राष्ट्रकूट वंश | Rashtrakuta Dynasty in Hindi

राष्ट्रकूट वंश

(Rashtrakuta Dynasty)

 

परिचय   (Introduction)

राष्ट्रकूट का शाब्दिक अर्थ है- राष्ट्र का मुखिया। राष्ट्रकूट आरम्भ में बादामी के चालुक्यों के सामन्त थे। बादामी के चालुक्य वंश को पराजित कर राष्ट्रकूटों ने सत्ता प्राप्त की। राष्ट्रकूटों ने दक्षिण भारत पर लगभग 8वीं शताब्दी ई. से लेकर 10वीं शताब्दी तक शासन किया।

इतिहास के स्रोत  (Sources of History)

राष्ट्रकूट वंश की जानकारी प्रमुख रूप से अभिलेखों से प्राप्त होती है, जिसमें प्रमुख अभिलेख – दन्तिदुर्ग के एलौरा और सामन्तगढ़ के ताम्रपत्राभिलेख, गोविन्द तृतीय के राधनपुर और वनि दिन्दोरी एवं बड़ौदा के लेख, अमोघवर्ष प्रथम का संजन अभिलेख, इन्द्र तृतीय का कमलपुर अभिलेख, कृष्ण तृतीय के कोल्हापुर व देवली और कर्नाट के लेख, गोविन्द चतुर्थ के काम्बे और संगली के लेख आदि हैं। इन अभिलेखों से राष्ट्रकूट शासकों की वंशावली, समाज, कला और स्थापत्य, सैनिक अभियान, शासनव्यवस्था आदि की जानकारी प्राप्त होती है।

राष्ट्रकूट काल में कन्नड़ और संस्कृत भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचना की गई। जिसमें प्रमुख रूप से अमोघवर्ष का कविराजमार्ग, जिनसेन का आदिपुराण, महावीराचार्य का गणितसारसंग्रहण आदि हैं। इन साहित्यिक स्रोतों से अमोघवर्ष के धार्मिक जीवन, तत्कालीन समाज और संस्कृति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

उत्पत्ति और मूल निवासस्थान  (Origin and place of origin)

राष्ट्रकूटों की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। कृष्ण तृतीय के ‘देवली’ और ‘करहड़’ लेख के अनुसार राष्ट्रकूट ‘तुंग’ के वंशज थे और इनका आदिपुरूष ‘रट्ट’ था। अपने कुछ अभिलेखों में राष्ट्रकूटों ने स्वयं को यदुवंशी क्षत्रिय कहा हैं। गोविन्द तृतीय की तुलना राधनपुर लेख में ‘यदुकुल’ में उत्पन्न कृष्ण से की गई है । राष्ट्रकूटों ने स्वयं को यदुवंश की ‘सात्यिकी’ शाखा से जोड़ा हैं।

एच. सी. राय, ए. के. मजूमदार, अल्तेकर, नीलकंठ शास्त्री आदि विद्वानों का मत है कि ‘राष्ट्रकूट’ शब्द किसी जाति का सूचक न होकर पद का सूचक है। प्राचीन काल में साम्राज्य का विभाजन कई राष्ट्रों में किया जाता था और राष्ट्र का अधिकारी ‘राष्ट्रकूट’ होता था। प्राचीन काल के अभिलेखों में राष्ट्रकूट नामक पदाधिकारियों का उल्लेख भी मिलता है। अतः राष्ट्रकूट एक प्रशासनिक पद था, किसी जाति या कबीले का सूचक नहीं।

राष्ट्रकूट मूलतः लट्टलूर (आधुनिक महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले में वर्तमान लाटूर) के निवासी थे। राष्ट्रकूट लेखों में उन्हें ‘लट्टलूरपुरवराधीश्वर’ कहा गया है। राष्ट्रकूट चालुक्यों के राज्य में जिलाधिकारी थे। इनकी मातृभाषा कन्नड़ थी।

