लोक प्रशासन: अर्थ, दृष्टिकोण तथा महत्त्व | Public Administration: Meaning, Approachs & Significance in Hindi

लोक प्रशासन: अर्थ, दृष्टिकोण तथा महत्त्व

(Public Administration: Meaning, Approachs & Significance)

परिचय

वर्तमान समय में लोक प्रशासन एक महत्त्वपूर्ण विषय बन गया है। लोक प्रशासन का एक विशिष्ट शैक्षिक क्षेत्र है। जो सरकारी कार्यकलापों, निहित तंत्र तथा प्रक्रियाओं से संबंध रखता है। उदारीकरण तथा भूमंडलीकरण ने प्रशासन की संरचना एवं महत्त्व को विशेष रूप से प्रभावित किया है।

प्रशासन किसी क्षेत्र में विशिष्ट शासन या विभिन्न प्रकार की मानवीय गतिविधियों का प्रबंध करने हेतु महत्त्वपूर्ण होता है। प्रशासन के तहत कार्य पूरा करने के लिए योजना बनाना, निर्णय लेना, लक्ष्यों तथा उद्देश्यों का निर्माण करना, संगठनों का निर्माण एवं पुनर्निर्माण करना, कर्मचारियों को निर्देश देना, जनता का समर्थन प्राप्त करने के लिए विधायिका तथा निजी एवं सार्वजनिक संस्थाओं के साथ मिलकर कार्य करना इत्यादि शामिल है। वर्तमान समय में प्रशासन का अर्थ ‘सरकार’ से लिया जाता है, लेकिन इसका वास्तविक अर्थ निर्देश देना, पथ प्रशस्त करना, आदेश तथा आज्ञा देना है।

प्रशासन शब्द लैटिन भाषा के शब्द Administer से बना है। यह दो शब्दों एड(Ad) तथा मिनिस्टर (Ministiare) से बना है। जिसका सीधा साधा अर्थ है- सेवा करना। इसको अंग्रेजी में एडमिनिस्ट्रेशन (Administration) कहा जाता है। इस रूप में इसका अर्थ है ‘लोगों की सेवा करना तथा कार्यों का प्रबंध करना’। जब प्रशासन शब्द के साथ लोक शब्द को जोड़ा जाता है, तब इसका अर्थ होता है कि यह सरकारी तथा सार्वजनिक प्रशासन से संबंधित है। ‘लोक प्रशासन प्रशासन का वह भाग है जो स्थानीय, प्रांतीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर सरकार के कार्यों का प्रबंध करता है’। इसी कारण लोक प्रशासन का विषय बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण बनता जा रहा है।

लोक प्रशासन को परिभाषित करते हुए विभिन्न विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किए जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन को किसी एक परिभाषा में बांध पाना संभव नहीं है। विद्वानों द्वारा प्रस्तुत की गई परिभाषा को हम निम्न प्रकार से देख सकते हैं:

  • नीग्रो के अनुसार, “प्रशासन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मानव तथा सामग्री दोनों का संगठन है।”
  • वाल्डो के अनुसार, “प्रशासन मानवीय सहयोग से संबंधित हैं अर्थात् प्रशासन में मानवीय सहयोग को मुख्य आधार माना जाता है।”
  • ग्लेडन के अनुसार, “लोक प्रशासन, लोक नीतियों को पूर्णता लागू करने का माध्यम है, जो की मान्य अधिकारियों द्वारा घोषित की गई है। यह समस्या एवं शक्ति संगठन और प्रबंधन के तौर-तरीकों को जो कि सरकारी विभागों की नीति निर्धारक संस्था है उसका अध्ययन करता है।”

उपरोक्त परिभाषाओं से यह कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन सरकार के प्रशासकीय विभागों और संगठनों के विभिन्न कार्यों से संबंधित है। इसमें उन समस्त कार्यों का समावेश किया जाता है, जो उन कार्यों को पूरा करने तथा लोक नीतियों को व्यवहारिक रूप प्रदान करने के उद्देश्य से किए जाते हैं। अतः इसका अर्थ यह हुआ कि व्यवस्थापिका जनता की इच्छा को कानून का रूप प्रदान करती है और वही कानून जब व्यवस्थित ढंग से कार्य रूप में बदलता है तो वही प्रक्रिया लोक प्रशासन है।

