द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणाम/प्रभाव | Effects of World war 2 in Hindi

द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणाम/प्रभाव

परिचय

द्वितीय विश्वयुद्ध एक संपूर्ण युद्ध था। यह युद्ध इतना भयानक और विनाशकारी था कि जान-माल की हानि का सही-सही अनुमान लगा पाना काफी कठिन है। युद्ध इतना व्यापक था कि प्रायः संपूर्ण विश्व इसकी चपेट में था। संयुक्त राज्य अमेरिका पर भी कुछ बम वर्षा हुई तथा यूरोप, अफ्रीका, एशिया, अटलांटिक महासागर, प्रशांत महासागर आदि समस्त क्षेत्रों में भीषण नरसंहार हुआ। इस युद्ध में सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) ने साथ मिलकर धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध युद्ध लड़ा परंतु दोनों विचारधाराओं में जो गहरी खाई थी, उसने युद्ध की समाप्ति पर दोनों में पुनः टकरावपूर्ण परिस्थितियां उत्पन्न कर दी। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव डालने वाले द्वितीय विश्व युद्धोत्तर तत्त्वों और आधुनिक उभरती हुई प्रवृत्तियों की विवेचना एवं विवरण इस प्रकार है –

द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणाम/प्रभाव

  1. यूरोपीय प्रभुत्व का अंत : सन् 1492 ई. में कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध तक की अवधि को विश्व के इतिहास का ‘यूरोपीय काल’ कहा जा सकता हैं। इस युग में यूरोप में तीव्र गति से वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति हुई। यूरोपियन राष्ट्रों ने विशाल साम्राज्य की स्थापना की। जर्मनी, इटली, ब्रिटेन और फ्रांस की गिनती महाशक्तियों के रूप में की जाती थी, किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध ने यूरोपीय राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया। युद्ध की समाप्ति के पश्चात् इटली, जर्मनी, फ्रांस एवं ब्रिटेन इत्यादि राष्ट्र द्वितीय श्रेणी की शक्ति बनकर रह गए। विश्व का नेतृत्व यूरोप के हाथ से निकलकर संयुक्त राज्य अमेरिका तथा सोवियत संघ के हाथों में स्थानांतरित हो गया।
  2. परमाणु शास्त्रों के युग का सूत्रपात : यूएसए के एक वायुयान B-29 ने 6 अगस्त, 1945 को एक अणुबम हिरोशिमा पर गिराया। अणुबम के विस्फोट से हिरोशिमा की लगभग 90 प्रतिशत इमारतें धाराशाही हो गई एवं लगभग 7,50,000 नागरिक मारे गए। इस परमाणु हथियार के प्रयोग के साथ परमाणु युग का सूत्रपात हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के घातक परिणामों ने मशहूर वैज्ञानिक आइंस्टाइन को यह कहने पर विवश कर दिया कि “तृतीय विश्वयुद्ध के बारे में तो मैं कह नहीं सकता परंतु चौथा विश्वयुद्ध पाषाण अस्त्रों से लड़ा जाएगा।” मैक्स लर्नर ने आज के युग को The Age of Overkill (अतिमारकता का युग) कहा हैं।
  3. एशिया और अफ्रीका का जागरण तथा स्वतंत्र एवं संप्रभु राज्यों की संख्या में वृद्धि : द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् नवीन राज्यों के उदय की प्रक्रिया अत्यधिक तीव्र गति से चली। सन् 1960 में सिर्फ एक महीने में केवल अफ्रीकी महाद्वीप के ही 16 नए राज्य संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) के सदस्य बनें। सन् 1945 में यूएनओ के सदस्यों की संख्या 51 थी, जो आज 192 हो गई है। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिकी राष्ट्रों में स्वतंत्रता प्राप्ति की लहर का आगमन हुआ। ‘एशिया एशिया वालों के लिए’ और ‘अफ्रीका अफ्रीकियों के लिए’ जैसे नारे यह स्पष्ट करते हैं कि विश्व के मामलों के एकमात्र कर्ताधर्ता के रूप में यूरोप की भूमिका कम हुई है। तीसरी दुनिया के इन राष्ट्रों ने स्वतंत्र विदेश नीति अपनाई। नये राज्यों के उदय हो जाने से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का रूप अब वास्तिविकता में अंतर्राष्ट्रीय हो गया है।
  4. दो विचारधाराओं में विखंडित समाज : द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद समाज दो विचारधाराओं में विभाजित था। प्रथम साम्यवादी तथा दूसरा लोकतांत्रिक। इन दोनों विचारधाराओं ने प्रत्येक देश और राष्ट्र की जनता को दो पृथक वर्गों में बांट दिया। राष्ट्रीयता की भावना अब क्षीण होने लगी थी। विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन और फ्रांस में बहुत से लोगों ने अपनी सरकारों के विरुद्ध दुश्मन देशों की सहायता करने में संकोच नहीं किया, इसका मुख्य कारण यही था कि उनकी विचारधारा वही थी, जिनके विरुद्ध उनकी राष्ट्रीय सरकारें युद्ध कर रही थीं। राष्ट्रभक्ति, देशप्रेम तथा मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर करने की भावना के स्थान पर अब विचारधारा के प्रति भक्ति लेने लगी थीं।
  5. प्रादेशिक संगठनों का उदय : साम्यवादियों का बढ़ता हुआ प्रभाव तथा सोवियत संघ की बढ़ती हुई शक्ति ने पश्चिमी राष्ट्रों को गहन चिंतन में डाल दिया। कोरिया युद्ध के दौरान यूएसए के राजनीतिज्ञों ने अनुभव किया कि साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लिए सामूहिक सुरक्षा हेतु सैनिक संगठनों का निर्माण परम आवश्यक है। 1949 में नाटो, 1954 में सीटो, वारसा पैक्ट, सैण्टो आदि सैनिक संधियां इसी संदर्भ में अस्तित्व में आई। सैनिक संगठनों के निर्माण से स्पष्ट था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सैन्य प्रवृत्तियों में कमी नहीं आईं है। ये सैन्य संधियां शांति स्थापना के लिए की गई थीं, परंतु इसमें उत्तेजक प्रवृतियां छिपी हुई हैं।
