वर्धन वंश / पुष्यभूति वंश | Vardhan Dynasty / Pushyabhuti Dynasty in Hindi

वर्धन वंश / पुष्यभूति वंश

(Vardhan Dynasty / Pushyabhuti Dynasty)

परिचय (Introduction)

गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् हरियाणा के अम्बाला जिले के थानेश्वर नामक स्थान पर ‘वर्धन वंश’ या ‘पुष्यभूति वंश’ की स्थापना की गई। हर्षवर्धन के दरबारी कवि बाणभट्ट द्वारा रचित ‘हर्षचरित’ के अनुसार वर्धन वंश का संस्थापक पुष्यभूति था। पुष्यभूति संभवतः गुप्तों का सामंत था तथा शिव का उपासक था।

वर्धन वंश की जानकारी के स्रोत (Sources of information about Vardhan dynasty)

वर्धन वंश पर प्रकाश डालने वाली प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। इनमें सर्वप्रमुख बाणभट्ट की रचना ‘हर्षचरित’ है। इस ग्रन्थ में वर्धन वंश के शासकों की जानकारी प्राप्त होती है।

इसके अलावा ह्वेनसांग की कृति ‘सी-यू-की’ भी वर्धन वंश के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। हर्षवर्धन ने भी अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। उसके द्वारा रचित नाटक नागानन्द, प्रियदर्शिका, रत्नावली आदि से तत्कालीन समय की राजनीतिक स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

पुरातात्त्विक स्रोतों में बांसखेड़ा अभिलेख, सोनीपत अभिलेख, मधुवन अभिलेख आदि से भी इस वंश की जानकारी प्राप्त होती है। अभिलेखों के अलावा हर्षकालीन सिक्के भी हर्षवर्धन की तिथि, राज्य विस्तार और उसके राज्यकाल की अवधि तथा आर्थिक स्थिति पर जानकारी उपलब्ध कराते हैं।

वर्धन वंश की उत्पत्ति (Origin of Vardhan Dynasty)

ह्वेनसांग ने हर्षवर्धन को ‘फीशे’ (वैश्य) जाति का बताया है। आर्यमंजुश्रीमूल कल्प के अनुसार भी ये वैश्य जाति के थे। इस आधार पर यू. एन. घोषाल, आर. एस. त्रिपाठी, वी. एस. पाठक आदि वर्धन वंश को ‘वैश्य’ मानते है।

हर्षचरित में बाणभट्ट ने इस वंश की तुलना ‘चन्द्र’ से करता है। इस आधार पर एन. वर्धन इस वंश को ‘चन्द्रवंशी क्षत्रिय’ मानते है। के. पी. जायसवाल, पीटरसन आदि भी इस वंश को ‘क्षत्रिय राजवंश’ मानते है।

वर्धन शासक (Vardhan ruler)

बाणभट्ट के अनुसार इस वंश का संस्थापक पुष्यभूति था। उसके बाद के शासकों में नरवर्धन, राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन का उल्लेख केवल राजकीय मोहरों और अभिलेखों से प्राप्त होता है। इनकी उपाधि ‘महाराज’ थी। सम्भवतः आरंभिक वर्धन शासक (500 से 580 ई. के बीच के काल में ) गुप्त या हूण शासकों की या अलग-अलग समय पर दोनों की प्रभुता को स्वीकार करते रहे।

हर्षचरित के अनुसार प्रभाकरवर्धन इस वंश का चौथा शासक था। उसने ‘महाराजाधिराज’ और ‘परमभट्टारक’ की उपाधि भी धारण की। प्रभाकरवर्धन के तीन पुत्र राज्यवर्धन, हर्षवर्धन, कृष्ण तथा एक पुत्री राज्यश्री थी। राज्यश्री का विवाह कन्नौज के शासक गृहवर्मन से हुआ।