लोक प्रशासन के अध्ययन के दृष्टिकोण

लोक प्रशासन का अध्ययन किस दृष्टिकोण से किया जाए इस पर विद्वानों में काफी मतभेद है। जिसके कारणवश इसके अध्ययन के संबंध में अलग-अलग दृष्टिकोण तथा उपागम उद्भव हुए। लोक प्रशासन के अध्ययन के इन दृष्टिकोणों को दो भागों -परंपरागत दृष्टिकोण तथा आधुनिक दृष्टिकोण में बांटा गया है। जिनको निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है।

परंपरागत दृष्टिकोण

  • दार्शनिक दृष्टिकोण
  • वैधानिक या कानूनी दृष्टिकोण
  • ऐतिहासिक दृष्टिकोण
  • संस्थागत संरचनात्मक दृष्टिकोण

आधुनिक दृष्टिकोण

  • वैज्ञानिक अथवा तकनीकी दृष्टिकोण
  • व्यवहारवादी दृष्टिकोण
  • पारिस्थिकीय दृष्टिकोण
  • घटना तथा प्रकरण पद्धति दृष्टिकोण

परंपरागत दृष्टिकोण

  • दार्शनिक दृष्टिकोण :लोक प्रशासन के अध्ययन का यह दृष्टिकोण अत्याधिक प्राचीन दृष्टिकोण है। यह दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि लोक प्रशासन कैसा होना चाहिए? महाभारत का ‘शांति पर्व’, प्लेटो की रचना ‘रिपब्लिक’ हॉब्स की रचना ‘लेबियाथान’ तथा जॉन लॉक की रचना ‘ट्रीटाइज ऑफ सिविल गवर्नमेंट’ आदि में इस दृष्टिकोण की झलक मिलती है। आधुनिक समय में भी कई विद्वान लोक प्रशासन को दर्शन के रूप में देखने है। जिसमें मार्शल, डीमोक, क्रिस्टोफर हॉकिंसन, चेस्टर बर्नाड, हर्बट साइमन आदि नाम प्रमुख है। विद्वानों का मानना है कि राज्य की नीतियों को सत्यनिष्ठा एवं कुशलता पूर्वक लागू किया जाना चाहिए। इन दोनों का कुशलतापूर्वक समन्वय ही प्रशासन की उत्कृष्टता की कसौटी है। अर्थात् लोक प्रशासन के दर्शन का प्रयोजन हमारे लक्ष्यों को परिभाषित करना तथा उनकी प्राप्ति करने के लिए समुचित साधनों की खोज करना है।

लोक प्रशासन का कार्य हमारे सामाजिक और भौतिक पर्यावरण के अविवेकपूर्ण तथ्यों पर सीमाएं लगाकर उन्हें नियंत्रित करना होता है। दार्शनिक दृष्टिकोण की आलोचना की जा सकती है कि इसमें केवल लोक प्रशासन के आदर्श स्वरूप का चित्रण किया गया है, अर्थात् प्रशासन कैसा होना चाहिए…? लेकिन इसमें वास्तविक स्थिति का ज्ञान नहीं होता है।

  • वैधानिक तथा कानूनी दृष्टिकोण : इस दृष्टिकोण की जड़े यूरोप की परंपरा में मिलती है। यह एक व्यवस्थित दृष्टिकोण है। यह दृष्टिकोण यूरोप के फ्रांस, बेल्जियम तथा जर्मनी जैसे महाद्वीपीय देशों में सबसे अधिक लोकप्रिय रहा है। ब्रिटेन तथा अमेरिका में भी इसके समर्थक हैं। अमेरिका के फ्रेंक जे. गुडनॉव इस दृष्टिकोण के प्रमुख समर्थक थे। यह दृष्टिकोण लोक प्रशासन का अध्ययन कानून के एक हिस्से के रूप में करता है तथा संवैधानिक (कानूनी) ढांचे, संगठन, शक्तियों तथा कार्यों एवं लोक अधिकारियों की सीमाओं पर बल देता है।
  • ऐतिहासिक दृष्टिकोण : लोक प्रशासन के अध्ययन का ऐतिहासिक दृष्टिकोण भी अति प्राचीन है। यह भूतकाल में हुए ऐतिहासिक परिवर्तनों और वर्तमान पर पड़ने वाले इसके प्रभावों के जरिए लोक प्रशासन का अध्ययन करता है। यह प्रशासनिक एजेंसियों से संबंधित सूचना को कालानुक्रम में संगठित और व्याख्यित करता है। एल.डी. व्हाइट ने अमरीकी संघीय प्रशासन का इसके निर्माणात्मक काल में अपने चार शानदार ऐतिहासिक अध्ययनों के जरिए वर्णन किया है, जिसका नाम ‘दि फेडरलिस्ट’(1948), ‘दि जैफर्सनियस’(1951), ‘दि जैक्सनियस’ और ‘दि रिपब्लिकन ऐरा’ आदि है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र, मुगल प्रशासन और ब्रिटिश प्रशासन के विभिन्न अध्ययन भारत की प्राचीन प्रशासनिक व्यवस्थाओं की एक झलक देते हैं। यह दृष्टिकोण प्रशासन के जीवनी संबंधी दृष्टिकोण से निकटतम रूप से जुड़ा हुआ है।
  • संस्थागत संरचनात्मक दृष्टिकोण :यह दृष्टिकोण लोक प्रशासन का अध्ययन औपचारिक दृष्टि से करता है। इस दृष्टिकोण के अंतर्गत सरकार के अंगो तथा भागों का अध्ययन किया जाता है, जैसे- कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, विभाग, सरकारी निगम, मंडल तथा आयोग, बजट बनाने का रचना तंत्र, केंद्रीय कर्मचारी अभिकरण इत्यादि।