राष्ट्रकूट शाखायें  (Rashtrakuta Branches)

अभिलेखों में राष्ट्रकूटों की कई शाखाओं की जानकारी प्राप्त होती है, जो छठी-सातवीं शताब्दी में दक्षिणापथ के विभिन्न भागों में सामन्त रूप में निवास करते थे।

उदिण्डवाटिका लेख (सातवीं शताब्दी) में अभिमन्यु नामक एक राष्ट्रकूट सामन्त का उल्लेख है जो मानपुर का शासक था। उसके तीन पूर्वजों- मानांक, देवराज और भविष्य के नाम भी दिये गये हैं। ये महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के वेतूल-मालवा क्षेत्र में शासन करते थे।

राष्ट्रकूटों की दूसरी शाखा अचलपुर (एलिचपुर) में निवास करती थी। इस शाखा के चार शासकों के नाम मिलते हैं – दुर्गराज, गोविन्दराज, स्वामिकराज और नन्नराज। यह कुल पहले बादामी के चालुक्यों के अधीन था, किन्तु बाद में स्वतन्त्र हो गया। इसी वंश की एक शाखा उत्तरी दक्षिणापथ में सातवीं शती के मध्य विद्यमान थी, जिसका पहला शासक दन्तिवर्मा था। वह भी बादामी के चालुक्यों का सामन्त था। दन्तिवर्मा ने 760 ई. में चालुक्य शासक कीर्त्तिवर्मा द्वितीय को पराजित कर कर्नाटक पर अधिकार कर लिया और मान्यखेट (मालखेड़, गुलबर्गा, कर्नाटक) को अपनी राजधानी बनायी। राष्ट्रकूटों की इसी शाखा ने इतिहास में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त की।

राष्ट्रकूटों की एक अन्य शाखा लाट प्रदेश (दक्षिणी गुजरात) में निवास करती थी। एक लेख में इसके चार शासकों के नाम दिये गये हैं – कर्कराज प्रथम, ध्रुव, गोविन्द तथा कर्कराज द्वितीय।

मान्यखेट का राष्ट्रकूट राजवंश  (Rashtrakuta dynasty of Manyakhet)

मान्यखेट के राष्ट्रकूट वंश का प्रथम शासक दन्तिवर्मा (लगभग 650-670 ई.) था। उसके बाद इन्द्रपृच्छकराज (670-690 ई.) और गोविन्दराज (690-700 ई.) शासक बने। गोविन्दराज के बाद उसका पुत्र कर्कराज शासक बना। कर्कराज के तीन पुत्रों के नाम मिलते हैं— इन्द्र , कृष्ण और नन्न। इनमें इन्द्र कुछ शक्तिशाली था और वह अपने पिता के बाद शासक बना। वह चालुक्य शासक विजयादित्य का सामन्त था। इसी रूप में उसने मध्य भारत के मराठी भाषा-भाषी भागों की विजय की थी। संजन ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि इन्द्र ने चालुक्य शासक को खेटक (गुजरात स्थित कैरा) में पराजित किया और उसकी कन्या भवनागा के साथ राक्षस विवाह कर लिया था। इन्द्र आरम्भिक राष्ट्रकूट शासकों में सबसे योग्य और शक्तिशाली था। इसने संभवतः 715 ई. से 735 ई. तक शासन किया।

दन्तिदुर्ग मान्यखेत के स्वतंत्र राष्ट्रकूट वंश का संस्थापक दन्तिदुर्ग था और इसने लगभग 753 ई. से 756 ई. तक शासन किया। वह इन्द्र की भवनागा नामक चालुक्य राजकन्या से उत्पन्न हुआ था। इसकी उपलब्धियों की जानकारी दशावतार (742 ई.) और सामन्तगढ़ (753 ई.) लेखों से प्रात होती है।

चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय के सामन्त के रूप में दन्तिदुर्ग ने अपना जीवन आरम्भ किया था। उसने गुजरात के चालुक्य सामन्त ‘पुलकेशिन’ के साथ मिलकर सिंध के अरब आक्रमणकारी जुनैद को ‘नवसारि के युद्ध’ में पराजित किया। अतः चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय ने दन्तिदुर्ग को ‘पृथ्वीवल्लभ’ और ‘खड्वालोक’ की उपाधियाँ प्रदान की। दन्तिदुर्ग ने चालुक्य युवराज कीर्तिवर्मा द्वितीय के साथ कांची के पल्लवों के विरूद्ध अभियान में भी भाग लिया।

दन्तिदुर्ग ने नन्दिपुरी के गुर्जर राज्य को पराजित किया और वहाँ अपने भतीजे कर्क को प्रतिनिधि नियुक्त किया। इसके बाद दन्तिदुर्ग ने मालवा के प्रतिहार राज्य पर आक्रमण कर उज्जैन पर अधिकार कर लिया। यहाँ उसने ‘हिरण्य गर्भदान यज्ञ’ किया, जिसमें प्रतिहार शासक नागभट्ट प्रथम ने द्वारपाल का काम किया। ऐलोरा और सामन्तगढ लेखों से इस बात की जानकारी मिलती है।

दन्तिदुर्ग का बढ़ता प्रभाव चालुक्य शासक कीर्तिवर्मा द्वितीय के लिए खुली चुनौती था। अतः खादनेश क्षेत्र के निकट दोनों के मध्य युद्ध हुआ, जिसमें दन्तिदुर्ग विजय हुआ। दन्तिदुर्ग ने 753 ई. में महाराष्ट्र पर अपना अधिपत्य स्थापित किया और ‘महाराजाधिराज परमेश्वर परमभट्टारक’ की उपाधि धारण की, किन्तु वह चालुक्यों की सत्ता को अन्तिम रूप से समाप्त नही कर पाया। दन्तिदुर्ग एक महान विजेता और निर्माता था। उसने ऐलोरा के ‘दशावतार मन्दिर’ का निर्माण करवाया।

कृष्ण प्रथम दन्तिदुर्ग की नि: सन्तान मृत्यु के बाद उसका चाचा कृष्ण प्रथम राष्ट्रकूट वंश का उत्तराधिकारी बना। इसने 756 ई. से 772 ई. तक शासन किया। इसने वातापी के चालुक्य शासक कीर्तिवर्मा द्वितीय को परास्त कर चालुक्य सत्ता को अन्तिम रूप से समाप्त किया और समस्त कर्नाटक के ऊपर राष्ट्रकूटों का अधिकार स्थापित किया।

इसने कोंकण में सणफुल्ल को अपना सामन्त बनाया, जिसने आगे चलकर शिलाहार राजवंश की नींव रखी। गंग वंश के शासक श्रीपुरुष को परास्त कर अपना सामन्त बनाया।

वेंगी के चालुक्यों को पराजित कर वैवाहिक सम्बन्ध बनाये। अतः कृष्ण प्रथम ने राष्ट्रकूट साम्राज्य का विस्तार किया और इसने एलोरा का प्रसिद्ध कैलाशनाथ मंदिर का भी निर्माण कराया।

गोविन्द द्वितीय  कृष्ण प्रथम के दो पुत्र थे- गोविन्द द्वितीय और ध्रुव। कृष्ण प्रथम के बाद राष्ट्रकूट राज्य का अगला शासक गोविन्द द्वितीय बना। इसने 773 ई. से 780 ई. तक शासन किया। गोविन्द द्वितीय ने ‘प्रभूतवर्ष’ और ‘विक्रमावलोक’ की उपाधियाँ धारण कीं।