प्रभाकरवर्धन की अनेक विजयों का बाणभट्ट ने उल्लेख किया है। उसने 580 से 605 ई. तक शासन किया। प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के बाद ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन (लगभग 605 से 606 ई.) ने शासन किया। सिंहासन पर बैठते ही उसे मालवा के शासक देवगुप्त के विरुद्ध अभियान पर जाना पड़ा। विजयोपरान्त जब वह लौट रहा था तो मार्ग में गौड़ शासक शशांक ने धोखे से उसकी हत्या कर दी।

हर्षवर्धन (606 से 647 ई.) राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद हर्षवर्धन 606 ई. में राजगद्दी पर बैठा, उस समय हर्षवर्धन की आयु 16 वर्ष की थी।

हर्षवर्धन की आरम्भिक समस्यायें (Harsh Vardhan’s Early Problems)

राज्यारोहण के समय हर्षवर्धन के सामने कई समस्यायें उपस्थित थीं। उसके भाई राज्यवर्धन की हत्या कर दी गयी थी। हर्षवर्धन की बहन राज्यश्री त्रस्त होकर विन्ध्य के जंगल में किसी अज्ञात स्थान पर चली गयी थी। गौड़ राजा शशांक से अपने भाई राज्यवर्धन की हत्या का बदला लेने था। इसके अलावा कन्नौज के मौखरी शासक व हर्षवर्धन के बहनोई गृहवर्मन की हत्या के बाद कन्नौज में शासन की सुव्यवस्था करना भी उसकी प्रमुख समस्या थी।

(1) राज्यश्री की खोज-  हर्षवर्धन ने एक शक्तिशाली सेना लेकर राज्यश्री की खोज के लिये स्वयं विन्ध्य वन की ओर प्रस्थान किया एवं एक बौद्ध भिक्षु दिवाकरमित्र की मदद से राज्यश्री को ढूँढ लिया, ठीक उस समय जब वह अपनी वेदनाओं से मुक्ति पाने के लिये चिता में जलकर मरने जा रही थी। राज्यश्री को काफी समझाने के बाद हर्षवर्धन अपनी बहन राज्यश्री को अपने साथ लाने में सफल हुआ।

(2) कन्नौज का शासन – कन्नौज का इस समय कोई शासक नहीं था। राज्यश्री के कोई संतान नहीं थी, अत: ऐसी परिस्थिति में कन्नौज के मंत्रियों ने संभवतः हर्षवर्धन से इस बात की प्रार्थना कि वह कन्नौज पर शासन करें। मन्त्रियों के आग्रह पर उसने अपनी बहन के संरक्षक के रूप में कन्नौज पर शासन करना स्वीकार किया। अब थानेश्वर और कन्नौज के राज्य एक हो गये जिससे हर्षवर्धन की शक्ति में वृद्धि हुई। हर्षवर्धन ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।

हर्षवर्धन का विजय अभियान (Harshavardhana’s Victory Campaign)

हर्षचरित से पता चलता है कि हर्षवर्धन अपने भाई राज्यवर्धन की हत्या का समाचार जब हर्षवर्धन को मिला तो उसने प्रण किया, “मैं कुछ दिनों में ही धरती गौड़विहीन कर दूँगा।” विद्रोही राजाओं और सामन्तों को चुनौती देते हुए हर्षवर्धन ने अपने युद्ध सचिव के द्वारा यह घोषणा करवाई कि “या तो वे कर देने के लिये या फिर युद्ध करने के लिये तैयार हो जायें।” अपनी इस प्रतिज्ञा के अनुसार उसने एक विशाल सेना लेकर विजय के लिये चल पड़ा। हर्षवर्धन के इस सैनिक अभियान का मुख्य उद्देश्य भारत के विभिन्न भागों को एक केन्द्रीय सत्ता के अधीन लाकर देश में राजनीतिक एकता को मजबूत करना था।

(1) प्रथम पूर्वी अभियान (606-612 ई.) – सम्भवतः हर्षवर्धन ने सर्वप्रथम गौड़ के राजा शशांक के विरुद्ध सैनिक अभियान का नेतृत्व किया। इसकी जानकारी ‘हर्षचरित’ से भी प्राप्त होती है कि “शशांक के विरुद्ध युद्ध की तैयारियाँ आरम्भ हुईं।” किन्तु हर्षचरित में युद्ध की घटनाओं और परिणामों का कोई उल्लेख नहीं किया गया है।