इस दृष्टिकोण को यांत्रिक दृष्टिकोण भी कहा जाता है, क्योंकि यह प्रशासन को एक यंत्रवत इकाई मानता है। यह संगठनों के व्यवस्थित विश्लेषण पर आधारित सबसे पुराने निरूपणों में से एक है। इसलिए इसे परंपरागत दृष्टिकोण की संज्ञा दी गई है। हेनरी फयोल, लूथर गुलिक, एल.एफ.उर्विक, एम.पी. फॉलेट, ए.सी.रेले, जे.डी.मुने आदि विद्वान इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं। हेनरी फयोल ने अपनी पुस्तक ‘जनरल एंड इंडस्ट्रियल एडमिनिस्ट्रेशन’ में प्रशासन के पांच कार्यों; नियोजन, संगठन, आदेश, समन्वय एवं नियंत्रण का उल्लेख किया है। इस संदर्भ में व्यापक विश्लेषण गुलिक और उर्विक द्वारा 1937 में संपादित ‘पेपर्स ऑन दी साइंस ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन’ में किया गया। गुलिक ने प्रशासन के कर्त्तव्यों को ‘पोस्टकॉर्ब’ शब्द में संग्रहित किया।

आधुनिक दृष्टिकोण

लोक प्रशासन के अध्ययन के आधुनिक दृष्टिकोण के अंतर्गत निम्नलिखित दृष्टिकोणों का अध्ययन किया जाता है।