संभवतः गोविन्द द्वितीय शासक बनने के बाद विलासी हो गया और प्रशासनिक कार्यों के प्रति उदासीन हो गया। उसकी इस स्थिति का लाभ उठाते हुए उसके छोटे भाई ध्रुव ने गोविन्द द्वितीय को पराजित कर राष्ट्रकूट सत्ता प्राप्त की।

ध्रुव गोविन्द द्वितीय के बाद ध्रुव राष्ट्रकूट शासक बना। शासक बनने के बाद ध्रुव ने धारावर्ष, निरूपम, कलिवल्लभ, श्रीवल्लभ आदि उपाधियाँ धारण की। उसने 780 ई. से 793 ई. तक शासन किया। उसने गंगवाड़ी पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया और वेंगी को अपने अधीन किया। उसने पल्लव राज को भयभीत कर अनेक हाथी उपहार में प्राप्त किए और वह दक्षिण का शक्तिशाली शासक बन गया।

अब उसने उत्तर में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए पाल-प्रतिहार के विरुद्ध अभियान किया। 786 ई. में उसने झाँसी के निकट प्रतिहार वत्सराज को पराजित किया। इसके बाद पाल शासक धर्मपाल को भी पराजित किया।

अतः इस प्रकार ध्रुव अपने समय का उत्तर और दक्षिण भारत का शक्तिशाली सम्राट बन गया। वह वापस दक्कन लौट गया।

ध्रुव के चार पुत्र थे कर्क, स्तम्भ, गोविंद और इंद्र। सबसे बड़ा पुत्र कर्क ध्रुव के जीवन काल में ही मृत्यु हो गई थी। उसने अपने पुत्र गोविन्द की योग्यता से प्रभावित होकर गोविन्द को युवराज बनाया और ज्येष्ठ पुत्र स्तम्भ को गंगवाड़ी का उपराजा और इन्द्र को गुजरात-मालवा का राज्यपाल बनाया।

गोविन्द तृतीय ध्रुव के बाद गोविन्द तृतीय राष्ट्रकूट शासक बना। उसने 793 ई. से 814 ई. तक शासन किया। उसने अपने भाई स्तम्भ के विद्रोह को दबाया। नोलम्बवाड़ी और कांची को अधीन कर दक्षिण में राष्ट्रकूट प्रतिष्ठा को मज़बूत किया। गोविन्द तृतीय ने इन्द्र को प्रशासन सौंप कर उत्तर का अभियान किया। 797 ई. में प्रतिहार नागभट्ट द्वितीय को पराजित कर मरुदेश भागने को मजबूर किया। उसने धर्मपाल को भी पराजित किया। लगभग 800 ई. में वह दक्कन लौट गया। दक्षिण में उसकी अनुपस्थिति में दक्षिणी राज्यों – पल्लव, चोल, चेर, पाण्ड्य और गंगों ने संघ बनाकर युद्ध घोषित कर दिया। उसने संघ को पराजित किया तथा केरल तक विजय प्राप्त की। उसकी शक्ति से भयभीत होकर लंका के राजा ने उसकी अधीनता स्वीकार करते हुए उसके दरबार में अपना एक दूत मंडल भेजा। अतः गोविन्द तृतीय इस वंश का सर्वाधिक योग्य और महान् शासक था।

अमोघवर्ष गोविन्द तृतीय के बाद अमोघवर्ष राष्ट्रकूट शासक बना। उस समय अमोघवर्ष अवयस्क था, अतः संरक्षक चचेरे भाई कर्क ने उसकी आरम्भिक कठिनाइयों का सामना करने में सहयोग किया। उसने 814 ई. से 880 ई. तक शासन किया।