ह्वेनसांग के अनुसार शशांक बौद्ध धर्म के प्रति हिंसक था। उसने पाटलिपुत्र में बुद्ध के पदचिह्नों से अंकित पत्थरों को उसने नदी में डाल दिया और गया के बोधि वृक्ष को कटवा दिया। ‘मंजूश्रीमूलकल्प’ से पता चलता है कि हर्षवर्धन ने शशांक की राजधानी ‘पुण्ड्र’ पर आक्रमण करके उसे पराजित किया।

ह्वेनसांग के अनुसार “ जैसे ही हर्षवर्धन राजा बना, उसने एक विशाल सेना के साथ अपने भाई के हत्यारे से बदला लेने के अभिप्राय से प्रस्थान किया। उसकी इच्छा पड़ोसी राज्यों को जीतकर अपने अधीन करने की भी थी। वह पूर्व की ओर बढ़ा तथा उसने लगातार 6 वर्षों तक राज्यों से युद्ध करता रहा, जो उसकी अधीनता स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं थे। उसने पंचभारत पर भी विजय प्राप्त की।” पंचभारत में पाँच राज्य थे – पंजाब, कन्नौज, बिहार, बंगाल, उड़ीसा। इस प्रकार हर्षवर्धन ने लगभग सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर आधिपत्य स्थापित कर लिया।

(2) वल्लभी की विजय – हर्षवर्धन ने उत्तरी भारत पर विजय प्राप्त करने के बाद लगभग 633 ई. में वल्लभी (सौराष्ट्र) के राजा ध्रुवसेन पर आक्रमण किया जो अधिक देर तक मैदान में नहीं टिक सका। उसने भागकर भड़ौच के राजा दद्द के यहाँ शरण ली किंतु बाद में हर्षवर्धन से उसकी मैत्री हो गयी तथा हर्षवर्धन ने उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। हर्षवर्धन ने यहाँ पर दूरदर्शिता का परिचय दिया क्योंकि वल्लभी नरेश की मित्रता से उसे दक्षिण के राज्यों को जीतने में सुविधा प्राप्त हो गयी। वल्लभी के अधीन राज्यों (कच्छ,  काठियावाड़, आनन्दपुर) ने हर्षवर्धन की अधीनता स्वीकार कर ली।

(3) पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध – उत्तरी भारत पर अधिकार करने के बाद हर्षवर्धन ने संभवतः दक्षिण विजय हेतु प्रस्थान किया। हर्षवर्धन ने पुलकेशिन द्वितीय पर लगभग 634 ई. में आक्रमण कर दिया। नर्मदा तट पर दोनों में भयानक युद्ध हुआ। इस युद्ध में हर्षवर्धन की हार हुई। इस युद्ध की जानकारी पुलकेशिन की प्रशस्ति एहोल लेख से प्राप्त होती है। ह्वेनसांग के अनुसार हर्षवर्धन ने अनेक देश जीते, किंतु वह पुलकेशिन को नहीं हरा सका। इस प्रकार हर्षवर्धन नर्मदा के दक्षिण में आगे नहीं बढ़ सका।

(4) सिन्ध विजय – हर्षचरित से पता चलता है कि हर्षवर्धन ने सिन्ध पर भी आक्रमण किया। प्रभाकरवर्धन के समय से ही सिन्धुराज से शत्रुता चली आ रही थी। हर्षवर्धन ने सिन्धुराज को पराजित करके उसकी सारी सम्पत्ति पर अपना अधिकार कर लिया किंतु हर्षचरित के अलावा इस विजय का कोई प्रमाण नहीं मिलता। ह्वेनसांग ने तो यह लिखा है कि जिस समय हर्षवर्धन सिन्ध पहुँचा, उस समय सिन्ध एक स्वतन्त्र और शक्तिशाली राज्य था। संभवतः हर्षवर्धन ने सिन्ध पर आक्रमण किया हो किंतु उसे वहाँ विशेष सफलता नहीं मिली हो।

