोहंदा नाला (इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश) से मिली है, जो विश्व की प्राचीनतम् अस्थि-निर्मित मातृदेवी की मूर्ति है, यद्यपि रॉबर्ट जी. बेडनरिक (Robert G. Bednarik) ने इसे उच्च पुरापाषाण काल का एक क्षतिग्रस्त हड्डी – बर्छी – सिर ( Bone- harpoon- head ) कहा है।

(8) बेलन घाटी (इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश) के चोपानी मांडो से उच्च पुरापाषाणिक चरण से लेकर नवपाषाण काल तक के अनुक्रम या बसावट की जानकारी प्राप्त होती है।

नोट – वर्तमान में इलाहाबाद को आधिकारिक तौर पर प्रयागराज के नाम से जाना जाता है।

(9) उच्च पुरापाषाण काल की महत्त्वपूर्ण विशेषता हड्डी निर्मित उपकरणों का प्रलचन है, जो सर्वाधिक संख्या में आन्ध्रप्रदेश के मुच्छतला चिन्तामणि गवि शैलाश्रय से प्राप्त हुए हैं।

(10) आन्ध्रप्रदेश में बेटमचेर्ला के समीप स्थित स्थल मुच्छतला चिन्तामणि गवि से उच्च पुरापाषाण कालीन गुफा के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ से प्राप्त उपकरणों में 90 प्रतिशत से अधिक हड्डियों से बने हैं। गुफा को स्थानीय भाषा में गवि कहा जाता है।

(11) आन्ध्रप्रदेश के कर्नूल में स्थित बिलासुरग्राम से प्राचीनतम चूल्हे के अवशेष मिले हैं। कर्नूल से ही पुरापाषाण काल के राख के साक्ष्य मिले हैं।

(12) महाराष्ट्र के पटणे से शतुरमुर्ग के अण्डे के खोल के टुकड़े पर कुरेद कर बनाई गई लाइनें प्राप्त हुई है।

(13) शतुर्मुग के अण्डों पर की गई चित्रकारी सर्वप्रथम सन् 1860 ई. में उत्तरप्रदेश के बांदा जिले की केन नदी के किनारे से मिली थी।

(14) मध्य प्रदेश के भीमबेटका की गुफाओं से भारत में गुफा चित्रकारी के प्राचीनतम् (पाषाण कालीन) साक्ष्य मिले हैं। सर्वप्रथम गुफाओं का प्रयोग और गुफा – चित्रकारी की शुरुआत इसी काल में हुई। भीमबेटका में सर्वाधिक संख्या में चित्र मध्यपाषाण काल के हैं।

(15) उच्च पुरापाषाण काल के अन्य महत्वपूर्ण स्थल –

  • मध्य प्रदेश- भीमबेटका , बंबुरी , रामपुर , बाघोर, जोगदहा।
  • महाराष्ट्र- इनामगाँव, पटणे , भदणे।
  •  झारखंड- सिंहभूम।
  • गुजरात- पावगढ़ क्षेत्र में विसदी।
  • राजस्थान- बूढ़ा पुष्कर।
  • आन्ध्रप्रदेश – कर्नूल में बिल्ला सुर्गम गुफाएँ , पलेरू घाटी (प्रकाशम जिला), रेनिगुन्टा  , वेमुला , नागार्जुन कोण्डा।
  • कर्नाटक- शोरापुर दोआब में सल्वादगी और मेरलभवी।

 

मध्यपाषाण काल (लगभग 10,000 ई.पू. से 4,000 ई.पू. )

(1) पुरापाषाण युग और नवपाषाण काल के बीच का संक्रमण काल मध्यपाषाण कहलाता है ।

(2) मध्यपाषाण शब्द अंग्रेजी भाषा के मेसोलिथिक (Mesolithic) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। मेसोलिथिक शब्द दो शब्दों मेसो और लिथिक से मिलकर बना है । मेसो शब्द यूनानी भाषा के मेसोस से बना है, जिसका अर्थ है ‘मध्य’ तथा लिथिक शब्द यूनानी भाषा के लिथोस से बना है, जिसका अर्थ है ‘पाषाण’। इस प्रकार मेसोलिथिक का अर्थ है  ‘मध्यपाषाण’।

(3) मध्यपाषाण (Mesolithic) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग होडर माइकल वेस्टुप (Hodder Michael Westropp) ने किया।

