रूसी क्रांति के कारण
परिचय
रुसी क्रांति बीसवीं सदी के इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना थी। 1904-05 के रूस-जापान युद्ध में रूस की पराजय से रूस की श्रेष्ठता का भ्रम टूटा तो रूसी शासक जार की सर्वोच्चता का तिलिस्म भी ध्वस्त हो गया। अब रूसी नागरिक पिछड़े रूसी ढांचे को बदलकर मार्क्स के विचारों पर आधारित सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था के अनुरूप जीवन व्यतीत करना चाहता था। 1905 में भी इसी तरह की क्रांति का प्रयास हुआ था, लेकिन प्रतिगामी तत्वों ने कुछ समय के लिए प्रगति के मार्ग को रोक दिया था।
रूस में 1917 में स्थाई रूप से पुरानी जारशाही को समाप्त कर दिया गया तथा समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की गई। 1917 की क्रांति दो चरणों में हुई थी। प्रथम, जिसमें फरवरी-मार्च 1917 में जारशाही निरंकुशता को उखाड़ फेंका गया तथा दूसरे चरण में बोल्सेविक दल के नेतृत्व में अक्टूबर-नवंबर 1917 में सर्वहारा वर्ग के हाथों में सत्ताआई। इसे प्राय: बोल्सेविक या अक्टूबर क्रांति भी कहा जाता है।विद्वानों का मत है की रुसी क्रांति की घटनाएँ आकस्मिक रूप से घटित हुई, परंतु इसके कारण लगभग पिछले एक सदी में खोजें जा सकते है। इस क्रांति के प्रमुख कारण निम्नलिखित है।
रूसी क्रांति के कारण
- श्रमिक-वर्ग का असंतोष: रूस में औद्योगिकीकरण यूरोप के अन्य देशों की अपेक्षा बहुत समय बाद हुआ था। यहां उद्योगों में पूंजी निवेश करने के लिए मध्यमवर्ग नहीं था। इन हालातों में विदेशी उद्योगपतियों ने अधिक से अधिक मुनाफा प्राप्त करने के दृष्टिकोण से रूसी उद्योगों में धन लगाया था। विदेशी उद्योगपतियों ने रूसी मजदूरों के हितों की अनदेखी की, उनको कम वेतन दिया तथा उनका शोषण किया । इन हालातों में मजदूरों की दशा अत्यंत कष्टप्रद थी। इन्हीं परिस्थितियों का लाभ समाजवादी दल को अपनी जड़े ज़माने में मिला।
- कृषकों की दयनीय दशा: रूस एक कृषि प्रधान देश था तथा जनसंख्या का अधिकांश भाग कृषि पर निर्भर थी। जार अलेक्जेंडर द्वितीय द्वारा 1861 में ‘दासता’ को खत्म किये जाने के उपरांत भी कृषकों की दशा दयनीय थी। एक तिहाई के लगभग कृषकों के पास भूमि नहीं थी। ये कृषक जमींदारों के खेतों पर काम करते थे। जमींदार कृषकों से लगभग 50 प्रतिशत उपज का भाग लेते थे।रूस में तीस हजार लोगों के पास 7 करोड़ डेंसयाटिन भूमि थी और एक करोड़ कृषकों के पास 7.50 करोड़ डेंसयाटिन भूमि थी। किसानों की इस दयनीय दशा ने समाज में बड़े जमींदारों तथा गरीब किसानों के बीच संघर्ष को उत्पन्न किया।
- समाजवाद का प्रसार: रूस में औद्योगिकीकरण यूरोप के पश्चात हुआ परंतु वहां प्रभावशाली समाजवादी विचारों से ओत-प्रोत मजदूर संगठन की स्थापना हो चुकी थी। इन मजदूर संगठनों ने 1917 की क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस परिप्रेक्ष्य में रूस में पहला कदम जोर्ज प्लेरवानोव ने ‘एशियन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी’ की स्थापना करके की। 1898 में कई समाजवादी दलों को मिलाकर ‘एशियन सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी’ बनाई गई थी। 1903 में ये दो गुटों में विभक्त हो गए। पहला गुट मेनशेविक था, जो अल्पमत में था तथा दूसरा गुट बोल्शेविक था। यह बहुसंख्यको का दल था। इसके नेता लेनिन थे।‘सोशलिस्ट रेवोल्यूशनरी पार्टी’ किसानों के अधिकारों की लड़ाई में सक्रिय थी। इन विभिन्न समाजवादी संगठनों ने मजदूरों और किसानों को परिवर्तन करने के लिए जागृत कर दिया था।