  • वैज्ञानिक तथा तकनीकी दृष्टिकोण : बीसवीं सदी के आरंभ में अमेरिका के वैधानिक प्रबंध आंदोलन ने लोक प्रशासन के अध्ययन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रयोग को शामिल किया। इसके तहत सरकार के कार्यों के परिचालन में वैज्ञानिक चिंतन को लागू करना शामिल है। इस आंदोलन का सूत्रपात एफ. डब्लू. टेलर नामक एक इंजीनियर ने किया। इस दृष्टिकोण के समर्थक प्रशासन से संबंधित समस्याओं के ऊपर वैज्ञानिक ढंग से विचार करते हैं तथा वे उन समस्याओं का समाधान उन यंत्रों के माध्यम से खोजने का प्रयत्न करते हैं, जिनका प्रयोग वैज्ञानिकों द्वारा किया जाता है।
  • व्यवहारवादी दृष्टिकोण : लोक प्रशासन के अध्ययन का व्यवहारवादी दृष्टिकोण इस विषय के परंपरागत दृष्टिकोण के प्रति असंतोष के फल स्वरुप विकसित हुआ। इस दृष्टिकोण का आरंभ मानव संबंध आंदोलन के दौरान 1930 तथा 1940 के दशक में हुआ परंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् इसकी महत्ता काफी बढ़ गई। इस दृष्टिकोण को विकसित करने का श्रेय हर्बट साइमन को जाता है। इसके अतिरिक्त पीटर एम. ब्लॉन, मेट्रन, वेडनर, रिग्स तथा डहल आदि नाम भी इस दृष्टिकोण के समर्थकों में शामिल है। साइमन ने इस विषय पर अपनी पुस्तक ‘एडमिनिस्ट्रेटिव बिहेवियर’ लिखी जो काफी महत्त्वपूर्ण मानी गई। इसके अतिरिक्त 1950 में साइमन तथा उनके दो सहयोगियों द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन’ प्रकाशित होने के बाद दृष्टीकोण और आगे बढ़ा।
  • पारिस्थिकीय दृष्टिकोण : इस दृष्टिकोण का उद्भव तृतीय विश्व की प्रशासनिक समस्याओं के अध्ययन हेतु हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एशिया, अफ्रीका तथा लेटिन अमेरिका के अनेक देश औपनिवेशिक शासन से मुक्त हुए। उनके समक्ष जन आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु राष्ट्र निर्माण तथा सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन की बड़ी चुनौती थी। पश्चिमी विद्वानों ने जो इन देशों में बहुत से देशों के सलाहकार के रूप में कार्य कर रहे थे, अनुभव किया कि पश्चिमी संगठनात्मक प्रतिमान तृतीय विश्व के समाजों में वास्तविकता की व्याख्या करने में असफल थे। इसी संदर्भ में पारिस्थिकीय दृष्टिकोण का विकास हुआ। इस दृष्टिकोण की मान्यता थी कि प्रशासन एक निश्चित परिवेश या वातावरण में रहकर कार्य करता है। प्रशासन उस परिवेश को प्रभावित करता है तथा स्वयं उससे प्रभावित होता है। अतः प्रशासन को समझने के लिए दोनों के बीच पारस्परिक क्रिया को समझना आवश्यक है।
  • घटना तथा प्रकरण पद्धति दृष्टिकोण : लोक प्रशासन के अध्ययन में यह दृष्टिकोण अमरीका की देन है। घटना तथा प्रकरण का अर्थ है- प्रशासन की कोई भी विशिष्ट समस्या जो किसी प्रशासकीय अधिकारी को हल करनी पड़ती है तथा वास्तव में हल कर ली गई है। इस प्रकार की समस्या के समाधान के लिए घटना तथा प्रकरण पद्धति दृष्टिकोण तैयार किया गया। 1940 में यूएसए की सामाजिक अनुसंधान परिषद की लोक प्रशासन समिति ने घटना अध्ययन प्रकाशित करने का कार्य आरंभ किया। इस पद्धति के अनुयायियों के मन में यह आशा है कि लोक प्रशासन के विभिन्न क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में घटना अध्ययन किए जाने के उपरांत प्रशासन के विषय में अनुभव सिद्ध सिद्धांतों का प्रतिपादन संभव हो जाएगा। लेकिन इस पद्धति की भी अपनी सीमाएं हैं। किसी घटना विशेष के अध्ययन के आधार पर ही किसी सर्वमान्य या सर्वकालिक सिद्धांत का प्रतिपादन संभव नहीं है। यही कारण है कि यह दृष्टिकोण अभी भी लोक प्रशासन के अध्ययन का प्रमुख दृष्टिकोण नहीं हो सका। इन चरणों में कई उतार-चढ़ाव हुए तथा कई नए बदलाव हुए जिन्होंने लोक प्रशासन को आज एक पृथक विषय के रूप में प्रस्तुत करने में एक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया

लोक प्रशासन का महत्त्व

लोक प्रशासन सभ्य समाज की सर्वोच्च प्राथमिक आवश्यकता है। लोक प्रशासन केवल सभ्य समाज का संरक्षक ही नहीं बल्कि यह सामाजिक विकास, सामाजिक न्याय और सुधार संशोधनों का प्रमुख साधन भी है। यह व्यक्ति के जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु के बाद तक के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी सेवाएं अर्पित करता है। यह आधुनिक सभ्यता का हृदय (Heart of Modern Civilization) है। लोक प्रशासन पुलिस राज्य (Laissez Faire State) से निकलकर न सिर्फ कल्याणकारी राज्य (Welfare State)और प्रशासकीय राज्य (Administrative State) के पड़ाव पर पहुंच चुका है। अपितु नागरिकों के जीवन को समस्या रहित बनाने के लिए प्रयत्नशील है।

लोक प्रशासन न केवल लोकतांत्रिक राज्यों में अपितु पूंजीवादी, साम्यवादी, विकसित, विकासशील, और अविकसित यहां तक की तानाशाही व्यवस्थाओं में भी अति महत्त्वपूर्ण बन गया है, क्योंकि इन सभी राज्यों की सरकारें अपनी नीतियों और योजनाओं का संचालन स्थाई सरकार (लोक प्रशासन) के द्वारा ही करती है। लोक प्रशासन के महत्त्व को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है।