(4) इस काल में सूक्ष्म पाषाण उपकरण (Microliths) का प्रयोग देखने को मिलता है।

(5) इस काल के प्रमुख उपकरण चैल्सेडोनी (Chalcedony) से बने थे और औजार बनाने की तकनीकी फ्लूटिंग थी।

(6) भारत में मध्य पाषाण काल के विषय में जानकारी सर्वप्रथम खोज सन् 1867 ई . में सी.एल. कार्लाइल द्वारा विंध्याचल क्षेत्र में सूक्ष्म पाषाण उपकरणों को खोजे जाने से हुई।

(7) भारत में मध्यपाषाण काल होलोसीन युग के साथ आरंभ हुआ।

(8) मध्यपाषाण काल के महत्वपूर्ण स्थल –

  • गुजरात – कनेवल , लोटेश्वर, लंघनाज , रतनपुर।
  • आन्ध्रप्रदेश – नागार्जुन कोंडा, रेनिगुन्टा, ज्वालापुरम, गिद्दलूर।
  • कर्नाटक-  संगनकल्लू (बेल्लारी)।
  • तमिलनाडु- टेरी समूह, तिन्नेवेल्लि।
  • पश्चिम बंगाल- बीरभानपुर (बर्दवान)।
  • मध्य प्रदेश –  आदमगढ़ (होशंगाबाद), भीमबेटका (रायसेन)।
  • उत्तर प्रदेश –  चोपानी माण्डो (इलाहाबाद), महरूडीह (इलाहाबाद), सराय नाहर राय (प्रतापगढ़), महदहा (प्रतापगढ़), दमदमा (प्रतापगढ़), लेखहिया (मिर्जापुर), मोरहना पहाड़ (मिर्जापुर) , बघही खोर (मिर्जापुर),बरकछा (मिर्जापुर)।
  • बिहार – पैसरा।
  • राजस्थान – बागोर (भीलवाड़ा), तिलवाड़ा (बाड़मेर)।

(9) मध्यपाषाण काल के स्थलों से प्राप्त महत्वपूर्ण जानकारियां –

(9.1) आदमगढ़ ( होशंगाबाद , मध्य प्रदेश ) और बागोर (भीलवाड़ा , राजस्थान) से लगभग 5000 ई.पू. के पशुपालन प्राचीनतम् के साक्ष्य मिले हैं।

(9.2) बागोर को महासतियों का टीला और आदिम संस्कृति का संग्रहालय भी कहते है।

(9.3) भारत में सबसे बड़ा मध्यपाषाण कालीन स्थल बागोर (भीलवाड़ा, राजस्थान) कोठारी नदी के किनारे स्थित हैं, जिसका उत्खनन कार्य वी.एन. मिश्र द्वारा किया गया है।

(9.4) बागोर से जंगली और पालतू दोनों प्रकार के पशुओं की जली हुई अस्थियों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

(9.5) बागोर से व्यवस्थित अंत्येष्टि (Systematic burials) और नर कंकाल के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

(9.6) बागोर से वी. एन. मिश्र को सन् 1968-70 में लौह – काल के उपकरण भी प्राप्त हुए हैं।

(9.7) औबेदुल्लागंज स्थित भीमबेटका (रायसेन जिला, मध्य प्रदेश) का उत्खनन कार्य वी.एस. वाकणकर (V. S. Wakankar) ने किया। यहाँ की गुफाओं से मध्यपाषाण काल के उपकरणों के साथ मानव अंत्येष्टि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

(9.8) आदमगढ़  (होशंगाबाद, मध्य प्रदेश) के शैलाश्रयों से लगभग 25,000 लघुपाषाण उपकरण मिले हैं। इन लघु पाषाण उपकरणों की खोज आर. वी. जोशी ने की।

(9.9) पचमढ़ी (मध्य प्रदेश) के समीप मध्यपाषाण युग के दो शैलाश्रय (जंबू द्वीप और भ्रांत नीर / डोरोथी दीप) मिले हैं।

(9.10) मोरहना पहाड़ (उत्तर प्रदेश) में चित्रयुक्त शैलाश्रय मिले हैं। इन शैलाश्रय चित्रों में दो रथों के चित्र मिले हैं। इन रथों को तीर – कमान एवं भाले लिए हुए पैदल सैनिकों के समूह से घिरा हुआ दिखाया गया है। जिससे स्पष्ट होता है कि सूक्ष्मपाषाण पुरावशेषों में धनुष – बाण भी सम्मिलित थे।