  6. शीतयुद्ध : द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में सोवियत संघ और अमरीका जैसी शक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। ये दोनों अलग-अलग विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते थे। दोनों विचारधाराओं में मतभेद दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया। इन मतभेदों ने इनमें इतना तनाव, शंका, द्वेष उत्पन्न कर दिया कि सशस्त्र संघर्ष न होते हुए इन दोनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप तथा परस्पर विरोधी राजनीतिक प्रचार का युद्ध प्रारंभ हो गया। जो कि दशकों तक चलता रहा। वैचारिक स्तर पर जल्द ही दोनों खेमों के बीच एक अघोषित युद्ध छिड़ गया। इस अघोषित युद्ध को ही शीतयुद्ध के नाम से संबोधित किया जाता हैं।
  7. गुटनिरपेक्षता  : द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब नवीन संप्रभु राष्ट्रों का उदय हुआ तो उनमें अधिकांश ने स्वयं को शीतयुद्ध की खींचतान से निरपेक्ष रखने का फैसला लिया। इस संदर्भ में भारत ने मार्गदर्शन किया और गुटनिरपेक्षता की आवाज को आधार प्रदान किया। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 7 सितबंर, 1946 में एक रेडियो प्रसारण में वक्तव्य दिया कि, “जहां तक संभव हो, हमें परस्पर विरोधी गुटों की शक्ति की राजनीति से दूर रहना चाहिए, जिसके कारण पहले दो विश्वयुद्ध हो चुके हैं।” 1961 के बेलग्रेड के शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले निर्गुट देशों की संख्या 25 थीं। आज निर्गुट सदस्यों की संख्या 118 हो गई है। जो तीसरी दुनिया की शक्ति का परिचायक हैं।
  8. साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद की समाप्ति :  साम्राज्यवादी एवं उपनिवेशवादी शक्तियों के अस्तित्त्व का संकट इस युद्ध के उपरांत परिलक्षित हुआ। कुछ यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियां तो हार ही गई तथा उनके हारते ही उपनिवेशों में राष्ट्रीय सरकारें स्थापित हो गई। अफ्रीका और एशिया में जो अब तक विश्वास था कि यूरोपीय शक्तियां अजेय है तथा उनसे उपनिवेश स्वतंत्र नहीं हो सकते, द्वितीय विश्वयुद्ध ने यह भ्रम भी तोड़ दिया। युद्ध के बाद वे स्वयं सैन्य और आर्थिक दृष्टि से इतने निर्बल हो गए थे कि साम्राज्य को संभालने में स्वयं को असमर्थ पाने लगे। सोवियत संघ की साम्यवादी विचारधारा से भी साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद को अघात पहुंचा। अब उपनिवेशों में राष्ट्रीय राजनीति चेतना बहुत जागृत हो चुकी थीं। जिसका दमन कर पाना उनके लिए असंभव था। अब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति वस्तुतः विश्व राजनीति बन चुकी थी। यूरोप के हाथों से अब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की कमान फिसलकर एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी क्षेत्र की ओर बढ़ी। एशियाई एवं अफ्रीकी लोगों के उदय से यूरोपीय सभ्यता और संस्कृति पर भी कुठाराघात हुआ।
  9. द्वि-ध्रुवीयता से बहुकेंद्रवादी व्यवस्था की ओर : द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व दो ध्रुवों में विभक्त हो गया। किंतु 1950 के बाद विश्व द्वि-ध्रुवीयता के बंधन से मुक्त होकर बहुकेंद्रवादी व्यवस्था में परिवर्तित हो गया। 29 अगस्त,1949 में सोवियत संघ द्वारा परमाणु बम परीक्षण किया। मई 1951 में तथा नवंबर 1952 में सोवियत संघ ने अपना पहला हाइड्रोजन शक्ति परीक्षण किया। अमेरिका और सोवियत संघ के अलावा 1952 में ब्रिटेन, 1960 में फ्रांस एवं 1964 में चीन भी परमाणु शस्त्र धारक देश बना। सन् 1974 में भारत ने  भी पोखरण में आण्विक विस्फोट किया। जापान, पश्चिमी जर्मनी, यूरोपीय आर्थिक समुदाय, भारत और गुटनिरपेक्षता मंच भी आर्थिक और राजनीतिक शक्ति  के केंद्र बनें। अतः एशिया में भारत, चीन, जापान, मध्यपूर्व में तेल उत्पादक देश तथा यूरोप में फ्रांस और जर्मनी शक्ति केंद्र हैं, जो विश्व के शक्ति संतुलन को किसी भी ओर मोड देने में समर्थ है।
  10. तीसरे विश्व की बढ़ती भूमिका : द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों को कमज़ोर और महत्त्वहीन माना जाता था, परन्तु आज यही राष्ट्र अविकसित तथा छोटे होने के बावजूद अपनी संख्यात्मक शक्ति के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ में निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। महासभा में अपने संख्यात्मक शक्ति के कारण विकासशील देश निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।
  11. उत्तर बनाम दक्षिण विवाद : आज विश्व में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में उत्तर बनाम दक्षिण संघर्ष आरंभ हो चुका हैं। यदि उत्तरी ध्रुव को केंद्र मान लिया जाए तो केंद्र के निकटतम स्थित राष्ट्र समृद्ध तथा औद्योगिक राष्ट्र हैं, वहीं दूसरी ओर परिधि में स्थित राष्ट्र औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े राष्ट्र हुए हैं। उत्तरी या केंद्रीय भाग के राष्ट्रों का दक्षिणी भाग के राष्ट्रों पर आर्थिक प्रभाव हैं। आर्थिक शोषण का यह नया रूप उत्तर-दक्षिण संघर्ष/ विवाद है।
  12. संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना : 24 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई। सन् 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों की संख्या 51 थी और जो आज बढ़कर 192 हो गई है। आज न केवल संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्य संख्या में वृद्धि हुई है अपितु अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में उसकी सक्रियता, प्रभाव एवं महत्त्व भी बढ़ा हैं।