- जार का स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश शासन: रूस में जारशाही काल के 300 वर्षों में जनता को किसी तरह की स्वतंत्रता प्राप्त न हो सकी। वे अपने शासन को किसी के प्रति भी उत्तरदायी नहीं मानते थे। जार शासक राजा के देवीय अधिकार के सिद्धांत में विश्वास रखते थे। प्रगति और परिवर्तन से उन्हें नफरत थी। जार अलेक्जेंडर तृतीय (1881-1894) और अंतिम जार निकोलस द्वितीय (1894-1917) अत्यंत निरंकुश शासक थे। उनके इच्छानुसार ही कानून बनते थे। इन शासकों के प्रतिक्रियावादी एवं स्वेच्छाचारी शासन ने जनता में असंतोष को व्यापक बना दिया था, जिसने क्रांति को अनिवार्य बना दिया था।
- रूस की साम्राज्यवादी नीति: जार शासकों ने आरंभ से ही साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया था। क्रीमिया युद्ध, रूस-टर्की युद्ध इत्यादि जार शासकों की इन्ही नीतियों के परिणाम थे। इन युद्धों में रूस को पराजय का सामना करना पड़ा, देश की गरिमा घूमिल हो गई थी। इस असफलता ने जनता में असंतोष को जन्म दिया और ऐसी पृष्ठभूमि तैयार हुई जिससे प्रथम विश्वयुद्ध का पथ-प्रशस्त हुआ था। साम्राज्यवादी नीति के कारण ही रूस-जापान (1904-05) युद्ध हुआ था। इस युद्ध में एक छोटे से एशियाई देश जापान ने यूरोप के गौरवान्वित देश रूस को हार स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया था। इस हार ने जार सरकार की कमजोरियों एवं खोखलेपन को स्पष्टत: जनता के समक्ष उजागर कर दिया। अब जनता समस्त कमजोरियों के मूल में जार सरकार को ही दोषी मानने लगी। अत: यहाँ से जार प्रशासन के पतन की पृष्ठभूमि की भमिका निर्मित होने लगी।
- बुद्धिजीवी वर्ग की भूमिका: बुद्धिजीवी वर्ग ने भी रूसी क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। प्रसिद्ध उपन्यासकार टॉलस्टॉय, तुर्गनेव, दास्तोवस्की इत्यादि ने अपनी अपनी रचनाओं के माध्यम से तत्कालीन समाजों में प्रचलित अपराधों एवं अन्यायों को उजागर किया था। ये विचारक पश्चमी उदारवादी विचारधारा से प्रभावित थे। इन विचारको ने जनता को अत्याचारों व अन्याय के प्रति जागरूक किया।
- 1905 की क्रांति: रूस में 1905 की क्रांति 1917 की क्रांति का पूर्वाभ्यास सिद्ध हुई। 1904-05 के रूस जापान युद्ध का इसमें महत्वपूर्ण हाथ रहा था। रूसी जनता को सरकार के दोष और उसकी कमजोरियों का ज्ञान हो चूका था। शीघ्र ही पुरे देश में आंदोलन और उपद्रव शुरू हो जाते है। 22 जनवरी, 1905 को रविवार के दिन एक नवयुवक पादरी फादर गेपो के नेतृत्व में लगभग 1,50,000 मजदूर जार को याचिका देने के लिए शाही महल की ओर चल दिए। जार शाही शासन ने निहत्थे लोगों पर गोली चला कर 130 मजदूरों को मार डाला और इसमें हजारों लोग घायल हुए। यह काला दिन खुनी रविवार (ब्लडी संडे) के नाम से विख्यात है। हत्याओं के समाचार ने विरोध को जन आंदोलन के रूप में बदल दिया। जन आंदोलनों के स्वरुप एवं आक्रामकता ने निकोलस द्वितीय को 30 अक्टूबर, 1905 को प्रशासनिक सुधारों की घोषणा करने के लिए विवश कर दिया। रूस में पहली ड्यूमा (Duma-रुसी संसद) की स्थापना 10 मई, 1906 को हुई, परंतु जैसे ही जन आंदोलन शांत हुआ जार निकोलस द्वितीय ने सुधारों को समाप्त करके निरंकुश शासन पुन: स्थापित कर दिया। 1905 की क्रांति अपने उद्देश्यों को हासिल करने में असफल रही किन्तु इस क्रांति ने 1917 की क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया था।
- रूसीकरण की नीति के कारण अल्पसंख्यकों में असंतोष: रूस विभिन्न धर्म, भाषाएं बोलने वाले लोगो के सम्मिश्रण से बना था। अलेक्जेंडर तृतीय के शासन काल में गैर रूसी भाषी धर्म तथा संस्कृति के लोगों पर रूसी संस्कृति अपनाने के लिए दबाव बनाया गया। इन गैर रूसी जातियों के साथ कई अमानवीय अत्याचार एवं व्यवहार किया जाता था। केवल यहूदियों का बुरी प्रकार उत्पीड़न ही नहीं किया जाता था, बल्कि फिनलैंड, पौलेंड इत्यादि के माध्यमिक विद्यालयों में रूसी भाषा अनिवार्य कर दिया गया तथा वहां के विधानमंडल की शक्तियों पर कई प्रतिबंध लगाये गए। रूसीकरण की इस नीति को जार निकोलस द्वितीय ने भी अपनाया था। इस नीति के कारण रूस में अल्पसंख्यकों में असंतोष उत्पन्न हो गया, यह क्रांति का एक महत्वपूर्ण कारण बना।