उसके शासनकाल में वेंगी के चालुक्यों ने 845-46 ई. में निर्णायक पराजय के बाद अधीनता मान ली। गंगवाड़ी के साथ वैवाहिक सम्बन्ध कायम कर शान्ति स्थापित की। कर्क की मृत्यु (830 ई.) के कुछ वर्षों तक उसका पुत्र ध्रुव (लाट प्रदेश के राष्ट्रकूट) निष्ठावान रहा, किंतु बाद में वह विद्रोही हो गया। दोनों राष्ट्रकूट शाखाओं में 860 ई. में लम्बे संघर्षों के बाद मेल हो गया। यह मेल उत्तर में प्रतिहार शासक मिहिरभोज के भय से उत्पन्न था। मिहिरभोज ने गुजरात और काठियावाड़ राष्ट्रकूटों से छीन लिए। पालों से भी अमोघवर्ष के सीमावर्ती संघर्ष होते रहे।

अमोघवर्ष एक चिंतनशील, धार्मिकवृत्ति और प्रजापालक शासक था। अन्तिम समय में वह जैन अनुयायी बन गया था। उसने साहित्य और कला को प्रोत्साहन दिया। उसने अपने दरबार में जिनसेन, महावीराचार्य आदि विद्वानों को आश्रय प्रदान किया था।

कृष्ण द्वितीय अमोघवर्ष के बाद कृष्ण द्वितीय राष्ट्रकूट शासक बना। उसने 880 ई. से 914 ई. तक शासन किया। उसके समय दक्षिण में वेंगी के चालुक्यों ने राष्ट्रकूट सत्ता को काफी नुकसान पहुँचाया। विजयादित्य तृतीय (चालुक्य) की मृत्यु लगभग 888 ई. में होने के बाद कृष्ण द्वितीय ने अपने सामन्तों की सहायता से भीम (चालुक्य) को पराजित कर सामन्त बनाया, परन्तु कुछ वर्षों बाद उसने विद्रोह कर दिया, किंतु अंततः दोनों में शांति कायम हो गई। मिहिरभोज से भी गुजरात में उसका संघर्ष हुआ। राष्ट्रकूटों ने भोज की उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया। वृद्ध भोज ने आगे संघर्ष नहीं किया‌। कृष्ण द्वितीय जैन अनुयायी था और गुणचन्द का शिष्य था।

इन्द्र तृतीय कृष्ण द्वितीय के बाद इन्द्र तृतीय शासक बना। उसने 914 ई. से 928 ई. तक शासन किया। उसने परमार सामन्त उपेन्द्र परमार को हराकर उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया। उसने 916 ई. में कन्नौज पर भी अधिकार कर लिया। अभी तक किसी भी दक्षिणी शासक ने उत्तर भारत की मुख्य राजधानी पर अधिकार नहीं किया था। दक्कन लौटते ही प्रतिहार महीपाल ने कन्नौज पुनः जीत लिया।

इन्द्र तृतीय ने वेंगी के चालुक्य विजयादित्य चतुर्थ से संघर्ष किया, जिसमें विजयादित्य चतुर्थ मारा गया। उसके पुत्र अम्म ने शान्ति बनाए रखी। इन्द्र तृतीय ने अम्म के बाद युधामल्ल को 928 ई. में वेंगी की गद्दी पर बैठाया।

अतः इन्द्र तृतीय गोविन्द की तरह एक योग्य शासक था। इन्द्र तृतीय के बाद अमोघवर्ष द्वितीय, गोविन्द चतुर्थ और अमोघवर्ष तृतीय कमज़ोर शासक हुए।

कृष्ण तृतीय अमोघवर्ष तृतीय के बाद कृष्ण तृतीय राष्ट्रकूट शासक बना। उसने 939 ई. से 967 ई. तक शासन किया। 943 ई. में उसने चोल राज्य पर आक्रमण कर काँची तथा तंजौर जीत लिए। परन्तु चोल राज्य पर वह अधिकार न रख सका। कर्हाद लेख के अनुसार उसने केरल, पांड्य, लंका के शासकों को पराजित किया।

उसने रामेश्वर में दो मंदिरों का निर्माण कराया। काँची में कालप्रिय का मंदिर बनवाया। वेंगी के राज्य में हस्तक्षेप कर 956 ई. में युद्धामल्ल के पुत्र बाड़प को शासक बनाया।

