मनु का सामाजिक कानून
परिचय
प्राचीन भारतीय चिंतन में मनु का स्थान अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। वैसे तो मनु के जीवनकाल को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है परंतु पौराणिक कथाओं के अनुसार मनु को पृथ्वी के सर्वप्रथम शासक एवं ब्रह्मा जी के पुत्र के रूप में माना जाता है। मनु द्वारा रचित ‘मनुस्मृति’ को भारतीय इतिहास में सबसे अधिक विवादित विषय के रूप में जाना जाता है। मनुस्मृति को राजनीतिक दर्शन के बजाय सामाजिक कानूनों के संदर्भ के रूप में अधिक जाना जाता है। मनुस्मृति की रचना शुंग वंश के समय में हुई थी। इसकी सर्वप्रथम संस्कृत में लेख ब्रिटिश और यूरोपियन काल में प्राप्त हुई। 1794 में मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद विलियम जोंस द्वारा किया गया। यदि देखा जाए तो मनुस्मृति राजनीतिक संदर्भ में 20 मार्च,1927 में महाराष्ट्र के महाड़ आंदोलन के पश्चात् अधिक प्रकाश में आई। डॉ• बी•आर अंबेडकर ने इस आंदोलन द्वारा मनुस्मृति की आलोचना की व इसका बहिष्कार किया। उस समय डॉ.बी.आर अम्बेडकर एवं इस आंदोलन के अन्य समर्थकों ने मिलकर मनुस्मृति का बहिष्कार करते हुए सार्वजनिक रूप से इसे जला दिया क्योंकि उनका मानना था कि इसके द्वारा ही समाज में असमानता का जन्म हुआ है। यदि वर्तमान संदर्भ में देखा जाए, तो मनुस्मृति एवं मनु के नाम का प्रयोग करके कई क्षेत्रीय दल भी अपनी राजनीति को चमकाने का प्रयास करते रहते हैं। मनुस्मृति के आलोचकों का यह मानना है कि मनु के विचार मुख्यतः एक विशिष्ट सामाजिक दायरे को निर्धारित करते हैं एवं यह महिलाओं एवं क्षुद्रों को मुख्यधारा के विकास से पृथक करते हैं। यह इनके अधिकारों, न्याय एवं समानता आदि को दूर करने का प्रयास करते हुए केवल मुख्य तौर पर विशिष्ट वर्ग के ही इर्द-गिर्द घूमकर उन्हें अधिक शक्तिशाली बनाता है। जहाँ एक ओर इसके कई आलोचक हैं वहीं दूसरी ओर महात्मा गांधी, स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे व्यक्तियों ने इसका समर्थन किया है।
मनु का सामाजिक कानून (Social Laws of Manu)
मनु को केवल उनके राजनीतिक दर्शन के लिए ही नहीं जाना जाता है बल्कि उन्हें उनकी सामाजिक व्यवस्था के लिए भी जाना जाता है। मनु ने सामाजिक व्यवस्था के द्वारा एक संगठित समाज की परिकल्पना को निम्नलिखित रूप से प्रस्तुत किया।
- धर्म (Dharam/ Religion)
- पुरुषार्थ (Purushartha)
- आश्रम (Ashram)
- वर्ण व्यवस्था (Varna System)
- संस्कार (Sanskar)
- महिलाओं की स्थिति (Status of Women)
मनु द्वारा प्रतिपादित इन सामाजिक कानूनों का विवरण निम्नलिखित रूप से है, जो कि इस प्रकार से है :
धर्म (Dharma/Religion) – धर्म का अर्थ कुछ भी नहीं बल्कि कर्त्तव्य का पालन करना है। प्रत्येक व्यक्ति जो भी धारण करता है, वास्तव में वही धर्म होता है।इस धर्म की अवधारणा मुख्य रूप से वैदिक साहित्य यानी कि श्रुतियों से ली गई है। मनु ने राजा पर धर्म एवं रीति-रिवाज का बंधन लगाया है, इसके साथ-साथ यह भी कहा है कि राजा अपनी प्रजा को स्वयं का दैवीय उत्तरदायित्व समझकर ही धर्मानुकूल व्यवहार करें। धर्म का अर्थ केवल रीति यानी कि ब्रम्हांड है। ये कानून या प्रकृति के कानून या ब्रह्मांड के नियम हैं, जिनके कारण ही अब तक पृथ्वी पर जीवन जीवंत रह पाया है। ऋग्वेद के अनुसार, प्रथम धर्मं दृश्यम है अर्थात् धर्म ही मानवीय समाज में ब्रह्मांड को निर्धारित करता है। मनुस्मृति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को इस धर्म का पालन करना ही चाहिए। अतः मनु ने धर्म, समाज एवं राज्य के मध्य एकरूपता को स्थापित करने के लिए ही अनेक सिद्धांतों की रचना की।