- मार्क्स तथा लेनिन की भूमिका: कार्ल मार्क्स के विचारों का देश की जनता एवं बुद्धिजीवियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। रूसी क्रांति के मुख्य नेता लेनिन एवं ट्राटस्की का मार्क्स के ग्रंथों पर अटूट आस्था थी। मार्क्स की शिक्षाओं पर विश्वास धीरे-धीरे किसानों और मजदूरों में बढनें लगा था। मार्च, 1917 में रूसी क्रांति के शुरू होते ही लेनिन स्विजरलैंड से रूस आ गया था। उसके आते ही राजधानी में आंदोलन जन-आंदोलन में रूपांतरित हो जाता है। लेनिन और उसकी बोल्शेविक पार्टी निरंकुश जार शाही शासन व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए सक्रिय हो गई। मार्क्स तथा लेनिन को 1917 की क्रांति का मार्ग-दर्शक स्वीकार किया जाता है।
- प्रथम विश्वयुद्ध के प्रभाव (आर्थिक संकट एवं असंतोष): प्रथम विश्वयुद्ध के लिए करोड़ो लोग सेना में भर्ती किए गए। परिणामस्वरूप कारखानों तथा खेतों में काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या कम हो गई जिससे उत्पादकता में भारी गिरावट आई। खाद्य पदार्थों की कमी के कारण रूस में आर्थिक संकट का खतरा मंडराने लगा। वहीं दूसरी तरफ प्रथम विश्वयुद्ध में लाखों की संख्या में रूसी सैनिक मारे गए। अतः इन घटनाओं ने जनता में असंतोष को बढ़ाया तथा क्रांति को अनिवार्य बनाया।
- भ्रष्ट नौकरशाही तथा जार निकोलस के व्यक्तित्व का दुष्परिणाम: जारशाही शासन व्यवस्था में संपूर्ण नौकरशाही भ्रष्ट थी। इस समय जार निकोलस पर जरीना(साम्राज्ञी) अलेक्जेंड्रा का विशेष प्रभाव था। वह स्वेस्च्छाचारी शासन की पक्षपाती थी। जरीना पर रासपुटिन (साधु) का विशेष प्रभाव था। रासपुटिन ने धीरे-धीरे अपने प्रभाव का लाभ उठाकर प्रशासन के कार्यों में हस्तक्षेप शुरू कर दिया। प्रमुख अधिकारीयों की नियुक्ति तथा पदच्युति की कमान रासपुटिन के हाथों में आ गई। परिणामस्वरूप राजदरबार में रासपुटिन के विरोध में एक खेमा बन गया। इस खेम ने दिसंबर, 1916 में उसकी हत्या कर दी। यदि जार जरा सा भी समझदार होता तो वह राजदरबार तथा प्रस्तुत अव्यवस्थाओं को नियंत्रित कर सकता था, जिससे 1917 की क्रांति को टाला जा सकता था, लेकिन निकोलस द्वितीय का कमज़ोर व्यक्तित्व एवं कार्यकुशलता के आभाव ने क्रांति को अनिवार्य बना दिया।
निष्कर्ष
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रूस की क्रांति के कई कारण थे। 1904-05 में जापान से पराजय, मजदूरों एवं कृषकों की दयनीय स्थिति, 1905 की क्रांति तथा ड्यूमा के प्रभाव को कुचलने का प्रयास, रासपुटिन का शासन कार्यो में हस्तक्षेप एवं प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उत्पन्न आर्थिक संकट और बड़ी संख्या में रूसी सैनिकों की मृत्यु इत्यादि घटनाओं ने 1917 क्रांति की पृष्ठभूमि निर्मित की थी।
विश्व में पूंजीवादी लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था के विकल्प के रूप में रुसी क्रांति हमेशा से एक प्रेरणा का स्रोत रही है। समाज के अंतिम व्यक्ति तक जीवन की मूलभूत सुविधायें (रोटी , कपडा, मकान, शिक्षा, रोजगार इत्यादि) की पहुंच सुनिश्चित करना तब भी एक महत्वपूर्ण सवाल था और आज भी।
“मुफ्त शिक्षा सबका अधिकार आओ सब मिलकर करें इस सपने को साकार”
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