963 ई. में कृष्ण तृतीय ने उत्तर अभियान कर मालवा के परमार सामन्त सीयक को हराकर उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया। 964 ई. में वह दक्कन लौट गया। 967 ई. में कृष्ण तृतीय की मृत्यु हुई। वह राष्ट्रकूट वंश के योग्यतम शासकों में से एक था।

खोटिंग (967-972 ई.) कृष्ण तृतीय निः संतान मरा। अतः उसका भाई खोट्टिग शासक बना। परमार सीयक ने राष्ट्रकूट प्रतिष्ठा को नष्ट करते हुए 972 ई. में मालखेड़ को लूटा। अपमान से खोट्टिग अपुत्रक ही चल बसा। उसके बाद कर्क द्वितीय (972-974 ई.) अल्पकालिक राजा हुआ और चालुक्य सामन्त तैल द्वितीय ने कर्क द्वितीय को मालखेड़ से खदेड़कर राष्ट्रकूट साम्राज्य का अंत कर दिया।

प्रशासन (Administration)

राष्ट्रकूट राजवंश के शासन प्रबंध का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था। राजा का पद आनुवंशिक होता था। राजा का बड़ा पुत्र ही युवराज बनता था। छोटे पुत्र प्रान्तों में राज्यपाल बनाये जाते थे। युवराज ही प्रायः राजा की मृत्यु के बाद राज्य का उत्तराधिकारी बनता था, किन्तु कभी-कभी दूसरे योग्य व्यक्ति को भी शासक बना दिया जाता था, उदाहरणस्वरूप – गोविन्द तृतीय।

राष्ट्रकूट शासक अपनी राजधानी में रहता था, जहाँ उसकी राजसभा और केन्द्रीय प्रशासन के कर्मचारी रहते थे। मंत्री, सामन्त, राजदूत, वैद्य, ज्योतिषी, सैनिक और असैनिक अधिकारी, कवि आदि नियमित रूप से राजसभा में उपस्थित होते थे। सम्राट अपनी मंत्रिपरिषद् की परामर्श से शासन करता था। राष्ट्रकूट लेखों में मंत्रियों के विभागों के नाम नहीं मिलते हैं।

राष्ट्रकूट शासन में सामन्तवाद की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। कुछ भागों का शासन प्रबंध सामन्त ही करते थे। दक्षिणी गुजरात आदि प्रदेशों के सामन्त तो पूरी स्वायत्तता का उपभोग करते थे और नाममात्र के लिए ही सम्राट की अधीनता स्वीकार करते थे। प्रमुख सामन्त अपने अधीन छोटे सामन्त रखते थे जिन्हें ‘राजा’ कहते थे।

राष्ट्रकूट शासक वस्तुतः अपने अधीनस्थ सामन्तों के द्वारा ही प्रशासन चलाते थे। सामन्त हमेशा स्वतंत्र होने की ताक में लगे रहते थे। इस कारण उनका सम्राट के साथ प्रायः युद्ध होता था। राष्ट्रकूट राजाओं को वेंगी और कर्नाटक के अपने सामन्तों के साथ कई बार संघर्ष करना पड़ा। सम्राट के सीधे नियन्त्रण वाले क्षेत्र को कई राष्ट्रों में बाँटा गया था। ‘राष्ट्र’ आधुनिक कमिश्नरियों के समान थे। राष्ट्र को मण्डल भी कहा जाता था। राष्ट्रों की संख्या लगभग  20-25 थी। इसका प्रधान अधिकारी ‘राष्ट्रपति’ कहलाता था। वह नागरिक और सैनिक दोनों ही प्रकार के शासन का प्रधान होता था। उसके अधीन सेना भी होती थी। वह सामन्तों और पदाधिकारियों के ऊपर नियन्त्रण रखता था और किसी प्रकार की विद्रोह की स्थिति में तुरन्त उसे दबाता था।