(5) द्वितीय पूर्वी अभियान – हर्षचरित से पता चलता है कि 643 ई. में जब चीनी यात्री ह्वेनसांग आसाम नरेश भास्कर वर्मन के निमन्त्रण पर कामरूप पहुँचा था तो उस समय तक हर्षवर्धन ने गंजाम (उड़ीसा) को अपने अधिकार में कर लिया था।

हर्षवर्धन ने मगध पर भी विजय प्राप्त की और 641 ई. में ‘मगध सम्राट’ की उपाधि धारण की। सम्भवतः हर्षवर्धन ने पश्चिमी बंगाल पर भी विजय प्राप्त की थी। इस काल के साहित्य से यह पता चलता है कि नेपाल और कश्मीर के राज्यों ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। हर्षवर्धन ने संभवतः 647 ई. तक शासन किया। उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं था, अतः उसकी मृत्यु के बाद उत्तर भारत में पुनः अव्यवस्था और अराजकता फैल गई तथा कन्नौज पर अर्जुन नामक स्थानीय शासक ने अधिकार कर लिया।

हर्षवर्धन का शासन प्रबन्ध (Administration of Harshavardhana)

बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’, ह्वेनसांग का यात्रा विवरण और हर्षवर्धन के कुछ अभिलेखों से उसके शासन व्यवस्था की जानकारी प्राप्त होती है। ह्वेनसांग के अनुसार “हर्ष स्वयं विभिन्न स्थानों के निरीक्षण के लिये जाता था। जनता से स्वयं सीधी बातचीत कर उनकी समस्याएँ सुनता था तथा उसी समय अपने साथ मन्त्री को समस्या का जल्दी निदान का निर्देश देता था।”

(1) केंद्रीय शासन – शासन की सर्वोच्च सत्ता राजा में निहित थी। वही समस्त आज्ञा प्रसारित करता था। न्याय की अन्तिम व्यवस्था राजा के हाथ में थी। युद्ध के समय वह स्वयं सेना का नेतृत्व करता था।

राजा को शासन की सुव्यवस्था और  परामर्श के लिये एक मन्त्रिपरिषद् थीं। उस समय मन्त्रियों को सचिव या आमात्य कहा जाता था। हर्षवर्धन का प्रधान सचिव भांडि तथा सेनापति सिंहनाद था। हर्षवर्धन के दानपात्रों में निम्नलिखित अधिकारियों की सूची मिलती है-

( i ) महासन्धि विग्रहाधिकृत –  युद्ध और शान्ति का मन्त्री।

( ii ) महाबलाधिकृत – सर्वोच्च सेनापति।

( iii ) राजस्थानीय – राज्यपाल।

( iv ) कुमारामात्य – युवराज।

( v ) उपरिक – प्रान्तीय गवर्नर।

( vi ) विषयपति – जिलाधिकारी।

( vii ) भोगपति – राजकीय कर एकत्र करने वाला।

(2) प्रान्तीय शासन – हर्षवर्धन ने प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से अपने साम्राज्य जिसे राज्य या मण्डल कहते थे, को प्रान्तों में बाँटा था। प्रान्त को मुक्ति कहा जाता था। मुक्ति का शासक गोप्ता, राजस्थानीय, उपरिक कहलाता था। प्रत्येक मुक्ति विषयों में तथा विषय नगरों और ग्रामों में विभक्त था। विषय का अधिकारी विषयपति होता था।

(3) ग्राम शासन – शासन की आधारभूत इकाई ग्राम था तथा इसका प्रधान ‘ग्रामिक’ था। बाणभट्ट के विवरण से पता चलता है कि उस समय आज जैसी पंचायती राज व्यवस्था थी। गाँव की सरकारी आय व व्यय का विवरण रखने वाला ‘ग्राम पटलिक’ होता था। ‘पुस्तकृत’ नामक अधिकारी गाँव की भूमि का विवरण के साथ ग्राम सभा के कार्य का विवरण भी रखता था। इस विवरण से पता चलता है कि ग्राम स्वावलम्बी और स्वशासित थे।