पुरूषार्थ (Purushartha) – पुरुषार्थ का विचार मुख्य रूप से जीवन का प्रमुख लक्ष्य होता है। मनुस्मृति के अनुसार, मनुष्य जीवन के चार महत्वपूर्ण लक्ष्य होते हैं। ये सभी इस बात को उजागर करते हैं कि किस प्रकार से मनुष्य के जीवन में संतुलन को स्थापित किया जा सकता है। मनुष्य जीवन के निम्नलिखित रूप से चार प्रकार के लक्ष्य होते हैं-
- धर्म – धार्मिकता, नैतिक मूल्य, विचार एवं क्रियाएं, गुण।
- अर्थ – समृद्धि, भौतिक कल्याण ।
- काम – आनंद की भावना, प्रेम, इच्छा, उत्साह।
- मोक्ष – अध्यात्मिकता, मुक्ति, उद्धार, आत्मानुभूति ।
धर्म एवं अर्थ एक प्रकार के माध्यम या साधन होते हैं, जबकि काम एवं मोक्ष स्वयं में एक लक्ष्य है। अर्थ की आवश्यकता काम के लिए होती है तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्म का होना अत्यंत ही आवश्यक होता है। मुख्यतः अर्थ पर धर्म को वरीयता प्राप्त होती है जबकि मानव जीवन का प्रमुख लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति करना होता है।
यहाँ पर मुख्य रूप से इस बात को दर्शाया गया है कि हिंदुओं ने इसे एक व्यापक तौर पर देखने का प्रयास किया है। यह न तो किसी भी पदार्थ या द्रव्य की एवं न ही जीवन के आध्यात्मिक आधार की उपेक्षा करता है। इसलिए, यह केवल ‘जीवन के संतुलित साधनों’ को दर्शाता है।
आश्रम की अवधारणा (Concept of Ashram)
आश्रम की अवधारणा की व्यवस्था, जिसकी विवेचना मनुस्मृति में की गई है। इसे मुख्यतः ऋग्वेद से लिया गया है। मनु के अनुसार, मानव जीवन का महत्वपूर्ण एवं परम लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करना है। इसलिए मनु ने मानव की आयु को 100 वर्ष तक माना है जिसके आधार पर ही उन्होंने आश्रम व्यवस्था को निम्नलिखित चरणों में विभाजित किया है –
- ब्रह्मचर्य आश्रम (25 वर्ष की आयु तक) – इस काल में व्यक्ति को ब्रह्मचर्य का पालन तथा वेदों का अध्ययन करना चाहिए। मनुष्य को आलस्य, निंदा, मिथ्या जैसी बुरी प्रवृतियों से दूर रहना चाहिए।
- गृहस्थ आश्रम (50 वर्ष की आयु तक) – गृहस्थ आश्रम में परिवार के पालन पोषण की ओर अधिक बल दिया गया है।
- वानप्रस्थ आश्रम (75 वर्ष की आयु तक) – इस अवस्था में मनुष्य को सभी मोह माया के बंधनों को त्यागकर अपनी पत्नी के साथ रहकर ही वानप्रस्थ जीवन का पालन करना चाहिए।
- सन्यास आश्रम (100 वर्ष तक) – यह मानव जीवन का अंतिम आश्रम है। इस आश्रम में प्रवेश से पूर्व मनुष्य को सभी ऋणों को पूरा करके मुक्त हो जाना चाहिए। मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य केवल मोक्ष प्राप्ति है जिसे वह सन्यास आश्रम के माध्यम से ही प्राप्त कर सकता है।
वर्ण व्यवस्था (Concept of Varna System)
- ब्राह्मण – मनुस्मृति में ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उन्हें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक दर्शन का केंद्र बिंदु बताया गया है। ब्राह्मणों को पूर्ण सृष्टि का स्वामी भी माना गया है। अतः मनु ने इस वर्ग को ज्ञान का भंडार बताया है।
- क्षत्रिय – वर्ण व्यवस्था में क्षत्रियों को दूसरा स्थान दिया गया है। क्षत्रियों का प्रमुख कार्य शासन करना तथा प्रजा के हितों की रक्षा करना, यज्ञ करना, दान देना, अध्ययन करना जैसे कर्तव्यों एवं दायित्वों का पालन करना है। ब्रह्मा की भुजाओं से उत्पन्न होने के कारण इन्हें शक्ति से संबंधित कार्य सौंपे गए हैं।
- वैश्य – वर्ण व्यवस्था में तीसरा स्थान वैश्य को प्राप्त है। इन्हें अर्थव्यवस्था के संचालन एवं विकास का उत्तरदायित्व सौंपा गया है। इनके प्रमुख उत्तरदायित्वों में व्यापार करना, पशुपालन, ब्याज देना, कृषि कार्य करना आदि से संबंधित कार्य को शामिल किया गया है।