(9.11) भारत में मानव के अस्थि-पंजर का सर्वप्रथम  अवशेष प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) के सराय नाहर राय और महदहा से प्राप्त हुआ है, जो मध्यपाषाण काल का है। यहाँ की कब्रों से अंत्येष्टि संस्कार विधि का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।

(9.12) सराय नाहर राय से प्राचीनतम् मानव जीवाश्म प्राप्त हुए हैं।

(9.13) सराय नाहर राय से संयुक्त रूप से दो पुरुषों और दो स्त्रियों के एक साथ दफनाए जाने का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।

(9.14) सराय नाहर राय से मानव आक्रमण या युद्ध का प्रमाण मिला है। इस स्थल की खोज के.सी. ओझा ने की और उत्खनन का कार्य जी.आर. शर्मा ने किया।

(9.15) सराय नाहर राय और महदहा से स्तम्भगर्त के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। स्तम्भगर्त आवास के लिए निर्मित झोपड़ियाँ हैं। इन दोनों स्थानों से गर्त – चूल्हे के प्रमाण भी मिले हैं ।

(9.16) सराय नाहर राय से 8 और महदहा से 35 चूल्हों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

(9.17) एक ही कब्र से तीन मानव कंकाल अर्थात् त्रिमानव समाधि दमदमा (उत्तर प्रदेश) से प्राप्त हुए हैं। इसी के साथ एक ही कब्र से चार मानव कंकाल सराय नाहर राय (उत्तर प्रदेश) से प्राप्त हुए हैं।

(9.18) सर्वप्रथम बूचड़खाने (वध स्थल) का साक्ष्य महदहा (उत्तर प्रदेश) से मिला है।

(9.19) महदहा से हड्डी (शृंग / सींग) के आभूषण और स्त्री पुरुष की युगल समाधि भी मिली है।

(9.20) दमदमा (प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश) से सर्वाधिक शवाधान (41 मानव शवाधान), हाथीदाँत की लटकन आदि मिले हैं।

(9.21) लेखहिया (मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश) से सर्वाधिक मानव कंकाल मिले हैं ।

(9.22) प्राचीन झोपड़ी का सर्वप्रथम साक्ष्य पैसरा  (बिहार) से मिला है जबकि झोपड़ियों का विस्तृत साक्ष्य चौपानी माण्डो (उत्तर प्रदेश) से मिला है। चौपानी माण्डो से प्राप्त झोपड़ियां मधुमक्खी के छत्ते जैसी हैं।

(9.23) उत्तर प्रदेश के चौपानी माण्डो से जंगली चावल, हस्तनिर्मित मृदभाण्ड, अन्नागार के साक्ष्य भी मिले हैं।

(9.24) मध्य प्रदेश के बारा सिमला, उत्तर प्रदेश के दो स्थलों सिद्धपुर और बरकछा से कारखानों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

(9.25) बरकछा (मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश) से घिसे हुए पत्थर के कुठार का ठूंठ मिला है।

(9.26) गुजरात के लंघनाज का उत्खनन एच.डी. सांकलिया ने किया। यहां से मध्यपाषाण काल के सूक्ष्म उपकरणों के सर्वोत्तम नमूने प्राप्त हुए हैं। गैंडे की हड्डी के साक्ष्य भी यहाँ से मिले हैं।

(9.27) गुजरात के कनेवल से गैंडे, नीलगाय, हिरण, जंगली सुअर, ऊँट आदि की हड्डियाँ प्राप्त हुई है। यहाँ का उत्खनन भी एच.डी. सांकलिया ने किया।

(9.28) गुजरात के लोटेश्वर से लगभग 4000 ई.पू. के पशुपालन के साक्ष्य मिले हैं।

(9.29) तमिलनाडु के टेरी समूह या टेरी टेला की खोज रॉबर्ट ब्रूस फुट ने की। टेरी टेला का अर्थ है बालू का टीला। यहाँ से मध्यपाषाण काल के ग्यारह बालू के टीले प्राप्त हुए हैं। टेरी समूह से प्रस्तर उद्योग का प्रमुख कच्चा माल स्फटिक और हल्का भूरा शृंगप्रस्तर भी मिला है। इसी के साथ टेरी समूह से चर्ट और फ्लिण्ट निर्मित उपकरण भी प्राप्त हुए हैं।