  • राज्य का व्यवहारिक तथा विशिष्ट भाग : राजनीति वैज्ञानिकों के अनुसार राज्य के चार मूलभूत तत्व (निश्चित भूभाग, जनसंख्या, संप्रभुता तथा शासन) में शासन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। शासन अर्थात् सरकार के कार्यों तथा दायित्वों को मूर्त रूप प्रदान करने में लोक प्रशासन एक अनिवार्य तथा विशिष्ट आवश्यकता है। अरस्तु के अनुसार, “राज्य जीवन के लिए अस्तित्व में आया तथा अच्छे जीवन के लिए उसका अस्तित्व बना हुआ है।” आधुनिक युग में राज्य को एक बुराई के रूप में नहीं बल्कि मानव कल्याण तथा विकास के लिए एक अनिवार्यता के रूप में देखा जाता है। वर्तमान विश्व के प्रत्येक राष्ट्र में चाहे वहां कैसा भी शासन हो, राज्य का कर्त्तव्य जन कल्याण ही है। प्राचीन काल से ही राज्य की इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रशासन ही एकमात्र माध्यम रहा है। यद्यपि राजशाही व्यवस्थाओं में प्रशासन का स्वरूप आज की भांति उतरदायी तथा विकासपरक नहीं था तथापि प्रशासन राज्य की व्यवहारिक अभिव्यक्ति अवश्य था।

राज्य के कार्य अथवा जन सेवाओं को सुलभ बनाने के कारणवश ही ऐसे प्रशासनिक सिध्दांत, नियम तथा प्रक्रियाएं विकसित हो गई, जो आज राज्य के लिए काफी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो रही है। राज्य के कार्यों की पूर्ति के लिए कारगर हथियार होने के कारण ही प्रशासन तथा राज्य समानार्थी हो गए हैं।

  • जन कल्याण का माध्यम : आधुनिक विश्व में राज्य का स्वरूप काफी अधिक मात्रा में लोकतांत्रिक तथा जन कल्याणकारी है। आज अहस्तक्षेपकारी राज्य की अवधारणा दम तोड़ चुकी है। वर्तमान समाजों की अधिसंख्य मानवीय आवश्यकताएं राज्य के अभिकर्ता अर्थात् लोक प्रशासन द्वारा पूरी की जाती है। व्हाइट के अनुसार, कभी ऐसा भी समाज था जब जनता सरकारी (राजा के) अधिकारियों के दमन के अतिरिक्त और कोई अपेक्षा नहीं करती थी। कालांतर में आम जनता ने यह सोचा कि उसे स्वतंत्र तथा भाग्य के भरोसे छोड़ दिया जाए, किंतु आज का समाज प्रशासन से सुरक्षा तथा विभिन्न प्रकार की सेवाओं की आशा करता है। भारत का संविधान भी नीति-निर्देशक तत्वों के माध्यम से समाज के दिन-हीन तथा निर्योग्यताग्रस्त व्यक्तियों के लिए राज्य राज्य द्वारा विशेष प्रयासों तथा कल्याण कार्यक्रमों के निर्देश लोक प्रशासन को देता है। चिकित्सा, परिवार कल्याण, स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, जनसंचार, परिवहन, ऊर्जा, सामाजिक सुरक्षा, कृषि, उद्योग, कुटीर उद्योग, पशुपालन, सिंचाई तथा आवास आदि समस्त मूलभूत मानवीय सामाजिक सेवाओं का संचालन प्रशासन के माध्यम से ही संभव है। इसी कारण आज का राज्य प्रशासकीय राज्य भी कहलाता है।
  • लोकतंत्र का वाहक एवं रक्षक : लोकतंत्र की अवधारणा सैद्धांतिक रूप से चाहे कितनी ही सशक्त तथा प्रभावी दिखाई देती हो, लेकिन लोकतंत्र की स्थापना तथा विस्तार केवल तभी संभव है जब लोक प्रशासन इस दिशा में सार्थक पहल करें। आम आदमी तक शासकीय कार्यों की सूचना पहुंचाना, नागरिक तथा मानव अधिकारों को क्रियान्वित करना, निष्पक्ष चुनाव, जन शिकायतों का निवारण, राजनीतिक चेतना में वृद्धि तथा विकास कार्यों में जन सहभागिता सुनिश्चित कराने के क्रम में लोक प्रशासन की भूमिका अहम है। फाईनर ने कहा है कि, “किसी भी देश का संविधान चाहे कितना ही अच्छा हो तथा देश के मंत्रीगण भी सुयोग्य ही क्यों न हो, किंतु बिना कुशल प्रशासकों के उस देश का शासन सफल सिद्ध नहीं हो सकता है।” डवाइट वाल्डो लोक प्रशासन को सांस्कृतिक सम्मिश्रण का भाग मानते हुए लोकतंत्र तथा समाज में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करते हैं।
  • सामाजिक परिवर्तन का माध्यम : आधुनिक समाजों विशेषत: विकासशील समाजों की परंपरागत जीवन शैली, अंधविश्वास, रूढ़ियों तथा कुरीतियों में सुनियोजित परिवर्तन लाना एक सामाजिक आवश्यकता है। सुनियोजित सामाजिक परिवर्तन के लिए शिक्षा, राजनीतिक चेतना, आर्थिक विकास, संविधान, कानून, मीडिया, दबाव समूह तथा स्वयंसेवी संगठनों सहित प्रशासन भी एक महत्त्वपूर्ण यंत्र माना जाता है। लोक प्रशासन न केवल सामाजिक परिवर्तन का हथियार है बल्कि सामाजिक नियंत्रण का भी माध्यम है।