- शुद्र – मनु की सामाजिक व्यवस्था में सबसे निम्नतम स्थान शूद्रों को दिया गया है। शूद्रों का प्रमुख कार्य है कि ये अन्य तीन वर्णों यानी कि ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य की सेवा करें। शूद्रों को वेदों के अध्ययन एवं शिक्षा की प्राप्ति से भी वंचित रखा गया है। वर्तमान समय में मनु की इस सामाजिक व्यवस्था में शूद्रों के स्थान को लेकर कड़ी आलोचना की जाती है और इसे असामयिक एवं अप्रासंगिक बताकर दलित वर्ग द्वारा अनेक बार बहिष्कृत किया गया है।
संस्कार (Concept of Sanskar)
ये 16 संस्कार निम्नलिखित रूप से हैं –
- गर्भाधान – यह संस्कार माता-पिता द्वारा किया जाता है और इसमें मानव जाति को जारी रखने के दायित्व को पूरा करने के लिए एक बच्चे के लिए उत्कट प्रार्थना शामिल है।
- पुंसवन (भ्रूण संरक्षण) – यह संस्कार गर्भावस्था के तीसरे या चौथे महीने के दौरान किया जाता है। एक पुजारी बच्चे में दैवीय गुणों का आह्वान करने के लिए वैदिक भजनों का पाठ करता है।
- सीमंतोन्नयन (गर्भवती मां की लालसा को संतुष्ट करना) – यह संस्कार एक गोद भराई के समान है, और गर्भावस्था के छठे या सातवें महीने के दौरान किया जाता है, जब बच्चे के स्वस्थ शारीरिक और मानसिक विकास के लिए भगवान से प्रार्थना की जाती है।
- जातकर्म – बच्चे के जन्म के समय उसके स्वस्थ और लंबे जीवन के लिए जातककर्म (बाल जन्म) मंत्रों का पाठ किया जाता है।
- नामकरण – बच्चे के लिए नाम इस तरह चुना जाता है कि इसका अर्थ बच्चे को धार्मिकता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित कर सके।
- निष्क्रमण – यह संस्कार जन्म के चौथे महीने में किया जाता है जब बच्चे को सूर्य चंद्र की ज्योति के दर्शन कराए जाते हैं।
- अन्नप्राशन – इस संस्कार के बाद से बच्चे को माता के दूध के अतिरिक्त छठे, सातवें या आठवें महीने में ठोस आहार दिया जाता है।
- चूड़ाकर्म (बाल काटना) – हम इसे ‘मुंडन’ के नाम से भी जानते हैं। यह उम्र के पहले या तीसरे वर्ष के दौरान किया जाता है।
- कर्णवेध (कान छिदवाना) – यह संस्कार तीसरे या पांचवें वर्ष में किया जाता है।
- उपनयन (पवित्र धागा समारोह) – यह शिक्षा प्राप्त करने और ब्रह्मचर्य में बच्चे के प्रवेश को चिह्नित करने के लिए किया जाता है।
- यज्ञोपवीत – इसमें जनेऊ धारण किया जाता है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए यह संस्कार किया जाता है।
- विद्यारम्भ (वेदों का अध्ययन) – इस संस्कार के द्वारा व्यक्ति को अपने धर्म का वैज्ञानिक ज्ञान होना चाहिए।
- केशान्त – इसका उद्देश्य बच्चे को शिक्षा क्षेत्र से सामाजिक क्षेत्र की ओर ले जाना है। यह गृहस्थाश्रम में प्रवेश का पहला चरण होता है।
- समावर्तन (शिक्षा पूरी करके घर लौटना) – यह संस्कार लगभग 25 वर्ष की आयु में किया जाता है। आजकल गुरुकुल वाली परंपरा तो समाप्त हो चुकी है, इसलिए इस संस्कार को अब नहीं किया जाता है।
- विवाह – प्राचीन काल से ही परिपक्व आयु में विवाह संस्कार मान्य रहा है। सामाजिक बंधनों में बंधने के लिए एवं पारिवारिक उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए ही विवाह संस्कार किया जाता है।
- अंत्येष्टि – मानव शरीर जब किसी कार्य को करने योग्य नहीं होता है । मन की उमंग भी समाप्त हो जाए, तब मानव शरीर के अंतिम समय में इस दाह संस्कार का विधान होता है।
महिलाओं की स्थिति एवं भूमिका (Status and role of Women)