राष्ट्रपति भी सैनिक अधिकारी होता था। राष्ट्रपति को वित्त सम्बन्धी अधिकार भी प्राप्त थे और भूराजस्व संग्रह करने के लिये वही उत्तरदायी था, परंतु उसे सम्राट की अनुमति प्राप्त किये बिना भूमिकर माफ़ करने और विषय के पदाधिकारियों की नियुक्ति करने का अधिकार नहीं था।

प्रत्येक राष्ट्र में कई ‘विषय’ होते थे, जो आधुनिक जिले के समान थे। इनमें एक हज़ार से लेकर चार हज़ार तक गाँव होते थे। विषय का प्रधान अधिकारी ‘विषयपति’ था।

विषय का विभाजन कई भुक्तियों में होता था, जो आधुनिक तहसीलों के समान था। भुक्ति के प्रधान को ‘भोगपति’ कहते थे।

विषयपति और भोगपति अपने अधिकार क्षेत्रों में प्रायः वही कार्य करते थे, जो राष्ट्रपति, राष्ट्र में करता था। प्रत्येक भुक्ति में 50 से लेकर 70 तक ग्राम होते थे।

विषयपति और भोगपति ‘देशग्रामकूट’ नामक वंशानुगत राजस्व अधिकारियों के सहयोग से राजस्व विभाग का प्रशासन चलाते थे। इन अधिकारियों को करमुक्त भूमिखण्ड दिये जाते थे। ग्राम का शासन मुखिया द्वारा चलाया जाता था। उसे ग्रामकूट, ग्रामपति या गावुन्ड कहते थे।

राष्ट्रकूट प्रशासन में नगरों और ग्रामों दोनों को स्वायत्त शासन का अधिकार प्रदान किया गया था। प्रत्येक ग्राम और नगर में जन-समितियों का गठन किया गया था, जो स्थानीय शासन का संचालन करती थीं।

कर्नाटक और महाराष्ट्र के गाँवों में एक सभा होती थी। ग्राम सभा में प्रत्येक परिवार का वयस्क सदस्य ग्राम सभा का सदस्य होता था। ग्राम के बड़े-बूढ़ों को ‘महत्तर’ कहते थे।

राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर था, जिसे उद्रंग या भोगकर कहते थे। यह उपज का चौथा भाग होता था और प्रायः अनाज के रूप में लिया जाता था। जो भूमि अनुदान में दी जाती थी वह सभी करों से मुक्त होती थी।

भूमिकर के अलावा क्रय- विक्रय की वस्तुओं, चुंगी, खानों, वनों आदि के द्वारा भी राज्य को आय प्राप्त होती थी। सामन्त भी सम्राट को कर, उपहार आदि दिया करते थे।

धर्म  (Religion)

राष्ट्रकूट काल धार्मिक सहिष्णुता का काल था। राष्ट्रकूट शासकों ने पृथ्वीवल्लभ, श्रीनारायण, श्री वल्लभ आदि उपाधियाँ धारण की। उनकी राजमुद्राओं पर ‘गरुड़’ और ‘योग मुद्रा में शिव’ का अंकन मिलता है।

ब्राह्मण धर्म के अलावा राष्ट्रकूटों ने जैन धर्म को भी संरक्षण प्रदान किया। राष्ट्रकूट दरबार में गुणभद्र, पम्प, जिनसेन, नागवर्मा,  रन्न और पौष नामक कन्नड़ लेखक जैन धर्म से सम्बंधित थे। अमोघवर्ष प्रथम और गोविन्द चतुर्थ नामक राष्ट्रकूट शासक तो जैन मतानुयायी थे।