(4) सैन्य व्यवस्था – हर्षवर्धन के पास एक विशाल तथा संगठित सेना थी। ह्वेनसांग के अनुसार उसकी सेना में एक लाख घोड़े तथा 60,000 हाथी थे। उसकी सेना के 4 अंग (पैदल, घुड़सवार, हाथी, रथ)  थे। सैनिक ‘भाट’ कहलाते थे। सेना का सर्वोच्च पदाधिकारी “महाबलाधिकृत” था। सैनिक पदाधिकारियों को अन्य पदाधिकारियों के विपरीत नकद वेतन दिया जाता था।

(5) राजस्व – हर्षवर्धन के काल में कर कम संख्या तथा मात्रा में लिये जाते थे। ताम्रपत्र केवल तीन करों (भाग, हिरण्य, बलि) की जानकारी प्राप्त होती है। ‘भाग’ भूमिकर था जो उपज का छठा भाग होता था। ‘हिरण्य’ कर व्यापारी देते थे। ‘बलि’ धार्मिक कर था। दूध, फल, घाटों, मार्गों आदि पर भी कर था।

राजकीय भूमि से प्राप्त आय का व्यय चार रूपों में होता था, जो निम्नलिखित है-

(i) प्रथम भाग – धार्मिक कार्यों और सरकारी कार्यों पर खर्चा किया जाता था।

(ii) दूसरा भाग – राजकीय पदाधिकारियों पर खर्चा किया जाता था।

( iii ) तीसरा भाग – विद्वानों को पुरस्कृत करने पर खर्चा किया जाता था।

(iv) चौथा भाग – विभिन्न सम्प्रदायों को दान देने पर खर्चा किया जाता था।

(6) न्याय व्यवस्था और दण्ड विधान – हर्षवर्धन के समय गुप्तकाल जैसी सुरक्षा व्यवस्था का अभाव था। फाह्यान को जहाँ किसी असुरक्षा का सामना नहीं करना पड़ा था, वहाँ ह्वेनसांग को कई बार चोर-डाकुओं का सामना करना पड़ा था। इसीलिये हर्षवर्धन के समय दण्डविधान भी गुप्तकाल की अपेक्षा कठोर था। शान्ति व्यवस्था की स्थापना हेतु पुलिस विभाग था। पुलिसकर्मी ‘भाट’ कहलाते थे। फौजदारी कानून कठोर थे किन्तु मृत्युदण्ड की अपेक्षा आजीवन कारावास ही प्रायः कठोरतम दण्ड था। अंग-विच्छेद, निर्वासन भी दण्ड था। निरपराधिता सिद्ध करने हेतु विष-परीक्षा, जल-परीक्षा , अग्नि-परीक्षा होती थी। साधारण अपराधों में अर्थदण्ड या जुर्माना होता था।

(7)  जनकल्याण कार्य – हर्षवर्धन ने राज्य में सड़कें बनवाई और सड़कों पर यात्रियों की सुविधा के लिये धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। उसने अनेक मन्दिर, चैत्य, विहार और स्तूप बनवाये। शिक्षा को उसने विशेष प्रोत्साहन दिया। नालन्दा विश्वविद्यालय और विहारों को वह नियमित आर्थिक अनुदान देता था। वह दान-दक्षिणा और धार्मिक कृत्यों में भी खर्चा करता था।

धर्म (Religion)

हर्षचरित से पता चलता है कि हर्षवर्धन के पूर्वज शैव धर्म के अनुयायी थे। हर्षवर्धन भी आरंभ में शैव धर्म का अनुयायी था। हर्षवर्धन ने अपने नाटकों प्रियदर्शिका और रत्नावली में भी शिव-पार्वती तथा अन्य देवी-देवताओं की स्तुति की है परंतु बाद में हर्षवर्धन ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। हर्षवर्धन के बौद्ध धर्म ग्रहण करने की पुष्टि बाणभट्ट और ह्वेनसांग के विवरण से होती है।