(9.30) कर्नाटक में बंगलौर के समीप जलाहल्ली से प्रस्तर औजार उद्योगों की एक नवीन विशेषता रोमन लिपि के D अक्षर के आकार ( ‘D’ shaped) के तिरछे तीर फलकों का उत्पादन किया जाता था।

(9.31) बीरभानपुर (पश्चिम बंगाल) का उत्खनन कार्य बी.बी. लाल द्वारा किया गया। यहाँ अनेक गड्ढे या भू-छिद्र मिले हैं , जिससे यह अनुमान लगाया गया है कि ये छिद्र खम्भे गाड़ने के लिए खोदे गए थे।

(9.32) मध्यपाषाण काल का प्रमुख पालतू जानवर कुत्ता था।

(9.33) मध्यपाषाण काल में लकड़ी की डोंगी का निर्माण, धनुष-बाण, शवों को दफनाने की प्रथा या अन्तिम संस्कार प्रथा का आरंभ हुआ।

(9.34) आन्ध्रप्रदेश के ज्वालापुरम से दक्षिण एशिया की प्राचीनतम लघुपाषाण औजार फैक्ट्री के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

(9.35) भीमबेटका, आदमगढ़, मिर्जापुर और प्रतापगढ़ आदि मध्यपाषाण काल के स्थल अपनी समृद्ध चित्रकला के लिए प्रसिद्ध हैं। इन सभी स्थानों से मिले चित्रों का मुख्य विषय पशु था। आदमगढ़ से प्राप्त गैंडे के शिकार का दृश्य प्रमुख चित्र है।

 

नवपाषाण काल – (लगभग 4,000 ई.पू. से 1,000 ई.पू. )

(1) विश्व के संदर्भ में नवपाषाण काल की शुरुआत 9000 ई. पू. में हुई, लेकिन भारत के संदर्भ में नवपाषाण काल की शुरुआत 4000 ई. पू. से मानी जाती है।

(2) नवपाषाण शब्द अंग्रेजी भाषा के नियोलिथिक  (Neolithic) का हिन्दी रूपान्तर है। नियोलिथिक शब्द दो शब्दों नियो और लिथिक से मिलकर बना है। नियो शब्द यूनानी शब्द के नियोस से बना है, जिसका अर्थ है नव / नया और लिथिक शब्द यूनानी भाषा के लिथोस से बना है, जिसका अर्थ है पाषाण। इस प्रकार नियोलिथिक का अर्थ है नवपाषाण।

(3) भारत में नवपाषाण काल से संबंधित पुरातात्विक खोज को शुरू करने का श्रेय डॉ. प्राइमरोज को दिया जाता है, इन्होंने सन् 1842 ई. में कर्नाटक के लिंगसुगुर नामक पुरास्थल से नवपाषाण कालीन उपकरणों की खोज की। इसके बाद सन् 1860 ई. में मेसुरियर (Le Mesurier) ने नवपाषाण काल के प्रथम प्रस्तर उपकरण टोंस नदी घाटी (इलाहाबाद जिला, उत्तर प्रदेश) में प्राप्त किए। सन् 1860 ई. में टोंस नदी घाटी से प्राप्त प्रथम उपकरण सेल्ट (Celt) था, जो नवपाषाण काल का था।

(4) नवपाषाण (Neolithic) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम सन् 1865 ई. में जॉन लुब्बाक ने अपनी पुस्तक ‘प्री-हिस्टोरिक टाइम्स’ (Pre Historic Times) में किया।

(5) गार्डन चाइल्ड ने नवपाषाण काल को नवपाषाण क्रान्ति और अन्न उत्पादक संस्कृति कहा।

(6) नवपाषाण क्रान्ति शब्दावली का प्रयोग गार्डन चाइल्ड ने सन् 1936 ई. में अपनी पुस्तक Man Makes Himself में किया था।

भारत में प्रथम नवपाषाण कुठार सन् 1842 ई. में मिडोज टेलर (Meadows Taylor) को लिंगसुगुर (रायचूर, कर्नाटक) से प्राप्त हुआ।

(7) कर्नाटक के बेल्लारी में विलियम फ्रेजर ने सन् 1872 ई. में नवपाषाणिक स्थल की खोज की।

(8) नवपाषाण काल का प्रमुख औजार पत्थर की कुल्हाड़ी था।

(9) नवपाषाण काल के उपकरण पॉलिश किए हुए पत्थरों के बने थे। अतः यह पॉलिश किए हुए उपकरणों की संस्कृति भी कही जाती है।