निष्कर्ष

अंततः यह कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन सरकार के प्रशासकीय विभागों तथा संगठनों के विविध कार्यों से संबंधित है। इसमें उन समस्त कार्यों का समावेश किया जाता है जो उन कार्यों को पूरा करने तथा लोक नीतियों को व्यवहारिक रूप प्रदान करने के उद्देश्य से किए जाते हैं। वर्तमान युग में लोक प्रशासन की क्रियाओं का क्षेत्र अत्यंत व्यापक हो गया है और समाजवादी व जन कल्याणकारी विचारधारा की प्रगति के साथ-साथ वह निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। लोक प्रशासन के अंतर्गत केंद्र, राज्य तथा स्थानीय सभी स्तरों की सरकारों के संगठन एवं कार्य प्रणाली का अध्ययन किया जाता है। यदि लोक प्रशासन के दृष्टिकोण की बात की जाए तो यह देखा जा सकता है कि एक विषय के रूप में जैसे-जैसे लोक प्रशासन आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे आवश्यकतानुसार इसके बहुत सारे दृष्टिकोण उद्भव हुए हैं, जो कि अलग-अलग तरीकों से लोक प्रशासन को समझने की कोशिश करते हैं। यह तथ्य याद रखने योग्य है कि लोक प्रशासन के अध्ययन के सभी दृष्टिकोण एक-दूसरे से अलग तथा विपरीत नहीं है, बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। अध्ययन के संदर्भ में प्रत्येक दृष्टिकोण की अपनी उपयोगिता है। परंतु यह भी सत्य है कि कुछ क्षेत्रों में एक दृष्टिकोण दूसरे की तुलना में अधिक उपयोगी है। सर्वश्रेष्ठ अध्ययन के लिए विभिन्न विषय संबंधी दृष्टिकोणों का कुशल उपयोग शिक्षार्थी की क्षमता पर निर्भर करता है।

 

संदर्भ सूची

  • Bhattacharya, Mohit. 2008.New Horizons of Public Administration. New Delhi: Jawahar Publishers and Distributors.
  • Chakrabarty, Bidyut. 2007.Reinventing Public Administration: The Indian Experience. New Delhi: Orient Longman.
  • Chakrabarty, Bidyut and Mohit Bhattacharya (eds). 2008.The Governance Discourse: A Reader, New Delhi: Oxford University Press.
  • बासु, रूमकी. 2016. लोक प्रशासन बदलते परिप्रेक्ष्य. नई दिल्ली :हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय.
  • मेहता, प्रो. एस. सी. (सम्पादित) 2000. लोक प्रशासन : प्रशासनिक सिद्धांत एवं अवधारणाएं. जयपुर : राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी.
  • School of Open Learning University of Delhi, Perspectives on Public Administration, Paper VI:New Delhi: University of Delhi.

“मुफ्त शिक्षा सबका अधिकार आओ सब मिलकर करें इस सपने को साकार”

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