हर्षवर्धन एक धर्म सहिष्णु शासक था। उसने बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद भी अन्य धर्मों के प्रति दुर्व्यवहार नहीं किया। उसने अन्य धर्मों को भी सम्मान और मान्यता देते हुए कन्नौज एवं प्रयाग की सीमाओं में महात्मा बुद्ध के साथ ही शिव और सूर्य की भी पूजा की।

कला और साहित्य (Art and Literature)

हर्षवर्धन कला और साहित्य का प्रेमी था। अतः उसके काल में कला और साहित्य में पर पर्याप्त उन्नति हुई, जिसका विवरण निम्नलिखित है-

(1) वास्तुकला और मूर्तिकला – हर्षवर्धन के काल में हिन्दू, बौद्ध और जैन भवन बनाये गये। एलिफैन्टा का गुफा मन्दिर, वैरूल (एलोरा) का मन्दिर, चट्टान को काटकर बनाया गया कांची में मामल्लपुरम् का मन्दिर प्रमुख हैं। मूर्तिकला का भी उस समय काफी विकास हुआ। बौद्धों ने बुद्ध  की और हिन्दुओं ने शिव एवं विष्णु की सुन्दर मूर्तियों का निर्माण करवाया। इस काल में मूर्तियों में भारशिव शैली तथा मथुरा शैली का मिलन हो गया। इस काल में गोल मुख मण्डल के स्थान पर लम्बे चेहरे बनाये जाने लगे थे।

(2) चित्रकला – इस काल के चित्र अजन्ता की गुफा संख्या 1 और 2 में देखने को मिलते हैं। इसके अलावा एक चित्र में पुलकेशिन द्वितीय को फारस के सम्राट खुसरा परवेज के राजदूत का स्वागत करते हुए दिखाया गया है। बुद्ध और पशु-पक्षियों के भी यहाँ पर अनेक चित्र हैं। इनके अलावा उस समय नाट्य कला, संगीत कला, मुद्रा आदि का भी विकास हुआ।

(3) साहित्य – हर्षवर्धन विद्वानों का सम्मान करता था तथा उनका आश्रयदाता था। ह्वेनसांग के अनुसार हर्षवर्धन ने अपने दरबारी कवियों से रचनायें लिखने के लिये कहा था, जिनके संग्रह को जातक माला के नाम से जाना जाता है। हर्षवर्धन राजकोष का एक भाग विद्वानों को पुरस्कार देने में खर्च करता था। बाणभट्ट उसका दरबारी लेखक था, जिसने दो महान् ग्रन्थों (हर्षचरित और कादम्बरी) की रचना की। हर्षवर्धन ने भी संस्कृत में तीन नाटक (रत्नावली, प्रियदर्शिका,नागानन्द) लिखे। बाणभट्ट ने हर्षवर्धन को सुन्दर काव्य रचना में प्रवीण बताया है। हर्षवर्धन की सभा में बाणभट्ट के अलावा मातंग, दिवाकर, भर्तृहरि, मयूर, हरिदत्त, जयसेन आदि प्रसिद्ध कवि और लेखक रहते थे। हर्षवर्धन के समय में प्राचीन साहित्य और शास्त्रों का अध्ययन अच्छी तरह प्रचलित था तथा इस काल में भी दर्शन, धर्म-विज्ञान, गणित, ज्योतिष, काव्य, नाटक, कथा आदि पर कई ग्रन्थ लिखे गये।

निष्कर्ष (Conclusion)

अतः हम कह सकते हैं कि हर्षवर्धन ने प्रायः संपूर्ण उत्तर भारत पर अधिपत्य स्थापित किया। यह उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा नदी और विंध्य पर्वत तक तथा पूर्व में ब्रह्मपुत्र से पश्चिम में सौराष्ट्र एवं काठियावाड़ तक फैला था। हर्षवर्धन एक महान विजेता, कुशल प्रशासक, विद्वान और विद्या का उदार संरक्षक था। वह एक धर्म सहिष्णु शासक था तथा इस रूप में ब्राह्मणों और बौद्धों का सम्मान करता था। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत में फैली हुई अव्यवस्था और अराजकता को समाप्त कर हर्षवर्धन ने देश की सांस्कृतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया।

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