(10) रॉर्बट ब्रुस फुट ने नवपाषाण उपकरणों को 78 वर्गों में बाँटा है, जिनमें 41 चमकीले / पॉलिश वर्ग के और 37 भद्दे (खुरदरे) वर्ग के थे।

(11) नवपाषाण काल के मनुष्य की तीन प्रमुख उपलब्धियां :

  1. पशुपालन।
  2. कृषि।
  3. स्थाई निवास।

(12) नवपाषाण काल का मनुष्य गेहूँ , जौ, कपास, रागी, कुलथी, चावल आदि की खेती करता था। इसी के साथ नाव का निर्माण भी इसी काल में शुरू हुआ।

(13) सर्वप्रथम नवपाषाण काल में मृद्भाण्ड बनने लगे, क्योंकि इसी काल में कृषि की शुरुआत हुई और मनुष्य ने अन्न संग्रह हेतु बर्तनों की आवश्यकता पड़ी।

(14) नवपाषाण काल के शुरू में हाथ से बनाये गये मृद्भाण्ड (Hand – made pottery) मिलते हैं, किंतु बाद में बर्तन बनाने के लिए कुम्हार के चाक का प्रयोग करने लगा। इन बर्तनों में पॉलिशदार काला मृद्भाण्ड (Black burnished ware) , धूसर मृद्भाण्ड (Grey ware), मन्द वर्ण मृद्भाण्ड (Mat-impressed ware) आदि प्रमुख है।

(15) दक्षिण भारत में सर्वप्रथम नवपाषाण काल का साक्ष्य संगनकल्लू (कर्नाटक) और नागार्जुन कोंडा (आंध्र प्रदेश) से मिला है।

(16) राख के टीले (Ash Mounds)

(16.1) राख के टीले (Ash Mounds) मवेशी रखने वालों की बस्ती के अवशेष हैं। प्रायः जानवरों को एक बाड़े में रखा जाता था और उनका जो गोबर एकत्र होता था, उसमें आग लगा दी जाती थी, जिससे वह गोबर राख के टीले में बदल जाता था। इन लोगों की ऐसी मान्यता थी कि ऐसा करने से उनके पशुओं की रोगों से रक्षा होती है तथा इस गोबर की राख का उपयोग दीवारों के प्लास्टर करने के भी काम आता था।

(16.2) सर्वप्रथम कर्नाटक स्थित कुपगल से राख के टीले की खोज टी.जे. न्यूबोल्ड (T.J. Newbold) ने की और सर्वप्रथम इन टीलों का सम्बन्ध नवपाषाण काल से रॉबर्ट ब्रुस फुट ने बताया ।

(16.3) राख के टीले के प्रमुख स्थल – आन्ध्रप्रदेश में पलवाय, उतनूर। इसी प्रकार कर्नाटक में मास्की, ब्रह्मगिरी, बुदिकनामा, पिक्कलीहल, संगनकल्लु , कुपगल, बुदिहल आदि।

(17) नवपाषाण कालीन प्रमुख औजार –

  • कुल्हाड़ी (Axe)
  • छेनी (Chisels)
  • सेल्ट (Celt)
  • बसूले (Adzes)

(18) नवपाषाण काल के महत्वपूर्ण स्थल –

(18.1) पाकिस्तान के नवपाषाणकालीन स्थल :

  • पाकिस्तान में नवपाषाण काल के प्रमुख स्थल मेहरगढ़, किली गुल मुहम्मद, राणा घुण्डई, अंजीरा, दंब सादात आदि हैं।

(18.1.1)   मेहरगढ़

  • भारतीय उपमहाद्वीप में नवपाषाण काल की प्राचीनतम् बस्ती मेहरगढ़ (बलूचिस्तान प्रांत, पाकिस्तान) हैं, जो 7000 ई.पू. प्राचीन है।
  • सन् 1974 ई. में जीन-फ्रांकोइस जेर्रिज (Jean-Francois Jarrige) के निर्देशन में मेहरगढ़ का उत्खनन कार्य शुरू किया गया।
  • मेहरगढ़ को बलूचिस्तान का अन्न भण्डार और रोटी की टोकरी भी कहते हैं।
  • कृषि के प्राचीनतम् साक्ष्य मेहरगढ़ से प्राप्त हुए हैं, जो लगभग 7000 ई.पू. के हैं। जिसके अंतर्गत रागी, गेहूं, कपास आदि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
  • मेहरगढ़ से पालतू भैंस का प्राचीनतम् साक्ष्य, सात पुरातात्विक स्तर, बकरी के साथ मालिक को दफनाने के साक्ष्य, कच्ची ईंटों से ‘सिगार के आकार में’ अंगीठियों से युक्त मकान, चकमक पत्थर (Flint) पर आधारित प्रस्तर उद्योग, जुड़ा हुआ हँसिया, अन्नागार के साक्ष्य, कारीगर की कब्र आदि प्राप्त हुआ है।