निष्कर्ष 

अतः हम कह सकते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध अति भयंकर एवं विनाशकारी सिद्ध हुआ। विश्व का कोई भी राष्ट्र इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहा। युद्ध के उपरांत अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अनेक नवीन प्रवृतियां तथा घटनाएं घटीं। सर्वप्रथम युद्ध के परिणामस्वरूप साम्राज्यवाद का स्वरूप परिवर्तित हुआ तथा अब साम्राज्यवाद के स्थान पर विचारधारा आश्रित प्रभाव क्षेत्रों ने ले लिया। युद्ध के फलस्वरूप शक्ति संतुलन ब्रिटेन के हाथों से फिसलकर अमेरिका के हाथों में जा पहुंचा। राष्ट्र संघ की कमजोरियों को दूर करते हुए भविष्य में शांति तथा मैत्रीपूर्ण वातावरण को बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई। निसंदेह यह द्वितीय विश्वयुद्ध की सबसे बड़ी देन मानी जा सकती है। इसके अतिरिक्त शीत युद्ध, वैचारिक संघर्ष, गुटनिरपेक्षता आंदोलन, एशिया एवं अफ्रीका के नवोदित राष्ट्रों की बढ़ती संख्या ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति व्यवस्था के स्वरूप को भी परिवर्तित किया।

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