- मनुस्मृति के कुछ श्लोकों में तो महिलाओं की प्रशंसा की जाती है, उनके साथ अच्छा व्यवहार करने की भी बात कही गई है। किंतु वहीं इसके विपरीत उन्हें अन्यों (पिता, पति, पुत्र) पर निर्भर रहने की सलाह देते हैं, और उन्हें कई अधिकारों से भी वंचित रखते हैं।
- माता के स्थान को पिता और शिक्षक (गुरू) से भी ऊपर रखा गया है।
- मनु ने महिलाओं को वित्त प्रबंधन, स्वच्छता बनाए रखने, आध्यात्मिक और धार्मिक गतिविधियों, पोषण और घर के समग्र प्रबंधन का पूरा प्रभार देने की भी बात कही है।
- पति और पत्नी दोनों को एक दूसरे को खुश और संतुष्ट रखना चाहिए ताकि दांपत्य जीवन सुखी बना रहे। पत्नी अपने पति की आत्मा का रूप बनने का प्रयास करे।
- महिलाएं न तो भोग की वस्तु हैं और न ही मजदूरी करने वाली।
- एक महिला को पुनर्विवाह का कानूनी अधिकार भी प्राप्त है जब उसका पति गायब हो गया हो या उसे छोड़ दिया हो। किंतु वहीं दूसरी ओर पुरुषों को एक से अधिक विवाह का अधिकार भी दिया गया है।
- सर्वश्रेष्ठ विवाह वह है, जिसमें महिलाएं पति को स्वयं ही चुनती हैं यानि कि ‘ब्रह्म विवाह’।
- महिलाओं को विवाह में कोई दहेज न दिया जाए।
- अविवाहित बेटियों को विरासत में भागीदारी का अधिकार प्राप्त हो।
- मां की निजी संपत्ति पर बेटी का ही अधिकार होता है।
- महिलाओं को नुकसान पहुँचाने के लिए सख्त सजा का प्रावधान आवश्यक है।
- महिलाओं की सुरक्षा की जानी चाहिए लेकिन उन्हें घर के अंदर सीमित नहीं रखा जाना चाहिए।
मनु के सामाजिक कानूनों/व्यवस्था के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलुओं की विवेचना
मनु द्वारा उल्लेखित मनुस्मृति में सामाजिक कानूनों के कुछ सकरात्मक पहलू हैं तो वहीं दूसरी ओर हमें इसके विभिन्न नकारात्मक पहलू भी देखने को मिलते हैं। आइए, हम निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से इन्हें जानने का प्रयास करें –
सकारात्मक पहलू
- व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं पर वैदिक परंपरा का संकलन होना।
- व्यक्ति एवं समाज की भलाई के लिए सर्वोच्च एकता का होना।
- जीवन में नैतिक गुणों का निर्धारण करना जैसे कि वर्ण, आश्रम, धर्म, पुरुषार्थ।
- समाज की जैविक संकल्पना।
- इसमें अधिकारों से अधिक उत्तरदायित्व की ओर अधिक ध्यान देना।
नकारात्मक पहलू
- इसका अधिक विरोधाभासी, असंगत, परस्पर विरोधी होना।
- राजनीति सहित जीवन के सभी पहलुओं में धर्म को मिलाना।
- तर्क और कारणों की ओर ध्यान न देना।
- न्याय, कानून के समान व्यवहार पर आधारित नहीं है।
- महिलाओं व क्षुद्रों की भूमिका व स्थिति का कमज़ोर होना।
- मनुस्मृति में उल्लेखित मनु के कई विवादास्पद विचारों द्वारा वर्तमान समय में अधिक विवादों का उत्पन्न होना।
निष्कर्ष
मनु भारतीय राजनीतिक चिंतन के प्रमुख विचारकों में से एक हैं। तत्कालीन समाज पर हमें ‘मनुस्मृति’ का अत्यंत ही गहरा प्रभाव देखने को मिलता है। ऐसी मान्यता है कि ब्रिटिश शासनकाल में मनुस्मृति में कुछ हेरफेर द्वारा इसे जबरदस्ती मान्यता दी गई थी एवं इसी के अनुसार हिंदुओं के कानूनों का निर्माण हुआ। मनु ने अपने विचारों के द्वारा मानव जीवन के हर पहलू को छूने का प्रयास किया। मनु के विचारों ने मुख्यतः तत्कालीन शासकों के लिए एक प्रकार से मार्गदर्शक का कार्य किया, लेकिन आधुनिक समय में हमें मनु के कई विचारों को लेकर प्रायः विवाद भी देखने को मिलते हैं।
अतः भारतीय राजनीतिक चिंतन में मनु की अहम् भूमिका को नकारा भी नहीं जा सकता है, बेशक यह कई कारणों से वर्तमान स्थिति में एक विवादित विषय रही है। इसके बावजूद भी मनु के इस योगदान को झुठलाया जाना नामुमकिन है।
“मुफ्त शिक्षा सबका अधिकार आओ सब मिलकर करें इस सपने को साकार”
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Very nice clarity 😃😃