(18.1.2) पाकिस्तान के क्वेटा घाटी में किली गुल मोहम्मद और दंब सादात नवपाषाण काल के महत्वपूर्ण स्थल हैं। सर्वप्रथम किली गुल मोहम्मद से टोकरियों के छाप वाले हस्तनिर्मित मृदमाण्ड मिले हैं। दंब सादात में चूना पत्थर की नींवयुक्त मिट्टी के घर मिले हैं।

(18.1.3) क्वेटा मृदभाण्ड  – हल्के पीले रंग के मृदभाण्ड जिन पर काले रंग का डिजाइन किया गया था।

(18.2) कश्मीर के नवपाषाणकालीन स्थल :

  • कश्मीर में नवपाषाण काल के प्रमुख स्थल गुफकराल, मार्तण्ड, बुर्जहोम आदि हैं।

(18.2.1) बुर्जहोम

  • सन् 1935 ई. में एच. डी टेरा ( de Terra) तथा टी.टी. पीटरसन (T.T. Paterson) ने बुर्जहोम की खोज की।
  • बुर्जहोम का अर्थ है – भुर्ज वृक्ष का स्थान  (Place of Birch tree)
  • बुर्जहोम से छिद्रयुक्त हार्वेस्टर, एक घड़े पर सींग वाले देवता का चित्र, कब्र में भेड़ियों तथा पालतू कुत्तों को मालिक के शव के साथ दफनाने के साक्ष्य, खुरदरे धूसर मृद्भाण्ड का प्रयोग का साक्ष्य आदि प्राप्त हुए हैं।

(18.2.2) गुफकराल

  • कश्मीर के पुलवामा जिला की त्राल तहसील में गुफकराल स्थित है, जिसका उत्खनन् सन् 1981 ई. में ए.के. शर्मा (K. Sharma) ने किया।
  • गुफकराल का अर्थ है – कुम्हार की गुफा।
  • गुफकराल में लोग पशुपालन और कृषि करते थे।
  • यहां के लोग वस्त्र सिलने की विधि और अनाज पीसने से परिचित होने के साक्ष्य मिले हैं।
  • गुफकराल से ताँबे की हेयरपिन, अलंकृत हार्वेस्टर आदि भी प्राप्त हुए हैं।

(18.2.3) कश्मीर के नवपाषाण कालीन स्थलों की विशेषताएँ –

  • गर्तावास (गड्ढों में बनाए गए आवास)।
  • अनेक प्रकार के मृद्भाण्ड।
  • पत्थर और हड्डियों के औजार।
  • सूक्ष्म पाषाणों उपकरणों का पूर्णता अभाव।
  • सामूहिक पशु बलि का साक्ष्य।
  • मृतकों के शवों पर सिंदूर के प्रयोग का साक्ष्य।
  • फसल काटने के लिए पत्थर के उपकरण।

(18.2.4) लद्दाख –  इस क्षेत्र के दो प्रमुख नवपाषाण कालीन स्थल गियाक (4000 ई. पू.), कियारी (1000 ई. पू.) हैं।

(18.3) बिहार के नवपाषणकालीन स्थल :

  • बिहार में नवपाषाण काल के प्रमुख स्थल चिरान्द, चेचर कुतुबपुर, ताराडीह, सेनुआर, मनेर आदि हैं।