राष्ट्रकूट काल में बौद्ध धर्म का प्रचार अपेक्षाकृत कम रहा। कन्हेरी के बौद्ध विहार को शिक्षा के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय के रूप में ख्याति राष्ट्रकूट काल में मिली। इस्लाम धर्म के प्रति भी इस काल के लोगों का दृष्टिकोण सहिष्णुतापूर्ण था। मुस्लिम लेखकों के विवरण से पता चलता है कि राष्ट्रकूट राज्य में अरब व्यापारियों को मस्जिद बनाने और धर्म का पालन करने की स्वतन्त्रता थी ।

साहित्य  (Literature)

राष्ट्रकूट शासक विद्या-प्रेमी भी थे और उनके दरबार में उच्चकोटि के विद्वान निवास करते थे। अमोघवर्ष ने कन्नड़ भाषा में प्रसिद्ध काव्यग्रन्थ ‘कविराजमार्ग’ की रचना की। उसकी राजसभा में गणितसारसंग्रह के रचयिता महावीराचार्य, अमोघवृत्ति के लेखक साकतायन, आदिपुराण के लेखक जिनसेन आदि  निवास करते थे। राष्ट्रकूट शासकों ने कन्नड़ भाषा और साहित्य को संरक्षण प्रदान किया। कन्नड़ के साथ संस्कृत का भी विकास होता रहा। राष्ट्रकूट लेखों में संस्कृत भाषा का प्रयोग मिलता है।

कला (Art)

राष्ट्रकूट काल में कई भवनों, गुफाओं और मंदिरों का निर्माण किया गया। महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद में स्थित एलोरा नामक पहाड़ी पर 18 ब्राह्मण मन्दिर और 4 जैन गुहा मन्दिरों का निर्माण करवाया गया। राष्ट्रकूट कला पर चालुक्य और पल्लव कला शैलियों का प्रभाव दिखाई देता है।

एलोरा के मन्दिरों में ‘कैलाश मन्दिर’ का निर्माण कृष्ण प्रथम ने करवाया। यह प्राचीन भारतीय वास्तु और तक्षण कला का उदाहरण है। यह सम्पूर्ण मन्दिर एक ही पाषाण को काटकर बनाया गया है।

एलोरा के मध्य मन्दिरों में दशावतार, लम्बेश्वर, रामेश्वर, नीलकण्ठ,रावण की खाई , देववाड़ा आदि प्रमुख है।

राष्ट्रकूट काल में वास्तुकला के साथ मूर्तिकला की भी उन्नति हुई। गुप्त और चालुक्य शैली से प्रेरणा लेकर कलाकारों ने सुन्दर मूर्तियाँ बनाई। ऐलोरा और एलिफैण्टा अपनी मूर्तिकारी के लिये प्रसिद्ध है। इस काल की शिव और विष्णु की मूर्तियाँ सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं।

ऐलोरा के चित्र जैन और ब्राह्मण धर्मों से संबंधित हैं, जिन्हें 7वीं से 11वीं शती के मध्य तैयार किया गया था। अतः राष्ट्रकूट शासकों के संरक्षण में कला और स्थापत्य का काफी विकास हुआ।

निष्कर्ष  (Conclusion)

अतः राष्ट्रकूट शासकों ने न केवल विशाल साम्राज्य का निर्माण किया, वरन् लगातार युद्धों में व्यस्त रहने के बावजूद उन्होंने गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक के प्रदेशों में कला और संस्कृति के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने शिक्षा और साहित्य को बढ़ावा दिया और लोगों में धार्मिक सहिष्णुता का विकास किया।

संदर्भ सूची

  • झा, द्विजेन्द्रनारायण व श्रीमाली, कृष्णमोहन, (सं.) (1984). प्राचीन भारत का इतिहास, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय : दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
  • थापर, रोमिला (2016). पूर्वकालीन भारत, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय : दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
  • शर्मा, प्रो. कृष्णगोपाल व जैन, डॉ. हुकुम चंद, (2019).भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (भाग-1), राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर

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