(18.3.1) चिरान्द 

  • चिरान्द (सारण जिला, बिहार) सोन , गंडक, घाघरा, गंगा नदी के संगम पर स्थित एक महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है।
  • चिरान्द नवपाषाणिक और ताम्रपाषाणिक दोनों काल से सम्बन्धित है।
  • इस स्थल से लाल, धूसर और काले मृदभाण्ड प्राप्त हुए हैं, जो अधिकांशतः हस्तनिर्मित हैं।
  • यहां से कूबड़दार बैल, नाग, चिड़ियों की मृण्मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त टेराकोटा और अस्थि निर्मित चूड़ियां भी मिली हैं।
  • नवपाषाण काल के स्थलों में सर्वाधिक हड्डी निर्मित उपकरण चिरान्द से मिले हैं, जो अधिकांशतः हिरण के सींगों से बने हैं।
  • यहां के लोग वृत्ताकार झोंपड़ियों में रहते थे।
  • यहां से एक अर्धवर्त्ताकार झोंपड़ी से विशेष प्रकार के एक से अधिक चूल्हों की प्राप्ति के आधार पर इसे ‘सार्वजनिक भोजन बनाने का केन्द्र’ माना गया है।
  • यहां से बस्तियों के साक्ष्य के अलावा गेहूं, जौ, धान, मसूर, मूंग आदि की खेती के साक्ष्य भी प्राप्त हुए हैं।

(18.3.2) सेनुआर (सासाराम, बिहार) – यहां से नवपाषाण काल और ताम्रपाषाण काल के पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं। यहां से लाल , चमकीले और खुरदरे आदि मृदभाण्ड मिले हैं। इसके अलावा यहां से सूक्ष्म पाषाण उपकरण, प्रस्तर निर्मित गोफनगोलियां, वर्ष में दो फसलें उगाये जाने के साक्ष्य, ताम्र निर्मित मत्स्य कांटें, सीसे की श्लाका,  सूई, शंख का बना तिकोना लटकन, पालतू मवेशियों की हड्डियां, शुद्ध तांबे का तार, मिट्टी की छिद्र युक्त तश्तरियां, फेयान्स के मनके आदि के प्रमाण मिले हैं।

(18.4) उत्तर प्रदेश के नवपाषणकालीन स्थल :

  • उत्तर प्रदेश में नवपाषाण काल के प्रमुख स्थल कोल्डीहवा, महगड़ा, पंचोह, खैराडीह , राजघाट , राजा कर्ण का टीला, इमलीडीह आदि हैं।

(18.4.1) सोहगौरा – उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिला में स्थित सोहगौरा राप्ती तथा आमी नदियों के संगम पर बसा है। यहां के रस्सी छाप मृदमाण्ड के साक्ष्य मिले हैं।

(18.4.2) नरहन – उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिला में स्थित नरहन से मिट्टी के घर, स्तम्भ गर्त, चूल्हों के साथ नरकुल, कृत्रिम चावल , छह धारी जौ , तीन प्रकार के गेहूं , मटर , मूंग , चना , सरसों , अलसी , कटहल के बीज, वानस्पिक अवशेषों की विलक्षण श्रृंखला के पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं।

(18.4.3) इमलीडीह – उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिला में स्थित इमलीडीह से सूत या दरी की छाप वाला लाल मृदमाण्ड मिला है ।

(18.4.4) कोल्डीहवा 

  • उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के बेलन घाटी में स्थित कोल्डीहवा एक महत्वपूर्ण नवपाषाण कालीन स्थल है।
  • कोल्डीहवा (इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश) से नवपाषाण, ताम्र पाषाण और लौहकाल के साक्ष्य मिले हैं।
  • कोल्डीहवा के लोग चावल की जंगली और कृत्रिम प्रजाति दोनों से परिचित थे, जो 6000 ई.पू. के हैं।
  • कोल्डीहवा से धान (चावल) की खेती के साक्ष्य, जली हुई धान की बालियां,पाषाण फलक, पालिशदार पाषाण से बने सूक्ष्म पाषाण उपकरण, चक्की, सिलौटी (कुटाई – पिन के लिए), हड्डियों के औजार, रस्सी छाप मृदमाण्ड आदि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

(18.4.5) महागड़ा

  • उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के बेलन घाटी में स्थित महागड़ा नवपाषाण कालीन स्थल है।
  • महागड़ा (इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश) से मृदभाण्डों पर धान की बालियों के छाप के साक्ष्य, 20 झोंपड़ियों से सम्बन्धित फर्श, स्तम्भ गर्त, गौशाला के साक्ष्य, पशु बाड़ा आदि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

(18.4.6) चौपानी मांडो

  • उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के बेलन घाटी में स्थित चौपानी मांडो एक महत्वपूर्ण नवपाषाण कालीन स्थल है।
  • चौपानी मांडो (इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश) से पुरापाषाण काल से नवपाषाण काल तक के तीनों चरणों का अनुक्रम देखने को मिलता है।
  • चौपानी मांडो से अनाज रखने के बड़े-बड़े मटके, गोल समन्तात वाली कुल्हाड़ियां आदि प्राप्त हुए हैं।

(18.4.7) लहुरादेव (संत कबीर नगर जिला, उत्तर प्रदेश) से लगभग 9000 की 8000 ई.पू. का चावल की खेती का साक्ष्य मिला है, जिसे भारत में खेती का प्राचीनतम साक्ष्य माना गया है। जबकि मेहरगढ़ से प्राप्त खेती के साक्ष्य 7000 ई.पू. का हैं ।

(18.5) कर्नाटक के नवपाषणकालीन स्थल

  • कर्नाटक में नवपाषाण काल के प्रमुख स्थल मास्की, टी. नरसीपुर, टेक्कलकोट, पिक्कलीहल, ब्रह्मगिरि, संगनकल्लू , हल्लुर, कोडैकल, बुदीहाल, वाटगल, कुपगल/कप्पगल, कुदिथीनी, हेम्मिगे आदि हैं।
  • पिकलीहल, ब्रह्मगिरि, संगनकल्लु से स्थायी बस्तियों के प्रमाण मिले हैं।
  • वाटगल से सुपारी का साक्ष्य मिला हैं।
  • सन् 1993 ई. में के.पदैय्या द्वारा बुदिहाल (कर्नाटक) का उत्खनन किया गया।
  • बुदिहाल से बूचड़खाने के साक्ष्य, स्थाई बस्ती, बड़ी संख्या में हड्डियों के साक्ष्य, भोजन निर्माण का क्षेत्र, राख के टीले आदि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
  • सन् 1872 ई. में विलियम फ्रेजर (William Fraser) द्वारा बेल्लारी (कर्नाटक) का उत्खनन किया गया। यहां से पाषाणों के उपकरण/औजार बनाने का एक कारखाने का साक्ष्य मिला है।
  • टेक्कलकोट से पत्थर के वर्गाकार आवास, सोने की लटकन या कान की बालियां प्राप्त हुई है।
  • पिक्कलीहल से चित्रकारी युक्त मृदभाण्ड, भस्म टीले (Ash Mounds) आदि का साक्ष्य मिला है।

(18.6) आन्ध्र प्रदेश के नवपाषणकालीन स्थल

  • आन्ध्र प्रदेश में नवपाषाण काल के प्रमुख स्थल नागार्जुन कोंडा, उतनूर, पलवाय, संगनपल्ली, पेन्नार घाटी है।
  • आन्ध्र प्रदेश के उतनूर से चमकीले धूसर मृदभाण्ड, पत्थर के कुल्हड़, पशुधन के खुर के निशान, राख के ढेर आदि के साक्ष्य मिले हैं।

(18.7) पूर्वोत्तर राज्य  – जॉन लुब्बाक ने सन् 1867 ई. में असम की ब्रह्मपुत्र नदी घाटी में नवपाषाण उपकरणों की खोज की। यहां के प्रमुख स्थलों में मारकडोला, सरूतरू, दोजली हडिंग हैं। दोजली हडिंग से मूसल एवं खरल आदि पत्थरों के उपकरण मिले हैं। इसके अलावा झूम खेती की प्रथा के साक्ष्य, काष्ठाश्म (प्राचीन लकड़ी जो सख्त होकर पत्थर बन गई थी) के बर्तन एवं औजार, जेडाइड पत्थर (चीन से आयातित) आदि के साक्ष्य मिले हैं। नागा, खासी गारो और कच्छार की पहाड़ियों से पॉलिशदार उपकरण/औजार भी मिले हैं।

(18.8) तमिलनाडु 

  • तमिलनाडु में नवपाषाण काल के प्रमुख स्थल पेयमपल्ली, ओदे, आदिच्चनल्लूर आदि हैं।
  • पी. राजेन्द्रन ने सन् 2001 ई. में तमिलनाडु स्थित ओदे से पाषाण काल का शिशु-कपाल प्राप्त किया है।
  • तमिलनाडु के आदिच्चनल्लूर से ऐसी कब्रें मिली हैं, जिनमें शवों की हड्डियाँ पात्रों में रखी गई थी।

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3 Comments

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